रविवार, 21 जुलाई 2024

एक पुल की आत्मकथा

मैं एक गिरा हुआ पुल हूँ।अभी हाल में गिरा हूँ।सबके सामने,दिन-दहाड़े।मेरे पास मनुष्यों की तरह गिरने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।मैं स्वयं से नहीं गिरा।मुझे योजना बनाकर गिराया गया।यह मेरी नहीं दूसरों की गिरावट है।मुझ पर लगातार आरोप लग रहे हैं कि मैं अचानक गिरा हूँ।सच यह है कि बनने से पहले ही मेरे गिरने की नींव रख दी गई थी।मुझे गर्व है कि मैं अपने आप नहीं गिरा।अपने लिए नहीं गिरा।जिन्हें सजीव कहा जाता है,वे अपने लाभ के लिए कभी भी गिर लेते हैं।धन और पद के लिए बह जाते हैं।इधर मुझे देखो।भारी बाढ़ में बहा।जब दबाव बढ़ा,तभी ढहा।मेरे साथ कई निर्दोषों की जान चली गई।इसके लिए मेरी थू-थू हो रही है।हक़ीक़त यह है किगिरनेऔर मरने वाले दोनों ही मनुष्य थे।मीडिया ने सुर्ख़ी दी कि पुल गिर गया।उसे भी नहीं दिखा कि इसगिरनेमें कौन-कौन और कितना गिरा है ! लेकिन वह भी क्या करे ! उसे स्वयं अपनी गिरावट नहीं दिख रही।यह सामूहिक गिरावट का दौर है।हम गिरकर भी दूसरों को बचा रहे हैं।यह नए प्रकार का हुनर है।


मैं अकेले नहीं गिरा।मेरे और भी समकालीन भाई गिरे।उन्हें भी ठीक-ठाक बजट के साथ गिराया गया।बनाने वाले विपुल धनराशि में फिसले और हम अथाह जलराशि में।हम गिरने में भी एक नहीं थे,जबकि हमें मिलकर गिराया गया।हमने गिरकर भी गुनाह नहीं किया बल्कि गुनाह उजागर किए हैं,जनसेवकों,अफ़सरों और ठेकेदारों के।फिर भी हमारी निंदा हो रही है।निर्माताओं के भीतर कुछ मरा हो, हो,मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे भ्रष्टाचरण से धूलि-धूसरित हो गया।उनके हौसले तक पस्त नहीं हुए।नई योजनाओं के साथवेफिर से प्रकट होंगे।


मेरा गिरना एक स्वाभाविक घटना थी।मैं स्वार्थ के लिए क़तई नहीं गिरा।अंदर से भरा हुआ था,इसलिए भरभराकर गिरा।जो मैं देख रहा था,बनते समय वह किसी को नहीं दिखा।लूट-खसोट,परसेंट और अनियमितताओं का बोझ मैं अकेले कितने दिनों तक ढोता ! मुझे बनते-बनते ही गिर जाना चाहिए था।फिर भी मैंने सब्र किया।हत्यारे और भ्रष्ट मुझ पर कूद रहे थे।छाती पर पत्थर रखकर सब सहा।मुझे दूसरों की चिंता थी।असहायों और ज़रूरतमंदों को उनके अपनों से मिलवाया।युवाओं को उनकी नौकरी और छात्रों को उनकी परीक्षाओं तक सही समय पर पहुँचाया।यह अलग बात है कि परीक्षाएँ भी नहीं बचीं।वे एक-एक कर लीक हो रही हैं।इसमें भी प्रश्न-पत्रों की ग़लती है।वे ही अपनी स्याही को नियंत्रण में नहीं रख पाए।जिस स्याही कोनीट और क्लीनचेहरों में पुतनी चाहिए थी,वह पेपर्स में लीक हुई।लीकरोंके मुँह के बजाय बच्चों के भविष्य काले हुए।प्रगतिशील मनुष्य ने यहाँ भी अपने को बचा लिया।


यह गिरने से ठीक पहले की बात है।मैंने बिना भेदभाव के सबको नदी पार कराई।फिर भी मुझे उचित महत्व नहीं मिला।यहाँ तक कि एक ऊँचे कवि ने भी मुझे अहमियत नहीं दी।वह बार-बार सबको चेता रहा था,‘पुल पार करने से नदी पार नहीं होती,नदी में धँसे बिना पुल पार नहीं होता !’अब ऐसी कविता सुनकर कोई भी प्रेरित हो सकता है।मेरे निर्माता अति संवेदनशील थे।मुझसे ज़्यादा मेरे निर्माताओं ने प्रेरणा ली।उसी क्षण नदी में मेरा धँसना निश्चित हो गया था।पार होने के लिए धँसना ही विकल्प बचा तो मैं ही क्यों विद्रोह करूँ ! इसलिए पहली बारिश में ही मुक्ति की राह पकड़ ली।आगे भी पुल बनेंगे और ढहेंगे।पुलों का बह जाना आगे से कोई खबर नहीं होगी।ठीक वैसे,जैसे अब मनुष्यों काबह जानाकोई खबर नहीं है।


फिर भी यह सवाल उठता है कि अगर मैं नियत समय पर नहीं गिरता,तो आधुनिक इंजीनियरों,अफ़सरों और जननायकों पर से जनता का भरोसा गिर जाता।मैंने सरकार को बहुत बड़े धर्मसंकट से बचा लिया है।ठेकेदारों का व्यवस्था पर भरोसा नहीं टूटने दिया है।सरकारी काम में एकता की मिसाल आगे भी क़ायम रहे।सभी मिलजुल कर गिरें,ऐसी कामना है।एक आख़िरी बात।मुझमें और नेताओं में समानता की बात कभी मत करना।वे भ्रष्टाचार करते हैं इस्तीफ़ा तक नहीं देते और जब मैं भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता हूँ,प्राणोत्सर्ग कर लेता हूँ।एक पुल होने में और एक मनुष्य होने में यही बुनियादी फ़र्क़ है।

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