रविवार, 29 नवंबर 2015

सोशल मीडिया में 'दंगल'!

‘दंगल’ की रिलीज सिनेमाघरों से पहले सोशल मीडिया पर हो गई है।लोग फेसबुक और ट्विटर पर बने बंकरों से फ़िल्मी नायक पर गोले दाग रहे हैं।अभिनेता सीरियाई युद्धक्षेत्र-सा बन गया और रूस और नाटो की सेनाएं उस पर टूट पड़ी हैं।सोशल मीडिया के ‘दंगल’ में हिस्सा लेना सबसे सुरक्षित और आसान होता है।इसके लिए न तो हथियारों के लिए किसी और पर निर्भर रहना होता है और न ही किसी लाइसेंस या सेंस की ज़रूरत पड़ती है।जैसे ही कोई बे-स्वाद बयान आया,दन्न-से अपने मोबाइल को मिसाइल बनाकर दो-चार स्टेट्स और दस-बीस कमेन्ट से विरोधी खेमे को तबाह कर दिया जाता है।


यह तो बस मोर्चे पर पहुँचने की सूचना भर होती है।इसके तुरंत बाद अफवाह-लांचर से ‘दुश्मन’ के व्यक्तिगत रिकॉर्ड को ध्वस्त किया जाता है।पाताल से ऐसी-ऐसी सूचनाएँ प्रकट होती हैं कि सामने वाले की सात पुश्तें तर जाएँ।सोशल मीडिया पर आयोजित होने वाले ‘दंगल’ की खासियत है कि ‘बयानधारी’ की पूरी बनियान उधेड़ दी जाती है।अभिनेता तभी तक है जब तक वह अभिनय करता है।यदि उसने ‘रियलटी शो’ का संचालन करने का मन बना लिया तो उसे सात समन्दर पार पहुँचाने का मौका दिया जाता है।

बयानबाजी करना केवल संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों और नेताओं का काम है।कलाकार और साहित्यकार नाचने-गाने और कागज रंगने तक ही सीमित रहें।प्रकृति-विरुद्ध कोई भी काम उचित नहीं होता।कूकने वाली कोयल कांव-कांव नहीं कर सकती।यह काम कौवों के लिए ही मुफीद है।सोशल मीडिया के आने से कांव-कांव’ को बड़ा बल मिला है।क्रांति कभी कूकती नहीं,इसलिए जब ‘कांव-कांव’ की बाढ़ आती है तो क्रांति का संकेत मिलता है।यह असहिष्णुता नहीं है,नए समाज के संस्कार हैं,जो परिष्कृत रूप में सामने आते हैं।अब ‘जनमत’ यहीं बनता है और आपूर्ति के लिए तैयार होता है।

‘दंगल’ का सिनेमा हिट है और अभिनेता भी।असहिष्णुता हिट है और सरकार भी। बयान हिट है और जवाबी बयान सुपरहिट।यहाँ सबके ‘हिट’ होने के मायने भले अलग हों,पर समाज के ‘हिट’ होने का अर्थ एक ही है ।इस पर ज्यादा तवज्जो की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि सबने अपने लिए नए समाज बना लिए हैं।वे इस पर सुबह-शाम या किसी भी वक्त मूंगफली या भुट्टा चबाते हुए अपनी आमद दर्ज़ कर सकते हैं।बिना अखाड़े में कूदे,प्रतिद्वंद्वी के बिना सामने हुए उसे पटखनी दे सकते हैं।ये इस ‘दंगल’ के नए विजेता हैं।

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

मँहगाई का ‘महागठबंधन’ !

सुनते हैं टमाटर फिर से लाल हो गया है।कुछ लोग इसी पर लाल-पीले हो रहे हैं ।टमाटर का गुणधर्म ही लाल होना है।वह तो केवल अपना धर्म निभा रहा है।वैसे भी देश में महागठबंधनकी सफलता की खबर उस तक पहुँच गई है।वह भी सरकार के खिलाफ प्याज,दाल और तेल के साथ महागठबंधनमें शामिल होना चाहता है।विकास का दौर है तो कोई क्यों पीछे रहे ?टमाटर विकास-यात्रा का नया राही है।
मँहगाई ऐसी-ऐसी जगहों से निकलकर आ रही है कि इसके खिलाफ मोर्चा भी नहीं बन पा रहा है।सरकार को भी इसके लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ रही।कोई न कोई चीज़ उसे राहत देने के लिए मैदान में आ जाती है।विकास की गाड़ी सरपट दौड़ रही है।बुलेट ट्रेन आने से पहले रेल-किरायों का लेवल भी वहाँ तक आना जरूरी है ।इसीलिए हर दूसरे-तीसरे दिन किराया अपने आप बढ़ लेता है।यात्री को किराए के तौर पर अहसास होना चाहिए कि वह ए सी क्लास में चल रहा है,भले ही कोच स्लीपर का हो।विकास धीरे-धीरे ही पटरी पर आएगा।इसमें समय लगेगा ।साठ साल की पुरानी  मालगाड़ी एकदम से राजधानीकी रफ़्तार नहीं पकड़ सकती।
खाने-पीने की चीज़ें मँहगी हो रही हैं,यह कहना गलत है।हमारी क्रय-शक्ति कितनी बढ़ गई है,इससे यह पता चलता है।विकास फटे-पुराने चीथड़े पहनकर नहीं आता।वह सूटेड-बूटेड होगा,तभी उड़ता हुआ दिखेगा।इसलिए अब विकास की दौड उड़ानमें बदल गई है।हवा में उड़ने के लिए भी तो ईंधन चाहिए।बस,सरकार उसी का जुगाड़ कर रही है।
टमाटर के दाम बढ़ गए हैं तो नूडल्स की तरह देसी सूपका पाउच लाया जा सकता है।इससे प्याज,दाल और टमाटर के महागठबंधनकी चुनौती से निपटा जा सकता है।आखिर सब कुछ सरकार ही तो नहीं करेगी।जनता को कुछ तो छोड़ना होगा।
प्याज,दाल,तेल और टमाटर सब मिले हुए हैं।यह गठबंधन घोर अवसरवादी है।ऐसे समय में जब सरकार विकास को विदेशों से घसीटकर लाने को कृत-संकल्प है,उसकी हौसला-अफजाई करनी चाहिए।इसलिए टमाटर पर लाल होने से पहले यह सोचें कि यह किसकी साजिश है।तेज भागती हुई  सरकार दाल-रोटी पर चिंतन करने लगेगी तो विकास-यात्रा क्या खाक़ होगी?



                

गठरी में लागा चोर !

धर्म अब अपनी विकास-यात्रा के अंतिम चरण में पहुँच चुका है।पहले धर्म-भीरु होने को ही धार्मिक होना मान लिया जाता था,अब धर्म-वीर यानी जेहादी ही धार्मिक है।धर्म-भीरु बड़े कायर किस्म का होता था।किसी भी प्रकार की हिंसा को पाप समझता था।भूल से चींटी भी पैरों तले आ जाती थी तो तीन दिन तक प्रायश्चित्त करता था।अब हिंसक होना वीरता की निशानी है।कागज के टुकड़ों में दर्ज धर्म को बचाने के लिए इंसानियत के टुकड़ों की दरकार पड़ती है।धर्म बलिदान माँगता है,शायद इसीलिए धर्म-वीर आत्मोत्सर्ग कर रहे हैं।पहले दूसरों की जान बचाने के लिए करते थे,अब लेने के लिए।

जिहाद धर्म की रक्षा के लिए तलवार ताने है।धर्म का कमजोर होना मंजूर नहीं है।धर्म पहलवान बनेगा तो बचेगा।इंसानियत दहशत में रहेगी तभी धर्म की छतरी सलामत रहेगी।धर्म अब जीवन शैली का नाम नहीं है,अस्तित्व की लड़ाई है।मानवता भले मिट जाए,पर धर्म जीवित रहना चाहिए।धर्म रहेगा तो जीने का मकसद भी होगा।दिल में बदले की आग होगी तो ज़िन्दगी सार्थक होगी।धर्म नहीं होगा तो यह सब कौन बताएगा ? इसलिए धर्म सुभीते का व्यापार हो गया है।

व्यक्तिगत जीवन सुधारना अब धर्म का काम नहीं रह गया है।वह अब राज्य और देश को बचाता है,मनुष्य को नहीं।मनुष्य बचकर भी क्या करेगा ? दूसरी वजहों से मर जाने से अच्छा है कि धर्म के नाम पर मर मिटा जाए।खुद न सही तो दूसरों को ही मिटाकर।धर्म-ग्रन्थों को पढ़कर धार्मिक बनना लम्बी क़वायद है।कलम और की-बोर्ड पकड़ना बच्चों का खेल है।धार्मिक बनने के लिए ज्ञान का नहीं आतंक का पाठ सीखना होता है।जो जितना बड़ा आतंक पैदा कर सकता है,वो उतना ही बड़ा धार्मिक बन जाता है ।

हमने किताबों में पढ़ा है,‘धर्मो रक्षति रक्षितः।अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो,स्वयं रक्षित हो जाओगे ।आधुनिक पढ़ाकुओं ने इसे सही ढंग से समझा है।इसीलिये वे धर्म की रक्षा के लिए बम,गोली और मिसाइल से लैस होकर समर-भूमि में कूद पड़े हैं।धरती के कई जन-खंड केवल भूखंड बन गए हैं पर मजाल कि धर्म को जरा भी आंच आई हो! धर्म के आधुनिक रणबाँकुरों ने उसे एक कीमती सामान की गठरी में तब्दील कर दिया है।ऐसे में उसके लुटने और नष्ट होने की उम्मीद भी बढ़ गई है।अब तो हर तरफ से यही धुन सुनाई दे रही है कि तेरी गठरी में लागा चोर,मुसाफिर जाग जरा।पर मुसाफिर तो यही सोचने में लगा है कि गठरी स्वयं उसकी रक्षा करेगी।


सोमवार, 16 नवंबर 2015

पकड़ में डाॅन !

आज के समय में चोर-उचक्का होना बहुत बुरा है।पुलिस तो पुलिस पब्लिक तक हाथ-पैर तोड़ देती है।छोटी-मोटी हेराफेरी जहाँ जिंदगी तबाह कर देती है,वहीँ हवाला रैकेट चलाकर जेड प्लस सिक्योरिटी हासिल हो जाती है।एक ओर अपहरण और फिरौती का सतत अभ्यास जनतंत्र के मंदिर के कपाट खोल देता है वहीँ दूसरी ओर उठाईगिरी समाज से आपका सम्मान उठा लेती है।इसलिए करो तो कुछ बड़ा करो।गली के मुस्टंडे गुंडे नहीं देश-दुनिया के डॉन बनो।सफलता आपके कदम चूमेगी।चोर से एक अदना-सा सिपाही भी निपट लेता है और डॉन से बड़ी से बड़ी रणनीतियाँ पिटती और निपटती हैं।जेबकतरी,लूटमार आपको खतरे में डालती है पर आतंक और हत्याओं की जुगलबंदी आपको सेलेब्रिटी बनाता है।डॉन बाहर होता है तो राजनीति उपकृत होती है,अंदर होता है तो कारागार धन्य होता है।

डॉन पकड़ा नहीं जाता।वह अपने पकड़े जाने की बकायदा मुनादी करवाता है।जो पकड़ा जाए,वो डॉन नहीं।वह किसी चोर-उचक्के की तरह पांच या छह फीट का सींकिया पहलवान नहीं होता बल्कि गठीले किस्म का रोबदार रोल-मॉडल होता है।उसकी भूमिका सिनेमाई नायक या खलनायक जैसी होती है,किसी कॉमेडियन की तरह नहीं।छुटभइये से ‘भाई’ बनने का सफर ज्यादा लम्बा भी नहीं होता।पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं।किसी अपराधी को पकड़ने से पहले ही पुलिस को पता चल जाता है कि उसमें आगे बढ़ने की कितनी सम्भावनाएँ मौजूद हैं।पुलिस उन्हीं पर अपना हाथ साफ़ करती है जो छोटी-मोटी जेबें साफ़ करते हैं।लम्बे हाथ मारने वाले ‘माफिया’ श्रेणी में अपग्रेड हो जाते हैं।उनके ऊपर हाथ डालने में पुलिस के भी हाथ बंधे होते हैं।उठाईगीर इस मामले में पुलिस से पूरा सहयोग करते हैं।पुलिस भी इसलिए उनकी यथोचित आवभगत करती है।

चोर और डॉन का ट्रीटमेंट न एक सा होता है न हो सकता है।न पुलिस इच्छुक होती है न ही डॉक्टर।हट्टी-कट्टी देह पुलिस के संसर्ग में आते ही डायलिसिस पर आ जाती है।डॉन हमेशा हवाई रास्तों से आता है।बिजनेस क्लास में मुफ्त की डकार मारते और हवाई सुन्दरी से पेपर नैपकिन ग्रहण करते हुए वह सभी को कृतार्थ करता है।तमाम कैमरों के सामने एयरपोर्ट पर अवतरित होने के बाद कैमरों के फ्लैश देखकर ‘फ्लाईंग किस’ देता है।और इस तरह वह पूरी धज के साथ हमारी ‘पकड़’ में आता है।

वहीँ चोर-उचक्के और इलाकाई बदमाश परिवहन निगम की बस में खड़े-खड़े ही और मटमैले रूमाल से मुंह बाँधे हुए आ लेते हैं।हाँ,रास्ते में हवलदार साहब को उनका  साथ देने के लिए पकौड़े और जलेबियाँ ज़रूर बेमन खानी पड़ती हैं।उनके लिए अखबार में खबर का एक कोना भी बमुश्किल से नसीब होता है जबकि डॉन कई दिनों तक प्राइम टाइम के विमर्श को कब्जा लेता है।डॉन बाहर हो या अंदर,बाज़ार उसके साथ होता है।उसकी खबरों के प्रायोजक ‘भारत-निर्माण’ में लगी सीमेंट होती है।एक तरफ जेबकतरा अँधेरे कमरे में हवलदार से माँगी हुई बीड़ी सुलगाता है,वहीँ दूसरी तरफ डॉन विशेष कक्ष में मूंग की खिचड़ी में घी डालने की मनाही करता है।

डॉन का फिट और सुरक्षित होना सबसे ज़रूरी होता है।जो लोग उसके पकड़े जाने को लेकर जाल फैलाते और जान गँवाते हैं,वही उसकी चाक-चौबंद सुरक्षा में मुस्तैद हो जाते हैं।जो डॉन बाहर रहकर हमेशा चौकन्ना रहता है,पुलिस के हाथ लगकर आला दार्शनिक बन जाता है।चोर बमुश्किल इंसान होता है जबकि डॉन हिन्दू या मुसलमान होता है। चोर अपनी हैसियत के मुताबिक ‘थर्ड डिग्री’ से पास होता है जबकि डॉन न केवल सम्मान सहित उत्तीर्ण होता है,बल्कि राष्ट्रीय चैनल पर हमें दर्शन-सुख भी करवाता है।इसीलिए डॉन की पकड़ इतनी मानीखेज है।

बुधवार, 11 नवंबर 2015

लालटेन ने पॉवरहाउस में आग लगा दी !

बिहार में दीवाली से पहले दीवाली मन गई।कई तरह के पोल और पैकेज पर जनता ने पटाखे सुलगा दिए ।हवा किसी की थी,उड़ा ले गया कोई और।यह जनमत नहीं जादू-टोना है।महागठबंधन ने आँखों में धूल झोंक दी है।ई सब जरूर काला जादू सीखे हैं।कमल को खिलाने के लिए खूब कीचड़ किये,पर तीर बड़का छाती में धँस गवा।एक तरफ हाईटेक जनरेटर चलता रहा वहीँ दूसरी तरफ लालटेन की दिप-दिप रोशनी में मजमा लुटता रहा।गाय जंगलराज के खेत में विकास चर गई और भैंस अपने तबेला में फिर से मुँह मारने आ गई।लोग अब उस तांत्रिक को ढूंढ रहे हैं,जिसने सुशासन बाबू के कान फूँके थे।

अगड़ा,पिछड़ा,अति पिछड़ा सब बौरा गए।किसी ने विकास में रूचि नहीं दिखाई।विकास पर बड़ी-बड़ी टॉर्चें मारी गईं पर मतदाताओं की मति ही मारी गई थी।उन्होंने लालटेन की रोशनी में ही अपनी थाली में पड़ा दाल का पानी देख लिया।अपने डीएनए की रिपोर्ट भी दे डाली।बैलगाड़ी ने बुलेट ट्रेन को पछाड़ दिया।लगता है इससे इतनी ऊर्जा पैदा हो गई है कि पाटलिपुत्र मेल अब सीधे इन्द्रप्रस्थ जाकर ही रुकेगी ।

चुनाव नतीजों ने महाबलियों और बाहुबलियों का सारा बल उतार दिया।महागठबंधन को शठबंधन कहने वाले अब शब्दकोश में ‘सबक’ और ‘संकेत’ ढूंढ रहे हैं।भुजंग प्रसाद,शैतान,नरभक्षी और ब्रह्मपिशाच पर पाँच साल के लिए गर्द पड़ चुकी है।रैलीबाज विकास-यात्रा खत्म कर विलायत दौरे पर जा रहे हैं।हार की समीक्षा रेडीमेड रखी हुई है।यही कि भव्य-विकास की राह को जातियों की गोलबंदी और अवसरवादियों की एकता ने रोक दिया है।इस चुनाव से उनको अब तक यही सबक मिल पाया है।

वे पार्टी के असली ‘शत्रु’ हैं जो कहते हैं कि ताली कप्तान को तो गाली भी कप्तान को मिलनी चाहिए।भला ऐसा कभी होता है ! जीतने का नायक एक होता है,जबकि हारने पर पूरी टीम हारती है।यह नियम हर खेल में चलता है।इसीलिए ‘मैन ऑफ़ द मैच’ अकसर विजेता टीम से ही सामने आता है।खेल उनका है तो नियम भी उन्हीं के चलेंगे।वैसे भी जंग में सब जायज माना जाता है।

ये चुनाव संजीवनी वाले रहे।जहाँ सालों से बुझी लालटेन भक्क से जल उठी वहीँ सुन्न पड़े हाथ में भी हरकत शुरू हो गई है।एक तीर से कई शिकार हुए हैं।घायल शेर को घेरने के लिए हांका लग चुका  है।बेरोजगार हो चुके लोगों को रोजगार और अहंकार को आइना मिल गया है।फ़िलहाल,लालटेन ने पॉवर हाउस में आग लगा दी है।

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

लात नहीं सत्ता-प्रसाद है यह !

ऐसे कठिन समय में जब सब कुछ वापस किया जा रहा हो,एक खबर पढ़कर दिल को बड़ा सुकून मिला।खबर आई कि मंत्री जी ने एक बच्चे को एक रुपया मांगने के ‘अपराध’ में लात रसीद कर दी।इस ‘भारतरत्नीय-कर्म’ पर आपत्ति दर्ज करने वालों को पता नहीं है कि राजा जब भी अपनी रियाया के सामने अपना अनुराग दर्ज करता है तो वह अपने ‘पर्स’ की ओर नहीं निहारता,बल्कि सीधे उसका ‘परस’ कर लेता है।चुनाव से पहले जब वह उसके चरण-कमल धोकर पी सकता है तो चुनाव बाद वह उसे लात से क्यों न धोए ? बड़ों से लात खाकर अपने जीवन में आगे बढ़ जाने वाले हमने कई लोग देखे हैं।हो सकता है मंत्री जी के अंदर यही परोपकार का भाव रहा हो।वह इसके लिए हलफ़ तक उठाने को तैयार हैं।मंत्री का हर काम जनता की सेवा के लिए उठता है।इसी दिशा में उठाया गया कदम है यह।इसे लात कहकर उठाये गए नेक क़दमों का अपमान है।

दरअसल,मंत्री जी ने लात नहीं मारी,यह उनकी ओर से जनता को दिया गया सत्ता-प्रसाद है।वह तो एक अदना-सा जन प्रतिनिधि भर है जो अपनी अमूल्य निधि को,बिना सब्सिडी के,तन-मन-धन से जनता को समर्पित कर रहा है।ऐसा करने में उसके तन को जो कष्ट होता है,उसका तो वह मुआवजा भी नहीं वसूलता।सोचिये,जब उस प्रजापालक ने अपने चरण-कमलों को उस मैले-कुचैले और शुष्क-देहधारी बालक से‘परस’ किया होगा,उसके कोमल चरण कराह उठे होंगे।पर उन्होंने उफ़ तक नहीं की।इसके उलट जनता को तनिक भी कष्ट मिलता है तो महाकृपालु अपने खजाने (व्यक्तिगत तहखाने छोड़कर) खोल देते हैं और जी भर कृपा करने का सुख एन्जॉय करते हैं।

वैसे भी बड़ों से जो मिल जाय,थोड़ा है।इससे आगे यह भी हो सकता था कि प्रसाद पाने वाला उनके लात-घूँसे खाकर सीधा भूमि-पूजन करने लगता।मंत्री जी के पास समय का अभाव रहा होगा,नहीं तो यह कृपा भी सुलभ हो जाती।मंत्री जी के लात-प्रसाद का विरोध करने वाले इस बात से अनजान हैं कि उनके हाथ खाली नहीं हैं।सत्ता में आने पर दोनों हाथों से उलीचकर अपनी फसल की सिंचाई करनी पड़ती है।ऐसे में भला हाथ कहाँ से फुर्सत में होंगे ? सूखे का मारा किसान और भूखा नेता कोई भी कदम उठा सकता है।मंत्री जी ने फिर भी ‘एक कदम’ उठाया।इससे यह भी पता चलता है कि वे मंत्री जी गरीबों की सब्सिडी-योजना के विरोधी नहीं हैं।मंत्री जी का लात चलाना बिलकुल तार्किक है।ऐसा करके वे सत्ता के रंग को और निखार रहे हैं।यह भी हो सकता है कि वह बच्चा उनके ‘भारत-निर्माण’ अभियान के आड़े आ रहा हो !ऐसे रोड़े को राह से हटाना ज़रूरी होता है।बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस तरह के धतकरम भी ‘मिशनरी-कर्म’ में तब्दील हो जाते हैं।यही नया बदलाव है।

इसलिए लानत-मलामत करनी है तो उस लेखक की करिए,जो लिखना-पढ़ना छोड़कर समाज और राजनीति-सुधार में लगा है। उस कलाकार की करिए ,जो नाच-गाना छोड़कर देश के माहौल पर मर्सिया गा रहा है।नून-तेल-लकड़ी से आहत आत्माएँ सत्ता के चरण-कमल भी नहीं सह सकतीं,तो मानिए देश में घोर असहिष्णुता तारी है।

रविवार, 1 नवंबर 2015

पुताई का सूत्र !

दीवाली सिर पर हैं पर घर की दीवारें वैसी ही गंदी नज़र आ रही हैं।कई ठेकेदारों से सम्पर्क किया लेकिन बजट ऐसा कि बूते के बाहर।अभी पाँच दिनों की ऑनलाइन शॉपिंग से उबरा नहीं था कि श्रीमती जी ने तीखा बयान जारी कर दिया-अबकी दीवाली में साफ़-सफ़ाई बहुत ज़रूरी है।पिछले तीन सालों से टालते आ रहे हैं।अब तो सामने वाले गुप्ता जी ने भी रंग-रोगन करा लिया है।और कितनी भद्द पिटवाओगे ?’

इस बात को हमने दिल पर ले लिया।बात केवल सफ़ाई तक होती तो ढांपी जा सकती थी,पर एकदम सीधे इमोशन पर आ लगी।गुप्ता जी के रंग-रोगन ने घर में क्रान्ति के बीज बो दिए थे।इससे निपटना बेहद ज़रूरी था।पर जेब खाली थी और आगे दीवाली थी।दफ्तर से एडवांस लेकर ‘बिग बिलियन सेल’ और ‘दिल की डील’ में पहले ही शहीद हो चुका था।श्रीमतीजी की बात भी ठीक थी।सफ़ाई से अधिक जरूरी था कि हमारा खोया हुआ आत्म-विश्वास लौटे।इसलिए पड़ोसी गुप्ता जी के नाम की उलटी माला जपते हुए पार्क की ओर बढ़ गया।

पार्क में चार-पाँच लोग मिलकर एक निहत्थे पर लिपटे हुए थे।पास जाकर देखा तो उसके चेहरे को स्याही से पोत दिया था।हमने पूछा-भाई यह क्या कर रहे हो? एक ने उत्तर दिया-यह पिछले दो दिनों से राजेश जोशी की कविता बांँच रहा था।हम इसे कसकर पोतेंगे।‘पुताई से याद आया कि हमारे घर में भी सबसे ज़रूरी काम इस समय यही है।हमें ये लड़के बडे़ संस्कारी और परोपकारी किस्म के लगे।लगा कि हमारी समस्या का समाधान अब होकर रहेगा।

पुताई-अभियान का नेतृत्व करने वाले युवा से हमने अपनी परेशानी बताई।हम चाहते थे कि वे सभी उसी निस्पृह भाव से हमारी दीवारों को अच्छे रंगों से पोत दें।लड़के के चेहरे से देश का भविष्य टपक रहा था।उसने हमें अजीब नज़रों से देखा।अपने मिशन को तनिक विराम देते हुए वह हमारे बिलकुल पास आ गया।बोला-भाई साहब,आपको गलतफहमी हुई है।हम पुताई वाले बंदे नहीं हैं।यह तो देश-व्यापी साफ़-सफ़ाई अभियान में लगे हुए हैं।हमारा उद्देश्य जरा व्यापक है।‘

उसका जवाब सुनकर हम पर जैसे कालिख गिरी हो ! किस मुँह से गुप्ता जी के घर को फेस करूँगा।उससे फ़िर विनती की,’देखिए,आप लोग रंग पोतने में एक्सपर्ट मालूम पड़ते हैं।हमारे बदरंग घर को भी रोशन कर दें ,प्लीज़।’ लड़का समझदार था,हँसकर बोला-अरे भाई,हम सामान्य रंगरेज नहीं हैं।एक ही रंग का प्रयोग करते हैं और उससे दीवारें बोलती नहीं कराह उठती हैं।हमारे पास केवल कालिख है।हम इसका निःशुल्क वितरण करते हैं।जब कभी चेहरे पर कालिख पुतवानी हो,बता देना।लड़के भेज देंगे।'

हमारी आखिरी आशा भी धूल-धूसरित हो चुकी थी।पार्क से आगे बढ़े तो पड़ोसी गुप्ता जी टकरा गए।हम कुछ बोलते कि वे शुरू हो गए-और बताइए क्या चल रहा है लेखक जी ?’ हमने भी सँभलते हुए कहा कि बस पुताई के लिए...’बात बीच में ही काटकर वे पूछ बैठे,’आप भी कुछ लौटाने जा रहे हैं क्या? ज़रा ध्यान से।कहीं दीवाली में ही होली वाली कालिख न लगवा बैठना !’ मन ही मन हम सोचने लगे कि अपने ऐसे नसीब कहाँ,पर आत्म-विश्वास को बटोरकर बोले-नहीं गुप्ता जी,हम तो कबीर के अनुयायी हैं,बिलकुल फक्कड़।पुताई तो घर की करवानी थी,पर इस समय कोई खाली ही नहीं।’

गुप्ता जी हमारे और नज़दीक आए और फुसफुसाते हुए बोले,’मजदूर तो मिल रहे थे पर उनके रेट सुनकर हमने तो मना कर दिया।किसी और को न बताओ तो आपको भी इसकी जुगत बता दें?’ मरता क्या न करता।हमने उसी अंदाज में हामी भर दी।गुप्ता जी ने रहस्य खोला कि उनकी श्रीमती जी ने सुझाव दिया कि पिछले साल हमने कैमरों के सामने ख़ूब साफ़-सफ़ाई की थी तो इस बार अपने घर में क्यों नहीं करते ! बस हमने यह काम अँधेरे में कर लिया ताकि मुँह में कालिख न लग सके।चाहो तो आप भी यही फार्मूला अपना लें,पर किसी और को मत बताना।‘

हमने गुप्ता जी को गले लगा लिया।अब उसी सूत्र से सफ़ाई अभियान में जुट गए हैं।

अनुभवी अंतरात्मा का रहस्योद्घाटन

एक बड़े मैदान में बड़ा - सा तंबू तना था।लोग क़तार लगाए खड़े थे।कुछ बड़ा हो रहा है , यह सोचकर हमने तंबू में घुसने की को...