बुधवार, 19 दिसंबर 2012

मेड़ई काका और आरक्षण !


 

 

सुबह का समय था,मौसम में काफ़ी ठण्ड थी।हवा के चलने से हमें उँगलियों को हरकत करने में भी कठिनाई महसूस हो रही थी।फ़िर भी,शहर में मॉर्निंग-वाक करने की हमारी आदत पड़ी थी,सो गाँव में खेतों की तरफ़ टहलने निकल लिए।खेतों में गेहूँ की फसल की बस शुरुआत ही थी।अचानक दूर खेत से मेड़ई काका की आवाज़ आई,’बच्चा ,कब आए ?शहर में सब ठीक-ठाक तो है ना ?’मैंने काका से रामजोहार की और उनके पास पहुँच गए।हमने कहा,’काका ,हम तो शहर में ठीक ही हैं पर आप इत्ती सरदी में यहाँ ?’

अब मेड़ई काका ने हमें खेत की मेड़ पर बैठने का इशारा किया और खुद भी बैठ गए।वे तनिक गंभीर होते हुए बोले,’बच्चा ,जब आप छोटे थे ,तब भी हम खेत में हल चलाते थे और बारिश-सरदी में भी खेत में पानी लगाते थे।तब से लेकर अब तक साल तो कई बीत गए पर हम और हमारा काम नहीं बदला है।’हमने काका को दिलासा देते हुए समझाया कि अभी शहर से खबर आई है कि सरकार दलितों के लिए आरक्षण में पदोन्नति देने जा रही है,इससे ज़रूर फायदा पहुंचेगा।सरकार लगातार पिछले पैंसठ सालों से इस मुहिम में लगी है कि जो दलित और पिछड़े हैं वे आगे बढ़ें और उनकी दशा सुधरे।’

मेड़ई काका जो अब तक थोड़ा शांत थे,उबल पड़े।वे कहने लगे,’बच्चा,हम ज़्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं हैं पर इतना ज़रूर समझते हैं कि ये जो कुछ भी हमारे नाम से होता है,केवल छलावा-भर है।दर-असल, अपने-अपने हिस्से की मलाई खाने की ज़ोर-आज़माइश भर है।कभी गरीबी-हटाओ का भी नारा खूब ज़ोर से उछला था ,पर क्या इससे गरीबी हटी ?अरे,इन्हीं गरीबों के बहाने कई सारी योजनाएं बन जाती हैं और उनका फायदा हम तक पहुँचता ही नहीं।रही बात नौकरियों में आरक्षण की,तो शहर में रहने वाले ही गिने-चुने लोग इसका फायदा उठा पाए हैं और यहाँ गाँवों में खेतों पर काम करने का हमारा आरक्षण निश्चित है।हमने तो आज तक यही देखा है।आप शहर में रहते हैं,पढ़े-लिखे हैं तो ज़रूर हमसे ज़्यादा जानते होंगे।’

हम काका की बातों का सीधा जवाब तो नहीं दे पाए,पर अपनी बात आगे बढ़ाई,’काका,आप परेशान न हों,बहन जी पूरी कोशिश कर रही हैं कि दलितों को उनके हक-हुकूक मिलें और इसके लिए उन्होंने यह ऐलान खुले-आम कर रखा है।’काका अब फट पड़े,’क्यों ,अभी कुछ दिन पहले तक तो उनको किसी से गुहार लगाने की ज़रूरत नहीं थी,पर दलितों के लिए क्या किया ?वे दलितों के नाम पर सत्ता की हिस्सेदारी अपने ही पास रखती हैं,अन्य दलित वहाँ भी पिछड जाते हैं।जब वे टिकट या मंत्री-पद बांटती हैं तब किसी दलित पर उनकी निगाह नहीं जाती।उन्होंने अपने लिए तो ढेर सारी माया बटोर ली है और आगे और बटोरने का इंतजाम करने के लिए ये सब नाटकबाजी है।’

हमने काका से कहा कि बहनजी चाहती हैं कि नौकरशाही के ऊँचे पदों पर दलित काबिज हो जांय तो हालत में क्रान्तिकारी बदलाव आ जायेगा।वे कहने लगे,’जब स्वयं सारी सत्ता उनके हाथ में रही तब क्या किया? जो भी ऊपर पहुँच जाता है वह दलित नहीं रह जाता है और न हम जैसों को पहचानता है।इसलिए हम तो खेतों में हल की मुठिया पकड़े रहने से ही खुश हैं।सभी नेता हमारे नाम पर अपने-अपने सुखों का आरक्षण  चाहते हैं,किसी को हमारे दुःख-दर्द से मतलब नहीं है‘।
 
१९/१२/२०१२ को 'जनसंदेश' में प्रकाशित

1 टिप्पणी:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सटीक और सार्थक आलेख...

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