दरअसल,मंत्री जी ने लात नहीं मारी,यह उनकी ओर से जनता को दिया गया सत्ता-प्रसाद है।वह तो एक अदना-सा जन प्रतिनिधि भर है जो अपनी अमूल्य निधि को,बिना सब्सिडी के,तन-मन-धन से जनता को समर्पित कर रहा है।ऐसा करने में उसके तन को जो कष्ट होता है,उसका तो वह मुआवजा भी नहीं वसूलता।सोचिये,जब उस प्रजापालक ने अपने चरण-कमलों को उस मैले-कुचैले और शुष्क-देहधारी बालक से‘परस’ किया होगा,उसके कोमल चरण कराह उठे होंगे।पर उन्होंने उफ़ तक नहीं की।इसके उलट जनता को तनिक भी कष्ट मिलता है तो महाकृपालु अपने खजाने (व्यक्तिगत तहखाने छोड़कर) खोल देते हैं और जी भर कृपा करने का सुख एन्जॉय करते हैं।
वैसे भी बड़ों से जो मिल जाय,थोड़ा है।इससे आगे यह भी हो सकता था कि प्रसाद पाने वाला उनके लात-घूँसे खाकर सीधा भूमि-पूजन करने लगता।मंत्री जी के पास समय का अभाव रहा होगा,नहीं तो यह कृपा भी सुलभ हो जाती।मंत्री जी के लात-प्रसाद का विरोध करने वाले इस बात से अनजान हैं कि उनके हाथ खाली नहीं हैं।सत्ता में आने पर दोनों हाथों से उलीचकर अपनी फसल की सिंचाई करनी पड़ती है।ऐसे में भला हाथ कहाँ से फुर्सत में होंगे ? सूखे का मारा किसान और भूखा नेता कोई भी कदम उठा सकता है।मंत्री जी ने फिर भी ‘एक कदम’ उठाया।इससे यह भी पता चलता है कि वे मंत्री जी गरीबों की सब्सिडी-योजना के विरोधी नहीं हैं।मंत्री जी का लात चलाना बिलकुल तार्किक है।ऐसा करके वे सत्ता के रंग को और निखार रहे हैं।यह भी हो सकता है कि वह बच्चा उनके ‘भारत-निर्माण’ अभियान के आड़े आ रहा हो !ऐसे रोड़े को राह से हटाना ज़रूरी होता है।बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस तरह के धतकरम भी ‘मिशनरी-कर्म’ में तब्दील हो जाते हैं।यही नया बदलाव है।
इसलिए लानत-मलामत करनी है तो उस लेखक की करिए,जो लिखना-पढ़ना छोड़कर समाज और राजनीति-सुधार में लगा है। उस कलाकार की करिए ,जो नाच-गाना छोड़कर देश के माहौल पर मर्सिया गा रहा है।नून-तेल-लकड़ी से आहत आत्माएँ सत्ता के चरण-कमल भी नहीं सह सकतीं,तो मानिए देश में घोर असहिष्णुता तारी है।
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