रविवार, 28 दिसंबर 2014

अपनी-अपनी घरवापसी!

कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी।कुल्हड़ में चाय छनकर आ गई थी पर घने कोहरे के कारण हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था।चाय कुल्हड़ में ही पड़ी-पड़ी जमने लगी थी।अचानक मिले इस जीवनदान से चाय का हौसला बढ़ गया।उसने कुल्हड़ को थोड़ी-सी कुहनी मारी और कहने लगी--‘मेरे मन की बात सुनोगे ?’ कुल्हड़ पहले तो थोड़ा कुनमुनाया फिर कोहरे को चेहरे से झाड़कर बोला-कोई फायदा ना है।तू सुनाकर करेगी भी क्या ? या तो अभी पेट के अंदर चली जाएगी या मेरे अंदर पूरी की पूरी जम जाएगी।ऐसे में तू कहना क्या चाहती है ?’

चाय भीषण ठण्ड में भी उबल पड़ी।कुल्हड़ का इस तरह का रवैया उसे बिलकुल पसंद नहीं आया।उसने मुँहतोड़ ज़वाब देते हुए कहा—मेरा जीवन भले ही अल्पकालिक है पर यह क्या बात हुई कि हमें अपने मन की बात कहने का भी अधिकार नहीं है।तुम्हें अभिमान का नशा है और नशा किसी भी चीज़ का हो,बुरा होता है।सबको अपनी-अपनी बात कहने का हक है।सुड़कने वाले की बातें मैं हमेशा सुनती आयी हूँ।आज भी मैं उसकी बातें सुन-सुनकर केतली में ही उबल रही थी।अब न जाने कहाँ चला गया है वो ?

चाय की बात सुनकर कुल्हड़ थोड़ा सेंटिया गया और कहने लगा—हाँ,तुम ठीक कह रही हो।शाम को ही चौपाल में घरवापसी की बातें हो रही थीं।अभी रेडियो में भी कुछ ऐसा ही सुनाई दे रहा था।पर मेरी समझ में कुछ आया नहीं।अगर तुम्हारी घरवापसी हुई तो तुम पहले केतली में,फिर चूल्हे में और फिर उसके बाद कहाँ-कहाँ पहुँचोगी ? चाय-बागान तक चली भी गई और फिर घरवापसी की बात उठ गई तो इसी ज़मीन में मिलना होगा।सब कुछ कितना गड्ड-मड्ड सा हो जायेगा ना ? ’

चाय अब तक गम्भीर हो चुकी थी।’मन की बात’ की रट लगाये उसे अंदाजा नहीं था कि बात उसके अस्तित्व तक पहुँच जायेगी।’हाँ,तुम भी अपनी घरवापसी के लिए तैयार हो जाओ।तुम्हें कुम्हार के यहाँ भी जाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि तुम्हें मिलना तो इसी मिटटी में है।घरवापसी का यह सबसे बढ़िया शॉर्टकट होगा।लेकिन क्या हमें सुड़क जाने वाले की भी कभी घरवापसी होगी ?’ चाय ने थोड़ा ठंढाते हुए पूछा।

कुल्हड़ ने कुछ याद करते हुए बताया-‘एक दिन कुम्हार अपने मन की बात कह रहा था।पहले तो वह घरवापसी की बात सुनते ही बहुत खुश हो जाता था,पर अब डरा-सा रहता है।पूछ रहा था कि उसके पुरखे सायबेरिया से आये थे,तो क्या उसे वहां जाना पड़ेगा ? मेरे कुम्हार को तो ठण्डी भी बहुत लगती है।रही बात सुड़कने वाले की,वो तो तुम्हें पीकर अपनी गर्माहट वापस पा लेता है।घरवापसी के लिए उसे आदिमयुग में जाने की ज़रूरत नहीं है।अब जंगल में बचा ही क्या है ? इसलिए भुगतना तो तुम्हें और हमें ही है।’

चाय और कुल्हड़ की यह वार्ता चल ही रही थी कि घने कोहरे से निकलकर दो हाथ कुल्हड़ की गरदन तक आ गए।ये दोनों अपनी ‘घरवापसी’ के लिए तैयार हो चुके थे और सुड़कने वाला अब पहले से बेहतर महसूस कर रहा था।ऐसी कड़ाके की ठण्ड में उसे भी अपने घर जाने की चिंता सता रही थी।

1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया बतकही ..

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