बुधवार, 26 दिसंबर 2012

मैं तो बारह था,आगे तेरह है !

६/०१/२०१३ को जनसत्ता में

8/01/2013 को पंजाब केसरी में

नैशनल दुनिया में २९/१२/२०१२ को !
28/12/2012 को जनवाणी में !
 

मैं पुराना हो गया हूँ और जाने वाला हूँ,इस बात से आम आदमी खुश है। नए के स्वागत में घर से लेकर बाज़ार सज रहे हैं पर मुझे भूलना सबसे बड़ी भूल होगी। मैंने अपने कार्यकाल में लगातार ऐसे काम किये हैं जिन्हें आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। मेरी उपलब्धियों की सूची बहुत लंबी है पर मुझे खासकर आम आदमी के लिए याद किया जायेगा। यह साल उसके लिए बड़ा भारी रहा ,इसलिए मेरा मूल्यांकन कही से भी हल्का नहीं किया जा सकता।

साल के शुरू में ही मुझे बड़ी पीड़ा पहुंची थी,जब मेरे आने का स्वागत करने में आम आदमी ने ढिलाई बरती थी। संभ्रांत और उच्च वर्ग के लोग मुझे इसीलिए पसंद हैं क्योंकि वे ही मेरे आने को सेलिब्रेट करते हैं । यही लोग आगे आने वाले समय के असली हक़दार होते हैं,जबकि आम आदमी अपनी रोटी-दाल के जुगाड़ में ही सारा साल गुजार देता है। इस साल इसने अपने काम से काम न रखकर कुछ ज़्यादा ही सक्रियता दिखानी चाही और उसका परिणाम यह हुआ कि मैंने उसे चुन-चुन कर सबक सिखाने का संकल्प कर लिया।

सबसे पहले मैंने मंहगाई बहन को भरोसे में लिया और उन्हें ताकीद दी कि आम आदमी को साल बीतते-बीतते इस हाल में ले आया जाय कि वह नए साल का स्वागत,निकले हुए कचूमर के साथ करे। यकीन मानिए,बहन ने भाई को निराश नहीं किया और सब्जी,तेल ,राशन आदि पर समभाव से अपनी कृपा बनाये रखी। आम आदमी को गैस का सातवाँ सिलेंडर तो दुनिया के सातवें अजूबे की तरह दिखाई देने लगा और इस लिहाज से मंहगाई बहन का यह कदम तारीखी साबित हुआ। आम आदमी भूखा रहने में बड़ा माहिर है,उसकी इस उपलब्धि में मंहगाई बहन का योगदान उल्लेखनीय है।

पूरे साल भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी हलकान रहा। हमने राजनीति प्रसाद से गठजोड़ करके अपनी सत्ता को ऐसा मजबूत किया कि जनलोकपाल की माँग करने वाले आम आदमी को झुनझुना तक नसीब नहीं हुआ। बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए,लाठियाँ बरसीं,बूढ़े आदमी को बारह दिन उपवास रखना पड़ा पर अन्ततः हुआ क्या ? संसद में ऐसा उधम मचाया गया कि आम आदमी देश में खलनायक बन गया। हम वहाँ से यह सन्देश देने में सफल रहे कि देश विकास चाहता है और आम आदमी इसमें नाहक रोड़ा बन रहा है। इसके बाद हम चुप नहीं बैठे और राजनीति प्रसाद के कार्यकर्ताओं ने आम आदमी से जुड़े बूढ़े को किनारे लगा दिया। आख़िरकार आम आदमी आजिज होकर इसी दलदल में कूद गया। अब इस अखाड़े में हमारे अपने दाँव हैं और सभी पहलवानों में एक राय है कि इस आम आदमी का फलूदा बना दिया जाय । मैं तो जा रहा हूँ पर इसका पूरा इंतजाम कर दिया गया है। इसके लिए देश की अर्थव्यवस्था को सँभालने के लिए एफ़डीआई भौजी आ रही हैं। इससे राजनीति प्रसाद को अपना एजेंडा पूरा करने में मदद मिलेगी।

मैं इस बात से बेहद खुश हूँ कि कार्यकाल के अंतिम दिनों में भी मैंने अपनी अमिट छाप छोड़ दी है।  भ्रष्टाचार के सगे भाई बलात्कार ने जाते-जाते मुझे ऐसा उपहार दिया है जो भूले नहीं भुलाया जा सकेगा। आम आदमी की ऐसी चीर-फाड़ किसी और समय में नहीं हुई है। वह अपनी लुटी हुई अस्मत के साथ सड़कों पर है और कुर्सियों पर बैठे लोग नई सत्ता और नए साल के जश्न में मदहोश हैं। मैं तो जा रहा हूँ पर आम आदमी इससे राहत न महसूस करे। मैं बारह था,इस नाते गनीमत रही,अगला तो तेरह है,जिसमें आम आदमी की तेरहवीं निश्चित है।
 
'जनसंदेश टाइम्स ' में २६/१२/२०१२ को प्रकाशित

आपके पास कोई चारा नहीं है,ठीक है ?


२६/१२/२०१२ को नई दुनिया में
प्यारे और बेसहारे भाई,बहनों !

हमें जैसे ही अपने विश्वस्त सूत्रों से खबर मिली कि इंडिया गेट पर भारी संख्या में आप लोगों पर पुलिस ने आँसू गैस छोड़ी और लाठीचार्ज किया है,मैं हलकान हो गया । मैं जल्द ही आप लोगों से मिलने को तैयार था पर मैडम के यहाँ से खबर आई कि पहले वो आपसे मुखातिब होंगी,तभी मुझे मौका मिलेगा। मुझे यह भी खबर मिली कि आप लोगों को लेकर युवराज भी बहुत चिंतित थे और उन्होंने इस बारे में अपनी माँ से कहा भी कि ऐसा कोई भी अवसर वे छोड़ना नहीं चाहेंगे क्योंकि ये युवाओं का आन्दोलन है और वे स्वयं एक संभावनाशील युवा हैं। इन सारी बातों की वज़ह से हमें मुँह खोलने में देरी हुई है। मैडम और युवराज आप लोगों से रात के शांत वातावरण में आपकी बातें सुनी भी हैं। उनके इस रात्रि-मिलन की योजना से मुझे आपसे मिलने में देरी हुई,पर मैं यह भी जानता हूँ कि आप मेरी मजबूरी को समझते हुए मेरे जवाब से संतुष्ट होंगे,ठीक है ?

मैं आज आपसे विशेष गुज़ारिश करने आया हूँ। उस लड़की के साथ बहुत बुरा हुआ है। तीन लड़कियों का बाप होने के नाते उसका दर्द मैं समझ सकता हूँ। यहाँ तक कि इस तरह के दर्द के अहसास को वास्तविक रूप देने के लिए हमने अपनी कैबिनेट में ऐसे गृहमंत्री और राज्य गृहमंत्री रखे हैं,जिनके भी तीन-तीन लड़कियाँ हैं। इस तथ्य को वे दोनों लोग स्वीकार भी चुके हैं । इसकी सीधी वज़ह है कि बलात्कार का वास्तविक दर्द एक-आध लड़की होने से पता नहीं चलता है।  जो पुलिस शुरुआत में इतनी निकम्मी थी कि वह इस तरह की घटना को समय रहते देख नहीं सकी,उसी ने आप लोगों की सेवा करने में किसी प्रकार की कोताही नहीं रखी। उम्मीद है कि हमारी यह तत्काल-सेवा आपको पसंद आई होगी। अगर कुछ लोगों को इसमें कुछ कमी लगती है तो इसे हम जल्द सुधार लेंगे,ठीक है ?

यह साल बीत रहा है और अगर आपको लगता है कि इसने बहुत कष्ट दिए हैं,तो इस बारे में भी मैं लगे हाथों कुछ कहना चाहूँगा क्योंकि पता नहीं कब दुबारा मौका मिले ? सबसे पहले भ्रष्टाचार को लेकर जो आन्दोलन चला था,उसको हमने बहुत सम्मान दिया था। लोकपाल के लिए हाउस का सेन्सभी जगाया था,पर सब कुछ हम अकेले ही तो नहीं कर सकते हैं। विपक्ष ने समर्थन दिया होता तो आज भ्रष्टाचार कहीं दूर खड़ा होता। बहरहाल,हम आपसे वादा करते हैं कि इस बारे में इस साल जो नहीं हो पाया ,उसे हम नए साल में ज़रूर कर बैठेंगे,ठीक है ?

इस साल के जाते-जाते बलात्कार की जो कालिख हमारे मुँह पर पुती है,उसको लेकर हम गंभीर हैं। भविष्य में कहीं ऐसी घटना न हो,इसके लिए हमने कार्य-योजना तैयार कर ली है। हमारे राज्य मंत्री इसके लिए कई बार रात में बस में सफ़र कर चुके हैं और उनके मुताबिक,यकीन मानिए,अब सब महिलाएं सुरक्षित हैं। फ़िर भी,यदि बहनों को अभी भी कोई शंका और शिकायत है ,उसे हम नए साल में ही दूर करने का प्रयास करेंगे। असल में इस जाते हुए साल में अचानक इतने काम एक साथ आ गए कि थोड़ी-सी चूक हो गई है,पर आगे से ऐसा नहीं होगा। इस बात को लेकर हममें और मैडम में सहमति हो गई है। उनको अभी भी हम पर पूरा विश्वास है,इसलिए आपको भी हमारे भरोसे ही रहना होगा । न हमारे पास कोई विकल्प है और न आपके पास कोई चारा ,ठीक है ?

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

मेड़ई काका और आरक्षण !


 

 

सुबह का समय था,मौसम में काफ़ी ठण्ड थी।हवा के चलने से हमें उँगलियों को हरकत करने में भी कठिनाई महसूस हो रही थी।फ़िर भी,शहर में मॉर्निंग-वाक करने की हमारी आदत पड़ी थी,सो गाँव में खेतों की तरफ़ टहलने निकल लिए।खेतों में गेहूँ की फसल की बस शुरुआत ही थी।अचानक दूर खेत से मेड़ई काका की आवाज़ आई,’बच्चा ,कब आए ?शहर में सब ठीक-ठाक तो है ना ?’मैंने काका से रामजोहार की और उनके पास पहुँच गए।हमने कहा,’काका ,हम तो शहर में ठीक ही हैं पर आप इत्ती सरदी में यहाँ ?’

अब मेड़ई काका ने हमें खेत की मेड़ पर बैठने का इशारा किया और खुद भी बैठ गए।वे तनिक गंभीर होते हुए बोले,’बच्चा ,जब आप छोटे थे ,तब भी हम खेत में हल चलाते थे और बारिश-सरदी में भी खेत में पानी लगाते थे।तब से लेकर अब तक साल तो कई बीत गए पर हम और हमारा काम नहीं बदला है।’हमने काका को दिलासा देते हुए समझाया कि अभी शहर से खबर आई है कि सरकार दलितों के लिए आरक्षण में पदोन्नति देने जा रही है,इससे ज़रूर फायदा पहुंचेगा।सरकार लगातार पिछले पैंसठ सालों से इस मुहिम में लगी है कि जो दलित और पिछड़े हैं वे आगे बढ़ें और उनकी दशा सुधरे।’

मेड़ई काका जो अब तक थोड़ा शांत थे,उबल पड़े।वे कहने लगे,’बच्चा,हम ज़्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं हैं पर इतना ज़रूर समझते हैं कि ये जो कुछ भी हमारे नाम से होता है,केवल छलावा-भर है।दर-असल, अपने-अपने हिस्से की मलाई खाने की ज़ोर-आज़माइश भर है।कभी गरीबी-हटाओ का भी नारा खूब ज़ोर से उछला था ,पर क्या इससे गरीबी हटी ?अरे,इन्हीं गरीबों के बहाने कई सारी योजनाएं बन जाती हैं और उनका फायदा हम तक पहुँचता ही नहीं।रही बात नौकरियों में आरक्षण की,तो शहर में रहने वाले ही गिने-चुने लोग इसका फायदा उठा पाए हैं और यहाँ गाँवों में खेतों पर काम करने का हमारा आरक्षण निश्चित है।हमने तो आज तक यही देखा है।आप शहर में रहते हैं,पढ़े-लिखे हैं तो ज़रूर हमसे ज़्यादा जानते होंगे।’

हम काका की बातों का सीधा जवाब तो नहीं दे पाए,पर अपनी बात आगे बढ़ाई,’काका,आप परेशान न हों,बहन जी पूरी कोशिश कर रही हैं कि दलितों को उनके हक-हुकूक मिलें और इसके लिए उन्होंने यह ऐलान खुले-आम कर रखा है।’काका अब फट पड़े,’क्यों ,अभी कुछ दिन पहले तक तो उनको किसी से गुहार लगाने की ज़रूरत नहीं थी,पर दलितों के लिए क्या किया ?वे दलितों के नाम पर सत्ता की हिस्सेदारी अपने ही पास रखती हैं,अन्य दलित वहाँ भी पिछड जाते हैं।जब वे टिकट या मंत्री-पद बांटती हैं तब किसी दलित पर उनकी निगाह नहीं जाती।उन्होंने अपने लिए तो ढेर सारी माया बटोर ली है और आगे और बटोरने का इंतजाम करने के लिए ये सब नाटकबाजी है।’

हमने काका से कहा कि बहनजी चाहती हैं कि नौकरशाही के ऊँचे पदों पर दलित काबिज हो जांय तो हालत में क्रान्तिकारी बदलाव आ जायेगा।वे कहने लगे,’जब स्वयं सारी सत्ता उनके हाथ में रही तब क्या किया? जो भी ऊपर पहुँच जाता है वह दलित नहीं रह जाता है और न हम जैसों को पहचानता है।इसलिए हम तो खेतों में हल की मुठिया पकड़े रहने से ही खुश हैं।सभी नेता हमारे नाम पर अपने-अपने सुखों का आरक्षण  चाहते हैं,किसी को हमारे दुःख-दर्द से मतलब नहीं है‘।
 
१९/१२/२०१२ को 'जनसंदेश' में प्रकाशित

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

सचिन भगवान के मंदिर में !

25/12/2012 को डीएलए  में
२०/१२/२०१२ को जनवाणी में...
18/12/2012 को I-next में !



जैसे ही हम सिद्धि विनायक नायक मंदिर के बाहर निकले,दरवाजे के पास ही सचिन दिखाई दिए।हमने उन्हें नमस्कार किया और खुशी जताई कि चलो अच्छा है, खेल से फुरसत निकालकर वे भगवान से मिलने आते हैं।सचिन ने सीधे मेरी बात का जवाब नहीं दिया । चेहरे पर थोड़ी-सी ज़बरिया मुस्कान बिखेरी और आगे बढ़ लिए ।उनको असहज देखकर हमने आगे बढ़ने का अपना कार्यक्रम मुल्तवी कर दिया।हम भी उन्हीं के पीछे-पीछे बढ़ लिए।हमें पास पाकर वे कुछ विचलित-से हो गए ।हम उनकी मनोदशा भांप चुके थे क्योंकि इस तरह के चेहरे पढ़ने का अपन का बड़ा अनुभव है।हम यह भी जानते हैं कि ऐसे में पीड़ित व्यक्ति को अकेला छोड़ना कतई ठीक नहीं होता।वह क्या है ना...अवसाद की स्थिति बहुत खतरनाक होती है ,सो हम बिना किसी सहयोग-प्रस्ताव के उनके साथ लग लिए।

सचिन मंदिर के प्रांगण में पड़ी बेंच पर पसर गए और यही सबसे उत्तम मौका था जिसको हमने झट से ताड़ लिया ।हमने देखा, सचिन एक हाथ में एल्बम पकड़े हुए थे और दूसरे हाथ की मुट्ठी बंद की हुई थी।हमें इसी बंद मुट्ठी की तलाश थी ।हम राज जानना चाहते थे कि इसमें वे क्या छुपाकर रखे हैं।हमने बात शुरू करी,’सचिन,आपको मंदिर में देखकर अच्छा लगा।क्या आप यहाँ नियमित रूप से आते हैं ?’वे बिलकुल शांत भाव से बोले,’भई ,लोगों ने नाहक हमें भगवान बना दिया है।शुरू-शुरू में तो यह सब अच्छा लगता था पर अब समझ में आया कि भगवान होने की कितनी क़ीमत अदा करनी पड़ती है? पहले तो हमारे पास यहाँ आने का समय ही नहीं था।खेलने से जो समय बचता था ,विज्ञापन वाले मार ले जाते थे।आज तो हम असली वाले भगवान से ही कुछ सवाल करने आए हैं।”

पर ये मुट्ठी में क्या दबा रखा है ?’ हमने मौका पाते ही असली सवाल दागा।सचिन ने जवाब देने के बजाय हमारे सामने ही बंद मुट्ठी खोल दी।देख लो आप भी और हमें बुरा-भला कह लो।कम-से-कम आपका भी कलेजा औरों की तरह ठंडा हो जायेगा।’हमने देखा ,उनकी मुट्ठी में दो रन धरे हुए थे।वे दोनों भी बिलकुल भाग जाने की मुद्रा में दिखे।शायद इसीलिए सचिन ने उन्हें अपनी मुट्ठी में कसकर रखा हुआ था।वे कुछ बोलते कि हम उबल पड़े,’भई ,आप अपनी आखिरी पारी को लेकर क्यूँ इत्ता सेंटिया रहे हैं? कहीं कोई हलचल नहीं है।पूरा बोर्ड और देश का मीडिया आपके साथ है।हाँ,अगर कुछ बड़ी विज्ञापन कम्पनियाँ आपका साथ नहीं दे रही हैं तो हम कुछ खटमल-मार और चड्डी-बनियान गिरोह के लोगों को जानते हैं ,वे आपको प्रायोजित करते रहेंगे।’

अब सचिन में कुछ आत्म-विश्वास की झलक स्पष्ट हुई ।वे ‘बूस्ट’ वाली एनर्जी और ‘अमूल’ मक्खन की ताजगी के साथ बोले,’नहीं,अभी स्थिति इतनी विस्फोटक नहीं हुई है।हमारे पास दूसरे हाथ में पुराना अल्बम है,जिसको देख-देखकर हम गदगद हो लेते हैं।कभी-कभार विज्ञापनदाताओं के दिखाने में ये चित्र बहुत काम आते हैं।कई बार हम खेल के मैदान से जल्दी बाहर इसलिए भी आ जाते हैं ताकि अपने फेसबुक-पेज में किसी पुराने पोज़ को डालकर आलोचकों को अपनी अहमियत याद दिला सकें।’हमने उनके कहे का भरपूर समर्थन किया और दिलासा दी कि अभी तो आप बस खेलते रहें,लोग चाहे इसे अपनी भावनाओं से खेलना समझें या बोर्ड अपनी इज्ज़त से,देश इनमें से कहीं पर भी नहीं आता।आपका मूल्य बाज़ार तय करेगा,टुटपुंजिया खेल-प्रेमी नहीं।और क्या पता ,आप इतने दिनों से भरे बैठे हो,अगले मैच में कहीं कुछ कर ही न बैठो !

बस हमारा इतना कहना था कि सचिन मंदिर के अंदर गए बिना ही हमारे साथ लौट पड़े।हमने देखा कि उनकी मुट्ठी वाले दो रन भी तब तक नदारद हो चुके थे।

 

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

आलू और लौकी दहशत में हैं !




आज बाज़ार पहुँचे तो हडकंप-सा मचा हुआ था।सब्जियों ने हमें देखते ही आपस में खुसर-पुसर शुरू कर दी।हम माजरा कुछ समझ पाते कि तभी कद्दू जी ने हमें टोंका और आगे बढ़ने से रोक दिया।हमने मौके की नजाकत समझते हुए अपने कदम वहीँ रोक दिए।कद्दू जी से हमने बाज़ार की अफरा-तफरी का कारण जानना चाहा।वे अपनी मुख-मुद्रा को गंभीर आयाम प्रदान करते हुए,बोलेआपको कुछ पता भी है ? हमारे परिवार के दो सदस्य अचानक लापता हो गए हैं।
हमने विस्फारित नेत्रों से उनकी ओर देखा तो वे आगे बताने लगे,’जब से संसद में हुई ज़बरदस्त बहस में आलू जी और लौकी जी को घसीटा गया है,तभी से वे दोनों दहशत में हैं।आज जैसे ही उन दोनों बेचारों को खबर लगी कि विदेश से कोई वॉलमार्ट जी उनका वारंट लेकर आ रहे हैं,वे पता नहीं कहाँ गायब हो गए हैं ?’हमने कहा, ’तो इसमें दिक्कत क्या है ? वे अभी तक देसी-स्तर पर ही अपना जलवा दिखा रहे थे,अब उनको अंतर्राष्ट्रीय-स्तर पर अपना हुनर दिखाने का मौका मिलेगा।इसमें घर से भाग जाने का क्या तुक है ?’
अब तक हमारे इर्द-गिर्द भिन्डी,बैंगन,गाजर,गोभी और टमाटर हिम्मत जुटाकर एकत्र हो गए थे।कद्दू जी कुछ बोलते,इससे पहले ही बैंगन जी ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया।उन्होंने व्यवस्था का प्रश्न उठाते हुए कहा,’असल समस्या उनके भाग जाने की नहीं है।उनके इस कदम से सारी बिरादरी में हमारी नाक नीची हुई है।अभी तक कई सालों से हम कई बार इधर से उधर होते रहे हैं मगर मजाल कि हमें कोई डर लगा हो।यहाँ तक कि कई लोग थाली में बैंगन की उपाधि से अपने को गौरवान्वित महसूस करते रहे हैं।आलू और लौकी ने इस परंपरा को तोड़कर ठीक नहीं किया है।
हमने बैंगन जी से असहमति दर्शाते हुए उन्हें तर्क देकर चुप कराया कि अगर आप अब तक अपनी लुढ़कन-क्षमता के लिए जाने जाते रहे हैं तो क्या बदलते और विकसित होते देश में आलू और लौकी अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन नहीं कर सकते ?अगर उनमें कुछ संभावनाएं हैं तो वे भी ऐसा कर सकते हैं।आखिर हम अब नियंत्रण-मुक्त अर्थ-व्यवस्था के ज़माने में आ गए हैं।हमारा यह तर्क टमाटर जी और गोभी जी को बहुत भाया और वे भी अपनी संभावनाओं को लेकर उत्साहित हो गए।भिन्डी जी और गाजर जी की मुख-मुद्रा से समझ आया कि उनको यह तर्क जंचा नहीं ।
हम बाज़ार से निकलकर बाहर आए ही थे कि एक कोने में आलू जी  और लौकी जी दुबके हुए थे।हमने उन्हें हिम्मत देते हुए भरोसा दिलाया कि वे अपने अस्तित्व को लेकर कतई परेशान न हों और यदि कोई दूसरी समस्या हो तो बेझिझक हमसे कहें।आलू जी ने थोड़ा लुढकते हुए कहा कि सारी परेशानी यही हुई कि हम लोग अभी तक थोड़ा बच-बचाकर लुढक लेते थे पर जब से संसद में हमारी चर्चा हुई है,पूरा मीडिया हमारे पीछे हाथ धोकर पड़ा है।इससे प्रेरित होकर कुछ अन्य सदस्य भी लुढकने के मूड में हैं।देश के लोग हमें सब्जी और समोसे में तो मिलाकर खा ही रहे थे, अब संसद के अंदर भी हमें मिलाने लगे हैं।इस काम में हमारी लौकी बहन को भी ज़बरन घसीट लिया गया है जबकि ये तो बेचारी खेत में नहीं बल्कि किसान के छप्पर में ही फल-फूल लेती हैं।इतना सुनते ही लौकी जी बोल पड़ीं,’हम तो खुले आसमान में पैदा होते हैं और गाँवों में हेत-व्यवहार में यूँ ही बंट जाते हैं पर अब जब कोई विदेसिया अच्छी कीमत देकर हमें लेने आ रहा है तो बैंगन जी को आपत्ति हो रही है।आप ही बताइए कि सही कीमत पाने का अधिकार केवल बैंगन जी को ही है ?’ हम तो लौकी जी के इस अचानक सवाल से निरुत्तर हो गए पर आप क्या सोचते हैं ?

12/12/12 को 'जनसन्देश' में...

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

वालमार्ट दद्दा और एफडीआई भौजी !


 
07/12/2012 को नई दुनिया में....

आज जब नुक्कड़ की तरफ़ से निकले तो भारी मजमा देखकर कौतूहलवश हम भी रुक गये । हमने भीड़ के अंदर घुसकर कुछ देखने की कोशिश की तो एक लंबी-सी कार के बोनट पर हैट लगाए अत्यंत आधुनिक किस्म के वस्त्र धारण किये एक सभ्य-सा व्यक्ति नज़र आया। पास में आलू और लौकी के टोकरे लिए कई ग्रामीण किसान उसे घेरे खड़े थे। हमने तहकीकात की तो पता चला कि ये वालमार्ट दद्दा हैं। अब हमारी उत्सुकता चरम पर थी। हमने इनके बारे में मीडिया के माध्यम से खूब सुन रखा था,अचानक पास पाकर हम रोमांचित हो उठे। हमने उन तक पहुँचने के लिए अतिरिक्त प्रयत्न किया और एकदम उनके सामने जा पहुँचे।

हमने बिना पूछे ही अपना परिचय दिया और लहालोट होते हुए कहा ‘दद्दा,हम आपको यहाँ पाकर बेहद खुश हैं। आप जैसी अंतर्राष्ट्रीय हस्ती को पाकर यह निरा ग्रामीण क्षेत्र धन्य-धन्य है। हमने तो अभी तक यही सुना था कि आपको यहाँ आने की मंजूरी मिल गई है,पर आप इतनी जल्दी। । । ’हमारी बात को बीच में ही काटते हुए वे अपने हैट को सीधा करते हुए बोले,’अभी हम आए नहीं हैं। यह हमारा औचक निरीक्षण है। हम केवल यह देखने आए हैं कि कौन-सी लोकेशन हमारे आने के लिए दुरुस्त रहेगी ?’ ‘तो फ़िर आपने क्या गाँवों में ही ठहरने की सोच रखी है? अगर ऐसा है तो यहाँ के किसानों और नौजवानों को वाकई में फायदा होगा। ’हमने अपने-आप आगे की बात जोड़ दी। वे ठठाकर हँसे और कहने लगे,भई ! हम तो शहर की तरफ़ जा रहे थे पर पता नहीं कैसे इन गांववालों को खबर लग गई और ये अपनी आलू और लौकी लेकर आ गए। हम यूँ ही थोड़ी इनका माल ले लेंगे। हमारे विशेषज्ञ ही इनकी खरीद-दर निर्धारित करेंगे। इसके लिए इन्हें शहर तक अपना माल पहुँचाना होगा क्योंकि हमारे रुकने और टिकने का इंतजाम केवल बड़े शहर में ही होगा। धीरे-धीरे इन्हें सब समझ आ जायेगा। ये किसान भी ना अपनी सरकार की तरह ही बड़े भोले और नादान हैं !’

तब तक अंदर से एकदम अल्ट्रा-मॉडर्न महिला निकली और उसने दद्दा को निर्देश दिया कि वे वहाँ से तुरत प्रस्थान कर लें,क्योंकि शहर में कई सभ्य लोग उनके अभिनन्दन-समारोह में उनके पधारने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। हमने उनका परिचय जाना तो पता लगा कि वे वालमार्ट दद्दा की पत्नी एफ़डी आई जी हैं। अब हमने दंडवत होकर पुकारा,’भौजी,हमरा प्रणाम स्वीकार करो और दद्दा को यहीं रुकने के लिए कहो। ’ उन्होंने हमारा जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा और वे झट-से गाड़ी के अंदर समा गईं। अब दद्दा ने ही हमारी बात का उत्तर देना उचित समझा और बोले,’देखिए,सबसे पहली बात कि एफडीआई जी आप लोगों की भौजी नहीं हैं। इनका जो भी रिश्ता है, केवल आपके सांसदों,माननीयों और बड़े उद्योगपतियों से है और ये अपना मुँह उन्हीं के सामने खोलती हैं। अब आप हमें जाने दें क्योंकि शहर में बड़े-बड़े उद्योगपति हमारी आरती के लिए उतावले हो रहे हैं और सरकार जी ने लाल-जाजम का इंतजाम किया हुआ है। ’

हम आगे कुछ बोल पाते कि उनकी मोटर पों-पों करके बजने लगी थी। हार्न के शोर से सभी किसान अपने -अपने आलू और लौकी के टोकरे संभाले सड़क के किनारे लग गए। हमने सुना, ठीक उसी समय दूर कहीं एक पुराने गाने की धुन बज रही थी,’परदेसियों से न अँखियाँ लड़ाना,परदेसियों को है एक दिन जाना….

 

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

हमारे पास पारस-बटिया है !

१७/१२/२०१२ को डीएलए में

05/12/2012 को जनसंदेश में

 

बहुत दिन हो गए थे,खुलासे भी ठप-से पड़ गए थे।सोचा,नेता जी से मिलकर देश की थोड़ी-सी आबो-हवा लेता चलूँ,सो उनके ठिकाने की तरफ़ मुड़ लिये।नेता जी अपने दरवाजे के कुएँ पर ही मिल गए।वे बाल्टी-लोटा लिए हुए एक साबुन की टिक्की से अपनी मांसल-देह को रगड़ रहे थे।हमें देखते ही लंगोटा कसने लगे ।हमने कहा कि आप आराम से नहा लें,हम थोड़ा इंतज़ार कर लेंगे,साफ़-सफ़ाई बहुत ज़रूरी है।नेता जी अपनी पर आ गए,बोले’ज़्यादा समय नहीं है हमारे पास।हमें बहुत से काम करने हैं और रही सफ़ाई की बात उसकी चिंता हमें नहीं है।’ साबुन की टिकिया की तरफ़ इशारा करते हुए बोले,’इसे आप महज़ साबुन न समझें,यह ‘पारस-बटिया’ है।इसके संसर्ग से बड़े-बड़े दाग एकदम उजले हो जाते हैं।’
इस ‘पारस-बटिया’ के बारे में और जानने की हमारी उत्कंठा बढ़ती जा रही थी।हमने कहा,’इसकी ऐसी क्या खासियत है,जिससे यह सब-कुछ झक कर देती है?’नेता जी मुस्कुराते हुए बोले ,’आपने कभी आल्हा सुना है ? उसमें इस पारस-बटिया के बारे में ज़ोर-ज़ोर से कहा गया है कि ‘जिनके घर मा पारस-बटिया,लोहा छुवे स्वान होइ जाय’,ये बटिया पुरातन-काल से ऐसा कारनामा करती आ रही है और इसकी प्रकृति है कि यह बादशाहों के पास ही रहती है।पहले तो यह लोहे को सोना बनाने के काम आती थी पर जबसे हम कोयले से सोना बनाने लगे,इससे केवल दाग-सफ़ाई जैसे हल्के काम ही लेते हैं।’
‘तो क्या हम भी इसे आजमा सकते हैं ?’हमने अपनी इच्छा को प्रकट किया ।नेता जी अबतक नहा-धो कर,लंगोट कसकर हमारे करीब आ चुके थे।कंधे पर हाथ रखते हुए बोले,’देखिए ,यह पारस-बटिया केवल उन्हीं के लिए है जो देश के सबसे बड़े मंदिर में पूजा करने के पात्र हैं।जिसको एक बार भी उस मंदिर में प्रवेश मिल गया,समझो यह साबुन-टिक्की हमेशा के लिए उसे मिल गई।इसे केवल देश-सेवकों के लिए ही आवंटित किया जाता है।आपने देखा नहीं,पिछले दिनों एक के बाद एक खुलासे होते रहे,किसी का कोयले ने मुँह काला किया तो किसी का डीएनए-टेस्ट ने।यह ऐसी अचूक सफ़ाई की टिकिया है कि बड़े से बड़े दाग और खुलासे मिनटों में हवा हो जाते हैं।एक मंत्री पर विकलांगों के पैसे हड़पने का इलज़ाम लगा था ,उन्होंने इसे आजमाया और देखिए, उनकी पदोन्नति हो गई।ये सारे खुलासे धुल जायेंगे,पर हमारी टिकिया नहीं घुलेगी’
‘पर आपको इस टिकिया से क्या विशेष फायदा हुआ है ?’हमने अपनापा दिखाते हुए पूछ लिया।नेता जी अब तक बदन में लकदक सफ़ेद धोती-कुरता धारण कर चुके थे,बोले ‘हमारी फ़िलहाल एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है,जिसमें अगले आम चुनावों के लिए प्रधानमंत्री-पद मिलने की सम्भावना पर विमर्श होना है।यह बैठक हमारे लिए इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हम अब देश-सेवा को बिलकुल तत्पर बैठे हैं।प्रदेश की जिम्मेदारी से हम बिलकुल मुक्त हैं और अपने लिए बड़ी जिम्मेदारी ढूँढ रहे हैं।इस काम में एक अनुभवी शिखर-पुरुष भी हमारे साथ हैं।उनको भी इसी पारस-बटिया ने अभय-दान दिया हुआ है।अब हमारी बिरादरी के हैं तो हम एक दूसरे के सुख-दुःख का ध्यान नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा?’
अब तक हम पूरी तरह से नेता जी और पारस-बटिया के गुणों से परिचित हो चुके थे।हमें सफाई का मूल-मन्त्र मिल चुका था,पर वह हमारे काम का नहीं था,इसलिए हम अपनी परंपरागत सफ़ाई-स्थली गंगा जी में ही एक डुबकी लगाने चल दिए।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

पैसा आपके हाथ का मैल नहीं है !

०६/१२/२०१२ को जनवाणी में प्रकाशित...!
4/12/12 को inext में...





 

बचपन से सुनते आए हैं कि पैसा हाथ का मैल होता है।इसे जांचने के लिए छुटपन में कई बार हाथ को खूब रगड़ा भी,पैसा तो नहीं पर मैल ज़रूर हमारे हिस्से में आया था ।इस कहावत का असली अर्थ तब समझ में आया जब सरकार ने खुलेआम मुनादी पिटवा दी कि ‘आपका पैसा,आपके हाथ’।अब आगे से आम आदमी के खाते में सीधा पैसा जायेगा और और इसमें केवल सरकार का हाथ रहेगा।इस हाथ को ही उसे ध्यान में रखना है,क्योंकि जिस हाथ से आम आदमी को पैसा दिया जा रहा है,वह हाथ कोई मामूली है भी नहीं।अब इसे दिये जा रहे हाथ का मैल भी नहीं कह सकते।यह तो आम आदमी से मेल बढ़ाने की ज़रूरी प्रक्रिया भर है।

हाथ वालों ने बहुत सोच-विचारकर यह क्रान्तिकारी कदम उठाया है।अभी तक लगातार ये आरोप लग रहे थे कि कई नेता खूब खाते हैं पर अब जनता के खाते खोलकर ऐसी चाक-चौबंद व्यवस्था की जा रही है कि सबके खाते खुल जाएँ और उनमें कुछ डालकर उनका मुँह बंद कर दिया जाय।इस बहाने कई निशाने सध जायेंगे।ऐसा करके सरकार अपने कार्यकाल को रिचार्ज करना चाहती है ताकि आगे की ताजपोशी में कोई अड़चन न पैदा हो सके।साथ ही,उसके कोयला-समूह में आम जनता की भी समुचित भागीदारी हो जाय।चारों तरफ़ पैसे और हाथ का बोलबाला हो जाय,यही वर्तमान निजाम की ख्वाहिश है।

‘आपका पैसा,आपके हाथ’ का नारा भी बिलकुल हिट होने की मुद्रा में है।इसमें देने वाले की जेब से कुछ नहीं जाना है बल्कि बहुत सारा वापस मिलने का गणित है।यह ऐसा जादुई खेल है जिसमें पाने वाला भी अनजान है कि उसे जो मिल रहा है,दर-असल उसी का है।इस तरह देने और लेने वाले दोनों पक्ष इसके परिणाम से पूरी तरह लहालोट हैं।ऐसी मनचाही फसल को उगते देखकर विरोधियों के पेट में मरोड़ उठना स्वाभाविक है।इसीलिए एक सामाजिक क्रांति फ़ैलाने वाले फैसले की वे सब गलाफाड़ आलोचना कर रहे हैं।वे नहीं चाहते कि ऐसा कोई नाड़ा आम आदमी के पाजामें में बंध पाए,क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो स्वयं उनके लिए अपना पजामा संभालना मुश्किल हो सकता है।

अब इस योजना के कुछ पहलुओं पर नज़र डालते हैं।सरकार यह कह रही है कि राशन की जगह सीधे पैसा देने से आम जनता को ही फायदा पहुंचेगा,बिचौलियों को नहीं।उसका मानना है कि कई बार सरकार द्वारा दिया राशन,मसलन उत्तम कोटि का गेहूँ,खुले बाज़ार में बिककर गरीब जनता तक सड़े-गले रूप में पहुँचता है।अब ऐसा नहीं हो सकेगा,जब उसके खाते में दन्न से पैसा आ जायेगा।यह और बात है कि इस ‘दन्न’ की बटन को दबाने में कोई हेरा-फेरी न हो।ज़ाहिर है,यह काम हाथ से ही होगा,कमल,साइकल या हाथी से नहीं।

आम आदमी के खाते में सीधा पैसा जाने का लाभ उस भोले-भाले पति को भरपूर होगा,जिसको अभी तक दारू पीने के लिए अपनी घरवाली से चिरौरी करनी पड़ती थी।राशन मिलने पर वह इसे बेचकर पहले जो अतिरिक्त जोखिम उठाता था ,उससे बच सकेगा ।जैसे ही उसके खाते में नगदी आई,वह दारू की दुकान के पास वाले एटीएम की सेवा लेकर अपना गला तर कर लेगा।घरवाली को कोई भी बहाना बनाकर आसानी से भरमाया जा सकता है ।इसके लिए आवश्यक हुआ तो उसके सामने सरकार को दो-चार गालियाँ भी दी जा सकती हैं,पर बदले में ,पियक्कड़ों की एक बड़ी जमात का उसे समर्थन भी मिल सकता है।इसलिए आम आदमी फ़िलहाल पैसा पाने की खबर से ही रोमांचित है।इसके एवज़ में उसे महज़ अपना  अंगूठा ही तो छापना है।


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