शुक्रवार, 31 मई 2013

खाली गिलास तो भरने दो !


जनसंदेश में ३०/०५/२०१३ को !
 


अभी पिछले दिनों यूपीए के लोगों ने मिल-जुलकर बड़े जतन से सरकार को नौ साल तक खींचने का औपचारिक रूप से जश्न मनाया ।इस जश्न की खास बात यह रही कि विपक्ष के बार-बार टोकने के बावजूद सरकार के जो मुखिया, अभी तक मौन ओढ़े हुए थे,उनका मुँह खुल गया।उन्होंने विपक्ष के सारे तीर अपने एक ही वार से भोथरे कर दिए।लोगों की नाहक टोकाटाकी का जवाब देते हुए उन्होंने राज खोला कि जब वे सत्ता में आए थे,उन्हें खाली गिलास मिला था।इसका मतलब केवल गिलास नहीं अपितु जो गिलास मिला वह रिक्त था और वे उसे तभी से भरने में लगे हैं।यह उद्घोषणा सुनते ही सभी आलोचकों को सांप सूंघ गया ।उन्हें अचानक अपनी इस तथ्यात्मक भूल का अहसास हुआ।

सरकार के मुखिया की पीड़ा का जब हमने भी गहरे से आत्म-मंथन किया तो उन पर आ रही सारा गुस्सा काफूर हो गया ।सारा मीडिया और विपक्ष उनके ऊपर अनजाने में ही टूटा पड़ रहा था ।किसी ने उनके गिलास में झाँकने की जहमत नहीं उठाई।अब जब गिलास पूरा खाली था तो उसके भरने में वक्त तो लगेगा ही।आम आदमी तक सौ में से पन्द्रह पैसे भेजने वाली सरकार ने अपने खाली गिलास को कहीं अधिक गति से भरा फ़िर भी बीच-बीच में कॉमनवेल्थ,टूजी,कोयला जैसे लीकेज भी तो आए।विपक्ष और मीडिया लगातार इस तथ्य की अनदेखी करता रहा और इससे जनता को गलत सूचना गई।यह तो अच्छा हुआ कि इसी बीच जश्न की रात आ गई और यह सत्य सबके सामने उजागर हो गया कि नौ साल पहले इस सरकार को खाली गिलास मिला था और वह तभी से उसे दोनों हाथों से भरने में लगी हुई है।

प्रधानमंत्री ने जब सार्वजनिक रूप से यह ऐलान कर दिया है कि वे खाली गिलास भर रहे हैं तो हम सभी को थोड़ी तसल्ली रखनी चाहिए।हमें सरकार की इस बात की प्रशंसा करनी चाहिए कि उसने अपने लिए केवल गिलास का ही चयन किया है,घड़े का नहीं।गिलास लेना चतुरता की निशानी है।जैसे ही वह भरने को हो,चुप से एक-आध घूँट भरकर उसे खाली किया जा सकता है,जबकि घड़े के साथ ऐसा नहीं है।घड़े के कभी भी भरने की आशंका होती है,गिलास की नहीं।इस तरह सरकार को घड़ा भरने का डर भी नहीं रहता है,चाहे वह जितना उलीच-उलीचकर भरती रहे।इसलिए गिलास के होने से सरकार और उसके सभी सहयोगियों को बड़ी राहत है।दो-चार लीकेज होने के बावजूद गिलास भरता भी रहता है और खाली भी।

प्रधानमंत्री मूलतः दार्शनिक किस्म के व्यक्ति हैं इसलिए गिलास वाली थ्योरी भी उनकी अपनी देन है।वे तो खाली गिलास को भरने का काम कर रहे हैं जबकि दूसरे यह देख रहे हैं कि गिलास खाली हो रहा है।अब यह आप पर निर्भर है कि उनके भरने को हम नज़रंदाज़ करें या खाली होने का ढिंढोरा पीटें।उनके अपनों के दो-चार घूँट भर लेने से गिलास खाली थोड़ी होगा.दोनों स्थितियों में फायदा गिलास और उसके मालिक का ही होगा,हम जैसे जनम-जनम के प्यासों का नहीं।

 

बुधवार, 22 मई 2013

भ्रष्टाचार का उजलापन !

Welcome To National Duniya: Daily Hindi News Paper
22/05/2013 को नैशनल दुनिया में !

23/05/2013 को जनसंदेश में !

ईमानदारी आज निपट अकेली है।वह सबसे मुँह छिपाती फ़िर रही है पर उसे सुकून का एक कोना भी नसीब नहीं हो रहा है।वहीँ उसका बड़ा भाई भ्रष्टाचार दिन-पर-दिन निखरता जा रहा है।उस पर दाग लगने ही वाला होता है कि जनता चुनावी-साबुन से उसे धो-पोंछकर साफ़ कर देती है।हर बार भ्रष्टाचार पहले से अधिक मुखर और सुघड़ होकर प्रकट हो जाता है।इधर ईमानदारी अपना ठिकाना ढूँढने में लगी रहती है और उधर भ्रष्टाचार बोरियों रकम अपने ठिकाने लगा देता है।ईमानदारी समाज में मुँह दिखने लायक नहीं होती।अगर कभी उसने अपना चेहरा दिखाने की जुर्रत की तो उसका शीलहरण होने में देर नहीं लगती।

भ्रष्टाचार पूरे दम-खम से ढोल बजा रहा है।जो लोग उस पर उँगली उठा रहे थे,उसकी भारी चुनावी-जीत से अपने को जला हुआ महसूस कर रहे हैं।भ्रष्टाचार के पास अपनी काया-पलट करने का अचूक अस्त्र चुनाव होता है।ऐसे में वह अपनी पूरी ताकत झोंक देता है और चुनावी-जनता द्वारा बिलकुल पाक-साफ़ होकर निकलता है।भ्रष्टाचार अपनी इस लड़ाई में ईमानदारी को पानी पिला देता है।वह ऐसा उसके जीवित रखने के लिए करता है।जीतने के बाद इसी की चादर ओढ़कर वह आने वाला समय आराम से काट लेता है।

ईमानदारी की तरह नैतिकता का भी बुरा हाल है।भ्रष्टाचार जिस कुर्सी पर बैठता है,वह नैतिकता का पाठ पढ़ने लगती है।जब भी कोई सवाल किया जाता है,उसकी जवाबदेह नैतिकता ही होती है।भ्रष्टाचार यहाँ भी अपने को बचा ले जाता है।बहुत ज़्यादा शोर-शराबा हुआ तो नैतिकता के नाम पर कागज का एक रुक्का कैमरों के सामने फेंक दिया जाता है।इस तरह नैतिकता बे-पर्द होकर कुर्सी-आसीन भ्रष्टाचार की रक्षा करती है।अगर किसी बड़ी घटना में नैतिकता मारी जाती है तो उसके लिए औपचारिक रूप से अख़बारों और टेलीविजन पर शोकगीत गाया और बजाया जाता है।इस तरह वह शहीद होकर भी बड़े भाई का मान रखती है।

कुछ समय पहले यह सुनने में आया था कि कुछ लोग भ्रष्टाचार को साफ़ करने के लिए लोकपाल की माँग कर रहे थे,यहाँ तक कि इसके लिए एक महात्मा अपनी जान देने पर उतारू थे।पर अब यह साबित हो चुका है कि ऐसे लोग केवल जज्बाती थे।यह काम तो पहले से ही हो रहा है।आज भ्रष्टाचार जितना उजला और चमकदार दिख रहा है,उतना कभी नहीं था।हाँ,लोकपाल के द्वारा उसकी सफ़ाई होने से यह तो होगा कि लोग जंतर-मंतर पर आने से बच जायेंगे ,पर फ़िर करेंगे भी क्या ? वैसे भी कुछ अंतराल के बाद होने वाले चुनाव के द्वारा जनता स्वयं ही सफ़ाई का प्रमाणपत्र दे देती है। यही सोचकर अभी इस दिशा में काम रुका हुआ है।उम्मीद है कि आने वाले समय में लोकपाल का बैक-अप पाकर भ्रष्टाचार को जोर से हंसने का मौका मिल सकेगा।इसमें उसकी भी ताकत समाहित हो जायेगी,फ़िर कोई क्या कहकर चिल्लाएगा ?

फ़िलहाल ईमानदारी और नैतिकता के पाठ कागज के पन्नों में सिमट गए हैं।भ्रष्टाचार का अंतिम लक्ष्य है कि कुर्सी में जमें रहने के लिए इन दोनों को वहाँ से भी बाहर किया जाए,ताकि उसे कागज का रुक्का लिखने की जो ज़रूरत अभी पड़ती है,वह भी न पड़े।

 

जेंटलमेन का तौलिया !

कल्पतरु में ३०/०५/२०१३ को !

 

२२/०५/२०१३ को जनवाणी में !हरिभूमि में २३/०५/२०१३ को !
 

 
 

आईपीएल को खेल मानने वालों का भरोसा उस समय हिट-विकेट की तरह उखड़ गया जब पता चला कि कुछ खिलाड़ी गेंद और बल्ले की जगह तौलिया उछालते हैं ।यह तौलिया कोई साधारण किस्म का अंग-वस्त्र भर नहीं है ।उछलने के बाद यह जब दुहरकर जमीन पकड़ता है तो इसकी मुद्रा भरी हुई झोली की माफिक होती है ।इस बात को सामान्य व्यक्ति समझ भी नहीं सकता है ।इस तरह यह तौलिया देह के पसीने को पोंछने के बजाय अनायास ही ज़िन्दगी का ‘दलिद्दर’ दूर कर देता है।इस गोपन-कर्म पर पता नहीं किसकी नज़र लग गई और जो खिलाड़ी लाखों में खेल रहे थे,वे सलाखों के पीछे हो गए।

कई लोग जो आईपीएल को गहरे से जानते हैं,उनको इस तरह की घटनाओं पर नहीं, उसके सार्वजनीकरण पर चिंता है।जो इस खेल की प्रवृत्ति को जानते हैं,उन्हें इसके खिलाड़ियों की दशा का भी बोध  है।आईपीएल-भक्तों को मैदान में भले ही बाईस खिलाड़ी और दो अम्पायर दिखते हों पर असली खिलाड़ी और अम्पायर तो मैदान के बाहर ही होते हैं।मैदान के भीतर जब कोई विकेट गिरता है या चौका-छक्का पड़ता है,तब खिलाड़ियों की उछल-कूद और चीयर-लीडर का नृत्य बनावटी होता है।असली नाच और अंतिम खुशी तो मैदान के बाहर के खिलाड़ी ही उठाते हैं।

हमारे देश के लोगों में क्रिकेट उसी तरह रच-बस गया है,जैसे राजनीति।लोगों की रूचियाँ इन दोनों में समान रूप से हैं।क्रिकेट के खेल में खिलाड़ी जीत या हारकर पैसा बना लेते हैं पर उनके प्रशंसक मार-पीट सहन करते हैं और हार का सट्टा भी।ठीक यही अनुभव वे राजनीति से भी ग्रहण करते हैं।यानी खेल के दोनों प्रारूपों में आम नागरिक का बलिदान होना तय है ।रही बात क्रिकेट में फिक्सिंग की ,तो वह भी राजनीति के क्षेत्र से आयातित है।राजनीति में जहाँ सांसद बनने या सरकार बनाने को लेकर बड़ी फिक्सिंग होती है,वहीँ क्रिकेट में टुटपुंजिया-टाइप की।इसीलिए अकसर बड़े टाइप की फिक्सिंग क्रिकेट जैसी छोटी-मोटी फिक्सिंग का उत्सर्ग करके अपने को बचा लेती है।

हालिया फिक्सिंग प्रकरण में जिनकी संतई उजागर हुई है,उनका लुक बड़ा मासूम रहा है।कुछ समय पहले जब एक खिलाड़ी ने उन्हें मैदान में थप्पड़ मारा था,उनके आंसुओं से पूरी पिच पानी-पानी हो गई थी।वो उनका ओरिजिनल-लुक था ।अब वही लुक पुलिसिया-पूछताछ में काम आ रहा है।उनसे बस थोड़ी-सी चूक हुई कि जो तौलिया अब तक उनकी निर्दोष छवि की रक्षा कर रहा था,अचानक उन्हें नंगा कर गया।हालाँकि उनकी संतई को बचाने के लिए उनके वकील ने कमर कस ली है और जल्द ही वे अपनी मासूम-लुक की प्राप्ति कर सकेंगे।

आइपीएल की फिक्सिंग की खबर से क्रिकेट बोर्ड बिलकुल अविचलित है।उसने साफ़ कर दिया है कि बोर्ड की साख बहुत मजबूत है,ऐसी घटनाओं से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।उनके कहने का सीधा मतलब यही है कि जिस खाद-पानी से आईपीएल का वृक्ष तैयार किया गया है,उसकी कोई भी शाख ऐसे छोटे-मोटे बवंडरों से टूटने वाली नहीं है।इसकी बुनियाद ही नीलामी प्रक्रिया के दौरान ठोंक-बजाकर मजबूत कर ली जाती है।इसलिए देश की जनता खेल देखती रहे,वे खेलते और नाचते रहेंगे ।हमारा भी यही कहना है कि खिलाड़ियों को नैतिक तराजू पर न तौलिए,बल्कि उन्हें तौलिए के साथ खेलने दीजिए।क्रिकेट को यूँ ही नहीं जेंटलमेन गेम कहा गया है।इस खेल की पवित्रता को तौलिए से ढंका रहने दीजिए,इसे उघाड़ने की कतई ज़रूरत नहीं है।

बुधवार, 15 मई 2013

इस तोते को बचाना है !


कल्पतरु में १६/०५/२०१३ व जनसंदेश में १५/५/२०१३ को
 
 
 
तोते की जान सांसत में है।उसे सरेआम अपने मालिक की वफ़ादारी करते पकड़  लिया गया है।बचपन में नानी की कहानियों में सुनते थे कि फलां राजा,रानी या राक्षस की जान तोते में होती थी।तब यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता था कि आदमी से अधिक तोता महफूज़ होता था। यह कौतूहल  अब और बढ़ गया है जब से मालूम हुआ है कि पूरी सरकार की जान तोते में बसी हुई है।यानी तोता आज भी आदमी से कई गुना ताकतवर है।आखिरकार सरकार भी तो आदमियों से मिलकर ही बनती है।तोता इतना ताकतवर कैसे हो गया कि एक मुल्क की जान उसमें अटक गयी है ? यह सब हुआ कैसे ?
हम पंचतंत्र की कहानियों से सीख लेते आए हैं,जिनमें जंगल के पशु-पक्षी मुख्य पात्र होते थे।उनको लेकर ही नीति की कहानियाँ गढ़ी जाती थीं ।उनमें जंगल के पशु-पक्षी एक निश्चित रूपक बन गए थे पर उस समय के जंगलराज में भी शेर के खाने के कुछ नियम थे।समय बदला और जंगलराज वास्तविकता में तब्दील हो गया।शेर के कई मुँह और हाथ हो गए,साथ ही अन्य जानवरों पर भी उसका नियंत्रण नहीं रहा ।जिसको जहाँ मिलता है ,वह वहीँ नोच लेता है । शुरुआत में तोता एक अहिंसक प्राणी था,पर अब उसके माध्यम से कई शिकार कर लिए जाते हैं।आधुनिक तंत्र में सरकार के बने और बचे रहने के बीच तोता मुख्य कड़ी बन गया है।
इस बात का इलहाम आदमी को अभी भी न होता यदि हमारे न्याय-तंत्र ने आइना न दिखाया होता।आज का तोता वह पुराना मिठ्ठू भर नहीं रहा,जो केवल पिंजरे में बंद होकर ‘राम-राम’ का जाप करता है ।यह केवल आखेट ही नहीं करता,वरन शिकार के नए नियम भी गढ़ता है।इसे अपने आका की हिफाज़त के लिए कभी स्वयं को पिंजरे में बंद करना पड़ता है और कभी दुश्मनों को अपने पिंजरे में डालना भी।इस प्रक्रिया में तोता अपने दिल की नहीं दिमाग की सुनता है और विरोधियों को आम-अमरुद की तरह कुतर देता है। हम भी कुतरे हुए फल खाने के आदी हो चुके हैं।ऐसे चखे हुए ही फल हमें मीठे लगते हैं।इस तरह तोते और आदमी दोनों का पेट पल रहा है।
अब जब तोते को पहली बार सार्वजनिक रूप से अपने मालिक की वफ़ादारी में लिप्त पाया गया है तो उसने हलफ़ उठाकर दुबारा ऐसा न करने की बात कही है।पर क्या ऐसा मुमकिन है ? इस बार भी वह न पकड़ा जाता मगर उसने कुतरना छोड़कर आका के मुँह पर लगी कालिख पोंछने में अपनी जान लगा दी थी ।अब इसमें तोता क्या करे ? वह वैसा अकेला नहीं है जैसा पिंजरे में बंद रहने वाला मिठ्ठू होता है।इस तोते का पिंजरे के बाहर भी संसार है।उसे इस कठिन समय में पतली रस्सी पर चलने जैसा पुराना करतब भी निभाना है।इसलिए वह अपने आका के लिए जी-जान से समर्पित है और उसकी अपनी कोई मैना भी नहीं है जो उसे ऐसे आका से दूर ले जा सके।
फ़िलहाल तोता पिंजरे में है और सुरक्षित है।उसके लिए मालिक ने सोने की कटोरी में दूध-भात दिया हुआ है क्योंकि तोता तगड़ा और मज़बूत रहेगा तभी तो मालिक की जान और हुकूमत सलामत रह पायेगी। तोते में जान नहीं है पर पूरे तंत्र की जान उसमें बसी हुई है । आओ, हम इस तोते के दीर्घ-जीवन की कामना करें।
 
पत्रिका (इंदौर,भोपाल) में २१/०५/२०१३ को प्रकाशित

बुधवार, 8 मई 2013

कोयला,सीबीआई और सरकार !

८/५/२०१३ को जनसंदेश में !





देश की सर्वोच्च अदालत सीबीआई से नाराज़ है। उसका कुसूर सिर्फ़ इतना है कि उसने कोयले वाली फाइल सरकार को दिखा दी बस। अदालत की शिकायत है कि सीबीआई को सीधे उसे रिपोर्ट करनी थी तो उसने बीच में यह गुल-गपाड़ा क्यों किया ?सीबीआई ने कोयला मामले के बहाने अपनी स्थिति बिलकुल स्पष्ट कर दी है। उसने कहा है कि वह सरकार का ही अंग है,इसलिए जिसकी देह से जुड़ी है,उसी के प्रति जवाबदेह भी है। जिस तरह कोई अंग अपने शरीर की रक्षा करता है,उसी तरह वह कर रही है। आखिर वह एक सुरक्षा-जाँच एजेंसी है और उसे सरकार की रक्षा हर हाल में करनी है। अगर इसमें कुछ गलत हुआ है तो उसे माफ़ कर दिया जाय।

सीबीआई के जवाब से अदालत संतुष्ट हुई हो या नहीं,पर देश को उससे कोई शिकायत नहीं है। अगर वह देश का अंग होती तो ज़रूर कुछ खटकता,पर जब उसने ईमानदारी से यह क़ुबूल कर लिया है कि वह सरकार का अंग है तो फ़िर देश के प्रति उसकी जिम्मेदारी बनती ही नहीं। रही बात सरकार की,तो वह निश्चिन्त है। उसके ऊपर अदालत के कितने भी हथौड़े पड़ें,उसकी मजबूती कायम है। सरकार के अंग जब तक मजबूत हैं,उसे कोई डर नहीं है। यह मजबूती उसे दो तरह से मिली है। उसने शुरुआत से ही अपनी सेहत का खास ख्याल रखा है। इसके लिए टूजी,कोयला और न जाने कितने व्यंजन उसके आहार बने। इसके साथ उसका अंग( सीबीआई) उसके दाहिने हाथ की तरह सहयोगी दलों को साधे हुए है। इस तरह सरकार के पास ऐसा इंतजाम है कि नक्कारखाने में तूती की आवाजें उसे कतई विचलित नहीं कर पातीं।

सीबीआई ने कोयला मामले में ज़्यादा कुछ किया भी नहीं है। जिस तरह देश की सुरक्षा के लिए खतरा बना आम आदमी मेटल-डिटेक्टर से गुजरता है उसी प्रकार सरकार के लिए खतरा बन सकने वाली हर फाइल को सरकार के मेटल डिटेक्टर से गुजारा है बस। इसमें न समझ आने वाली बात ही नहीं है। सीबीआई केवल अपने नियोक्ता का खयाल रख रही है। कोयले वाली फाइल में वैसे कुछ खास था भी नहीं। कानून मंत्रालय के पास उस फाइल को भेजना इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि उसमें ग्रामर और हिज्जे संबंधी कई गड़बड़ियाँ थीं और कहीं गलती से कोयला की जगह कोयल हो जाता तो फ़िर कौन जवाबदेह होता ?

इस मामले में शुरू से ही सरकार साफ़-साफ़ बोल रही है कि जो दोषी हैं उनके खिलाफ मामला चल रहा है। इसमें सरकार का कोई अंग दोषी नहीं है। प्रधानमंत्री ने कानून मंत्री को और कानून मंत्री ने प्रधानमंत्री को इस मामले में दखल देने के आरोप से से साफ़ बरी कर दिया है। सरकार के पास ऐसे छोटे-मोटे मामले देखने का समय भी नहीं है। वह कई मोर्चों पर एक साथ काम कर रही है। देश की आंतरिक या वाह्य सुरक्षा पर वह तभी ध्यान दे पाएगी जब वह स्वयं सुरक्षित होगी। इस लिहाज़ से हमें नहीं लगता कि सरकार या सीबीआई इसमें दोषी है। रही बात कोयले की,सो उसकी दलाली में मुँह काला करने के सबूत जब मिल जायेंगे,न्यायालय को अवगत करा दिया जायेगा। फ़िलहाल सीबीआई ने अपने को सरकार का अंग बताकर अपना दामन साफ़ कर लिया है और रही बात सरकार की,तो कोयले की फाइल उसके पास जाने के बावजूद उसकी काली-कामरी में कोई दाग नजर नहीं आ रहा है।     

मंगलवार, 7 मई 2013

राहत राशि का बरसना !


७/५/२०१३ को नई दुनिया में
 


  

उधर वो रुखसत हुए और इधर राहत राशि अपने ठिकानों से निकल पड़ी।जो मुट्ठी अभी तक बंद थी, अचानक खुल जाती है ।राहत राशि चारों तरफ से बरसने लगती है ।कई बार तो यह गरजकर ही रह जाती है पर इसके लिए टाइमिंग का खास ध्यान रखा जाता है।जहाँ केवल गरजने से ही काम चल जाता है,वहाँ राहत राशि बरसती ही नहीं।यह बरसात भी गुजर जाने वाले के वज़न के मुताबिक होती है।इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह जाने वाले का इंतज़ार करती है।इस बीच अगर जाने वाले के परिवारीजन ही पहले जाने को उद्यत हुए तो चले जांय,राहत राशि को कोई फर्क नहीं पड़ता।वह अपने मन-मुताबिक समय पर ही आती है।

राहत राशि अचानक कई रूपों में प्रकट होती है।नकद धनराशि से लेकर अनुकम्पा नौकरी,पेट्रोल पम्प और भूखंड मिलने तथा किसी प्रभावशाली व्यक्तित्व के भाई बनने तक के विकल्प सामने आते हैं।ये सभी एक साथ मिलने को आतुर हो उठते हैं।सब में होड़ मचती है कि वही जाने वाले के परिवार को असली राहत दे सकता है।भले ही बाद में इनमें से किसी के दर्शन न हों,पर उस कठिन समय में कैमरों के फ्लैश चमककर अपना दायित्व बखूबी निभा देते हैं।जब जाने वाला जाता है तो मीडिया के साथ पूरा देश रोता है पर जब चिता की आग ठंडी पड़ जाती है,राहत भी गायब हो जाती है।फ़िलहाल ,राहत राशि गरज-गरज कर बरस रही है।इसके बरसने की क्षमता पर ही चिता की आग का ठंडा होना निर्भर करता है।

इस राहत राशि की बरसात यूँ ही नहीं होती और न ही यह अलकूता बरसती है।जिसके नाम पर यह मिलती है,वह ऐसा आम आदमी होता है जो दुर्घटनावश खास बन जाता है।यूँ ही हर ऐरे-गैरे को तो झूठी घोषणा भी नसीब नहीं होती।जब तक राहत पाने वाले का कैमरे से संपर्क नहीं होता,राहत राशि भी उससे छिटकी-छिटकी रहती है।इसके उलट जो सदाबहार खास हैं,उनको ऐसी राहत पाने के लिए न मरना पड़ता है और न वे कैमरे का मुँह ताकते हैं।खास लोग अपने जीते जी राहत राशि का जुगाड़ कर लेते हैं।इससे भी राहत न मिले तो वे अपने पुत्र,दामाद,भाई ,भतीजे और भांजे सहित मैदान में कूद पड़ते हैं।राहत राशि अगर गलती से आम जन को मिल भी जाती है तो भी इससे बड़ी राहत खास के हिस्से में ही आती है।वही आखिरी राहत महसूस करता है।

राहत राशि के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इसे पाने के बजाय कुछ लोग हथियाने में जुट जाते हैं ।वे टाइमिंग को देखते हुए जाने वाले के शोक में डूबने के बजाय बकायदा मोल-भाव पर उतर आते हैं।इसमें मीडिया पूर्ण रूप से सहयोग करता है।ऐसी राहत राशि के वितरण और बारिश का सीधा प्रसारण देखकर कई संभावित जाने वालों के परिवारीजन उसांस लेकर रह जाते हैं,पर सबके ऐसे नसीब कहाँ ?जिनको राहत की उद्घोषणा होती है,वे पहले तो आभार प्रकट करते हैं पर जैसे-जैसे समय बीतता है,राहत से भेंट न होने पर कोसने लगते हैं।घोषणा करने वाले सबसे मजे में रहते हैं।ऐसा करके वे सामयिक परेशानियों से तो बचते ही हैं,असली राहत भी पाते हैं।ऐसी दुर्लभ राहत के लिए हम भी उतावले हो रहे हैं,पर इसके लिए कैमरे और किस्मत का कनेक्शन कहाँ से लाऊँ ?


बुधवार, 1 मई 2013

गए थे नवाब बनकर !

Welcome To Jansandesh  Times: Daily Hindi News Paper
जनसंदेश में १/५/२०१३ को




नवाब जी बहुत सदमे में हैं।रंज की बात यह है कि इस सदमे का बायस कोई बाहर वाला नहीं बल्कि अपना ही है।अमूमन हर गलत काम में विदेशी साजिश होती है लेकिन इसमें अपनों का ही हाथ निकला  ।जिस हाथ को वो गाहे-बगाहे उठाये घूम रहे थे,उसी ने उनके साथ छल किया है।यह बात हम नहीं कह रहे हैं,सार्वजनिक रूप से नवाब जी ने ही खुलासा किया है।वे आला दर्जे और रसूखवाले नेता हैं।इससे भी ज़्यादा यह कि वो मंत्री है और उत्तम प्रदेश में महत्वपूर्ण तबके की नुमाइंदगी करते हैं।नवाबी ठाठ के चलते अकसर वो दूसरों की परेशानी का सबब बनते हैं पर इस बार संसार के प्रभु देश अमेरिका ने उनकी शान में गुस्ताखी की है।वहाँ वे गए तो थे लेक्चर झाड़ने,पर मेजबान शायद लखनवी तहजीब से वाकिफ नहीं थे।
अब यह भी कोई बात हुई कि जिसे बुलाया जाए,उसकी आवभगत की कौन कहे,जामा तलाशी ली जाय ?आखिर वो कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं हैं ।अगर मंत्री न बनते तो भी उनकी रगों में नवाबी खून तो ठांठे मारता ही है।इसका प्रदर्शन अभी कुछ दिनों पहले उन्होंने अपनी रेलयात्रा में दिखाया भी था,जब एक परिचर ने उनकी सेवा में कोताही की थी,उन्होंने वहीँ उसे ज़ोरदार थप्पड़ रसीदकर अपनी नवाबी सम्मान की रक्षा की थी।कुछ समय पहले कुम्भ मेले का शानदार इंतजाम उन्हीं की अगुवाई में हुआ था।इसी बात को समझाने वे अमेरिका गए थे।वहाँ जाते समय सोचा होगा कि सारे अफ़सर एक जैसे होते हैं।अपने देश के अफसरों की तरह वे भी चरणों में लोट जायेंगे,पर हुआ इसके उलट । वहाँ नवाब जी को ज़बरन रोका गया और असहज करने वाले सवाल पूछे गए।एयरपोर्ट में उन्हें वो मान न मिल सका,जिसके वो हक़दार थे।
इस बात से नवाब जी के सम्मान को बड़ी ठेस पहुंची।यह ठेस इतनी व्यापक थी कि उन्होंने अमेरिका में व्याख्यान देना भी निरस्त कर दिया।ऐसा करके उन्होंने अपने अपमान से थोड़ा राहत महसूस की।अभी यह आकलन आना बाकी है कि अमेरिका ने इनका वक्तव्य न सुनकर अपना कितना नुकसान किया है या राहत महसूस की है।यह उनका व्यक्तिगत अपमान होता तो वे झेल भी जाते,उत्तम प्रदेश और अपने तबके के इकलौते प्रतिनिधि होने के नाते यह उन सबका अपमान है।नवाब जी को लगता है जिस सरकार का हाथ वो थामे हुए हैं,उसी के एक मंत्री की साजिश से यह सब हुआ है।अब वे अपनी पार्टी में यह दबाव बना रहे हैं कि ऐसी सरकार से अपना हाथ खींच लिया जाय।
नवाब जी यदि नाराज़ हैं तो ज़रूर कुछ करना चाहिए।अब अमेरिका वाले इतने संवेदनहीन हैं कि उनको कहने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।वे अतीत में हमारे कई नेताओं और मंत्रियों के कपड़े तक उतरवा चुके हैं,पर क्या किया जाए ? देश सेवा के लिए अमेरिका जाना ज़रूरी है,इसलिए मौका पाने वाला हर नेता वहाँ एक बार ज़रूर जाना चाहता है।इससे देश का कल्याण तो होता ही है,अपना जनम भी सुफल हो जाता है।केन्द्र सरकार यदि अपनी सरकार सुरक्षित रखना चाहती है तो अमेरिका के एयरपोर्ट में कुछ भारतीय अफ़सर नियुक्त करवा दे जो नेताओं की आवभगत करने में कुशल व अनुभवी हों।इससे ऐसी पुनरावृत्ति नहीं होगी कि कोई जाए नवाब बनकर और लौटे तो जल-भुनकर टुंडे का कबाब होकर।


अनुभवी अंतरात्मा का रहस्योद्घाटन

एक बड़े मैदान में बड़ा - सा तंबू तना था।लोग क़तार लगाए खड़े थे।कुछ बड़ा हो रहा है , यह सोचकर हमने तंबू में घुसने की को...