बुधवार, 21 दिसंबर 2016

मिलते रहा करिए, इससे गरमाहट आती है !

जो दिल संसद में नहीं मिल पाए,वो उसके बंद होते ही मिले।मिल तो संसद में भी जाते पर उधर हंगामा बरपा था।वहाँ मिलजुलकर बात करने से भूकंप की भी आशंका थी इसलिए बाहर मिले।इन्होंने कहा भी ,'मिलते रहा करिए, अच्छा लगता है।'अब इनके कहे का मान तो रखना है।उन्होंने रखा भी।देश को बड़े भूकंप से बचा लिया।


मिलने-जुलने से आपसी सम्बंधों में गर्मी आती है।मौसम वैसे भी ठंड है।'हाथ' पर इसका असर कुछ ज़्यादा है।बिलकुल सुन्न पड़ा है।इनके पास पावर है,इसलिए मिलने का ऑफर दे रहे हैं।ठंडे हाथ को तभी गर्मी मिल सकती है,जब 'पावर' वाले हाथ से मिले।मिलने में कोई बुराई नहीं है।इससे सम्बंध मजबूत होते हैं और भविष्य सुरक्षित।जो काम संसद न कर सकी,वह इस अद्भुत मिलन ने कर दिया।

हम तो बहुत चिंतित हो गए थे।अगर यह मेल-मुलाक़ात न होती तो गुब्बारा फूट सकता था।फटा हुआ गुब्बारा पूरे देश के लिए मुश्किलें पैदा कर देता।बच्चे तो बच्चे,बड़े रोने लगते।इसलिए एक बड़ी अनहोनी टल गई।ऐसी आपदा टालने के लिए ये और वे रोज मिलें,तो हमें क्या हर्ज है ! हम तो चाहते हैं कि जो इनके मिलने से दुःखी हैं,वे भी मिल जाँय।इससे सबके गुब्बारे 'सेफ' रहेंगे।जमीन में पड़ी सुई अकेले रहकर कुछ नहीं कर सकती।गुब्बारे में चुभने के लिए उसको भी हाथ का सहारा चाहिए।हाथ को भी उठने के लिए गर्मी चाहिए।बस 'दोनों' हाथ इसीलिए मिले हैं।इस पर ईमानदारी बिलबिला रही है कि सब मिले हुए हैं।पर वो हमेशा की तरह ग़लत है।

वे जब से इनसे मिलकर गए हैं,भाषणों की गति बढ़ गई है।यह मिलने का ही असर है।पहले ही मिल लेते तो और बोल पाते।ये तो बोलने के उस्ताद हैं ही।सब मिलकर भाषण देंगे तो कैशलेस से पहले ही ठंडी पड़ी जनता को इस भीषण सर्दी से निजात मिलेगी।

कुहरा घना हो रहा है।सबूत भी नहीं दिख रहे हैं।यह आपस में मिल जाने का सबसे मुफीद समय है।



शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

फ़कीरों की कतार में राजाओं की सेंध !

लोग अचानक फ़कीर बनने पर उतारू हो गए हैं।क्या राजा,क्या प्रजा,सब मोह-माया त्याग रहे हैं।सब कुछ छोड़-छाड़कर लोग कतारों में खड़े हैं।खाली जेबें जीवन के प्रति वैराग्य पैदा कर रही हैं।कोहराती शाम में मूँगफली खाने तक की लालसा नहीं रह गई है।जी चाहता है कि धुनी रमाकर जंगल की ओर निकल चलें।खाली पेट और खाली थैले डिजिटल दुआओं से स्वतः लबालब हो जाएँगे।इससे उजाड़ और बियाबान होती बागों में भी बहार आएगी।

प्रजा का फ़क़ीर बनना ज़्यादा बड़ी बात नहीं।वह अकसर  इसके आसपास ही रहती है।बड़े त्याग की बात तब है जब कोई राजा एकदम से फ़क़ीर बन जाए।हमेशा वस्त्रहीन रहने वाली काया का शीत भी कुछ बिगाड़ नहीं सकती।त्याग तो उस राजा का महत्वपूर्ण है जो वातानुकूलित भवन और राजपथ छोड़कर अचानक धुंध भरे जंगल-पथ पर चल दे।

न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री ने अपने परिवार के लिए पद छोड़ दिया।वे राजसी भोग करते हुए अपने निजी जीवन के लिए एक कोना नहीं तलाश पा रहे थे।यह उनकी असफलता है।उन्होंने दुनिया के इस सर्वमान्य नियम को चुनौती दी है कि कुर्सी के आगे रिश्ते-नाते और संवेदनाएँ शिथिल पड़ जाती हैं।ये घटना पूरी तरह दुनियावी-सिद्धांतों के विरुद्ध है।ऐसे समय में जब संत-फकीरों में राजसी-भाव जाग्रत हो रहे हों,राजाओं में फकीरी के कीटाणु आ जाना ठीक नहीं है।

संवेदनाओं और रिश्तों को ज़िन्दा रखने के लिए बाकी दुनिया को हमारे देश के उन नेताओं से प्रेरणा लेनी चाहिए जो देशहित में फकीर बन गए हैं।ये पूरे देश को अपना परिवार मानते हैं इसलिए मौक़ा मिलते ही पूरे परिवार को देश-सेवा की शपथ दिला देते हैं।हमारे नेता ज़िन्दगी की आखिरी साँस तक देश-सेवा में जुटे रहते हैं।लब्बो-लुबाब यह कि राजपद त्यागने की नहीं भोगने की चीज होती है।जनता भी शायद इसीलिए भोगती है।

हमारे यहाँ किसी भी नेता को पदत्याग करने की ज़रूरत नहीं पड़ती।वह अपने पद और शरीर में कोई भेद नहीं करता।पद शरीर के साथ ही जाता है।जनता को भी इस बात का टेंशन नहीं रहता।जो उसे फ़क़ीर बनाता है,बदले में सही समय आने पर उसका एहसान चुका देती है।देश की जनता अपने नेता को उसके परिवार के पास आने के लिए त्यागपत्र देने जैसा पाप-कर्म नहीं करने देती बल्कि अपने जैसा ही फ़कीर बनाकर उसी लम्बी कतार में खड़ा कर देती है।

कालेधन की बाढ़ और चंद आँसू !

काला धन बड़ा ही कमजोर निकला ! एक ही डंडे से डरकर बाहर आ गया।लम्बे समय से बोरियों में भरे-भरे वैसे भी उसका दम घुट रहा था।मौक़ा मिलते ही वह गंगा में तैरने लगा,सड़क पर नाचने लगा।नोटों की नदियाँ बहने लगीं।ऐसी बाढ़ में कुछ गरीबों ने भी फ़ायदा उठा लिया।आँखों में बची हुई दो-चार बूँदें बहाने का उन्हें भी बहाना मिल गया।कालेधन के इस तरह एकदम से सामने आ जाने से रामराज्य आने की आशंका पैदा हो गई है।जो लोग हरे और लाल रंग के नोटों के पीछे अब तक भाग रहे थे,वे अब पीछा छुटाने में लग गए हैं।पता चला है कि जिन नोटों का रंग छूट रहा है,वे ही अब लम्बी रेस के घोड़े हैं ।सफ़ेद मुद्रा तो पहले से ही रंगहीन थी,अब प्राणहीन होकर कतार में गिर रही है।कालिख-पुती मुद्रा सफ़ेद होने पर उतारू है।सुना है कि रंग छोड़ने और बदलने वाली मुद्रा ही असली है।गिरगिट इसीलिए नए जमाने का देवता है।लोग हैं कि कतारों में लगकर भी बदरंग होना चाहते हैं।
काला-धन हमेशा से सेलेब्रिटी रहा है।रैंप से उतरकर अब वह सड़क पर चलना चाहता है।सफ़ेद है कि मुँह छुपाए घूम रहा है।कल तक जिस काले धन के पीछे वह पड़ा हुआ था,आज कतार में उसी के पीछे खड़ा है।कातर को कतार में आने के लिए अतिरिक्त मेहनत की ज़रूरत नहीं पड़ती।एक कदम चलकर ही वह इस गति को और सौभाग्य हुआ तो अंतिम गति को प्राप्त हो सकता है।कतार में होना ही अनुशासन में होना है।अनुशासित व्यक्ति देशप्रेमी होता है।वह कोई सवाल नहीं करता।कतार भीड़ बन जाए तो अराजक और देशद्रोही हो जाती है।ऐसे में व्यवस्था को आगे आना पड़ता है।वह चाहती है कि कतारें कभी खत्म न हों।हर कतार बताती है कि देश में सरकार है।अस्पताल और बैंक से होते हुए यही कतार अंततः मतदान-स्थल तक चली जाती है।इसलिए कतार का नियंत्रित होना ज़रूरी है।कतार होगी तभी 'गाँधी का आखिरी आदमी' पहचानने में सरकार को सहूलियत होगी।वर्ना वह उसके आँसू कैसे पोंछ पाएगी ?

लाइन में लगे लोगों को काले रंग का टीका लगाने का फ़ैसला बेहद समझदारी है।इसे माथे के बजाय उँगली पर इसलिए लगाया गया कि वोट देते समय वाली फीलिंग नोट लेते समय भी रखें।कतार में वोट देना ही केवल देशभक्ति नहीं है,नोट लेते समय भी इसे महसूसें।वोट देते और नोट लेते समय कालिख़-पुती रियाया सरकार के समकक्ष होती है।कतार में खड़े सभी लोग स्याह होंगे तो सरकार पर भेदभाव का आरोप भी नहीं लग सकता।

कुछ लोग लाइन में खड़े-खड़े गिर गए।कुछ उठे भी नहीं।इससे उनमें जज्बे की कमी झलकती है।ये लोग भूख-प्यास से नहीं 'देशभक्ति' में दिनोंदिन हो रहे ह्रास के शिकार हुए हैं।सौ-पचास रूपये निकालने के लिए दुश्मन-सीमा पर तैनात सिपाही जैसा जज्बा होना चाहिए।जब वह अपनी 'देशभक्ति' पूरी निष्ठा से साबित करता है तो अपने पैसों के लिए लाइन में लगकर मर-खप जाना कतई बुरा नहीं है!हाँ,कुछ सावधानियाँ ज़रूर बरतनी चाहिए।लाइन में जोश बना रहे,इसके लिए बीच-बीच में 'भारत माता की जय' बोलते रहें और भूख-प्यास की अधिकता होने पर योगी बाबा का चमत्कारी शहद चाँटते रहें।इससे नोट मिलने की संभावना तो बढ़ेगी ही,'देश-विरोधी' बट्टे से भी बचेंगे।साथ ही गीता में अर्जुन को दिया भगवान कृष्ण का कहा भी चरितार्थ होगा;जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि जीते तो राज्य मिलेगा और मृत्यु हुई तो यश।लाइन में खड़े हर व्यक्ति को यह सूत्र याद रखना चाहिए।वह कतार से नोट या देशभक्ति में से कुछ तो कतर कर लाएगा ही।

नोटबंदी से किसी को परेशानी नहीं है।सभी राजनैतिक पार्टियाँ सफेदी से पुती हुई हैं।इसलिए उनका कुछ  हमें दिख नहीं रहा।लोग खामखाँ अपनी स्याह उँगली उनकी तरफ उठा रहे हैं।वैसे भी चुनाव नोट से नहीं चोट से जीते जाते हैं।कालेधन और आतंक पर चोट हो गई है।जल्द ही राम और गाय को मलहम की ज़रूरत पड़ेगी।ये चोटें गहरी हैं।इनके भरने से ही सत्ता की कुर्सियाँ उगेंगी।
फ़िलहाल आम जनता परेशान बिलकुल नहीं है बल्कि वह अपनी ख़ुशी का इज़हार कर रही है।यह सब काली-पट्टी बांधे न्याय की देवी को नहीं दिखाई दे रहा है।काले धन वाले सो नहीं पा रहे हैं और आम आदमी कतार में जाग रहा है।देश मजे में है,इस बात की मुनादी राजा ने ताली पीटकर कर भी दी है।

रविवार, 27 नवंबर 2016

जनमत,बहुमत और संसद सब एक जगह !

उधर नोट लेने के लिए लोग लाइनों में ही खड़े रह गए और इधर बैठे-बिठाए वोट बरस पड़े।सरकार बहादुर निहाल हो उठे हैं और विपक्ष बेहाल।डिजिटल-नागरिकों ने नोटबंदी पर उन्हें अट्ठान्नवे फीसद के भारी बहुमत से जिता दिया है।आम चुनाव में अपनाए गए पारंपरिक तरीके से इकतीस फ़ीसद लोग ही ‘मन की बात’ कह पाए थे।ये तो ‘नमो-एप’ का कमाल है कि डिजिटल-इंडिया अब अत्याधुनिक तकनीकी की राह पर चल चुका है।एटीएम से नोट न निकलने का यही कारण है कि सरकार हमें कैश-लेस सुविधा देने का प्रयोग कर रही है।इससे चोरी-चकारी से तो बचाव होगा ही,लोगों का दैनिक-खर्च भी बचेगा।


चुनाव-आयोग को भी अलादीन का चिराग़ मिल गया है।अति-पुष्ट खबरों के मुताबिक अगले चुनावों में वह ‘नमो-एप’ को राष्ट्रीय-स्तर पर लांच कर सकता है।इससे समय और धन की बचत तो होगी ही,अल्पमत-सरकार की आशंका भी नहीं रहेगी।जो चुनाव कई चरणों में भारी तामझाम और सुरक्षा-बलों की तैनाती के मोहताज होते थे,महज कुछ घंटे में ही निपट जाएंगे।कतारें वोट लेने के लिए नहीं केवल नोट लेने के लिए लगेंगी।जो कतार में नहीं खड़े होना चाहते हैं,वे जल्द से जल्द कैश-लेस हो जाएँ।अगले चरण में सरकार इन्हें वोट-लेस भी कर देगी।फिर किसी को लेश-मात्र कष्ट नहीं होगा।

विपक्ष नोटबंदी को लेकर खामखाँ परेशान है।यह आइडिया उसके भी काम आ सकता है।सरकार से विरोध करने के लिए ‘भारत-बंद’ करने की जरूरत नहीं है।सभी विपक्षी सांसद ‘नमो एप’ को अपने-अपने स्मार्ट-फोन में इंस्टाल कर लें और प्रधानमंत्री का मुँहतोड़-जवाब उसी में सुन लें।इससे एक फायदा यह होगा कि उन सबके मुँह भी सुरक्षित रहेंगे और सदन की कुर्सियाँ भी।

बैंकों की कतार में खड़े लोग परेशान न हों।वे सरकार की कैश-लेस योजना को ठीक तरह से समझ लें तो कतार से भाग खड़े होंगे।अब डेबिट कार्ड,क्रेडिट कार्ड के साथ ही शादी के कार्ड से भी पैसा पा सकते हैं।



मंगलवार, 8 नवंबर 2016

धुंध में दिल्ली और बंद-बंद का खेल !

जिसके फेर में सब रहते हैं,वह ख़ुद धुंध के फेर में है।इन दिनों राजधानी गर्दो-गुबार से भरी है।आँखें फाड़कर देखने से भी अँधेरा नहीं फट रहा।गोया दिल्ली बीमारों का जमघट बन गई हो।ये बीमार सत्ता के हों या व्यवस्था के।चिकनगुनिया और डेंगू की ठीक से निकासी भी नहीं हो पाई थी कि बर्ड-फ़्लू ने दस्तक दे दी।इस बीच आतिशबाजी की उजास में धुंध ने जबरिया घुसपैठ कर ली।मुश्किल यह कि इसे फेक एनकाउंटर में  मारा भी नहीं जा सकता।

अपने ही कारनामों से निकली धुंध डराने लगी है।तय किया गया कि सब कुछ बंद किया जाय।यह बिलकुल उतना ही सटीक उपाय है जैसे आँख बंद कर लेने से सामने खड़ा शेर छूमंतर हो जाता है।आँखों पर छाई धुंध ने सब कुछ बंद कर दिया है,दिमाग भी।चैनल बंद,स्कूल बंद,बाहर निकलना बंद,असहमति और सवाल पूछना बंद।सबसे बढ़िया यही होगा कि खबरें ही बंद हो जाएँ।खुला चैनल वैसे भी कई ‘बंदों’ से अधिक खतरनाक होता है।बंद चैनल कहीं अधिक सुकून देते हैं।लोग बंद कमरों में धुंध से भी बचेंगे और देश-विरोधी हवा से भी।

राजधानी में चौतरफ़ा धुंध तारी है।आदमी आदमी को नहीं पहचान पा रहा।मरने के लिए अब सरहद पर जाने की ज़रूरत नहीं है।शहीद होने के लिए ‘शॉर्ट-कट’ प्लान तैयार है।आपके पास दो ही विकल्प हैं;या तो स्वेच्छा से आप अपना मुक्ति-मार्ग चुन लें या एलीट-टाइप की बीमारी आपका वरण स्वयं कर लेगी।हार्ट-अटैक,बुखार,कैंसर या शुगर से मरने का चलन अब आउटडेटेड हो चुका है।स्मार्ट-सिटी में रहते हुए प्रदूषण के हाथों खेत होना एक स्मार्ट अनुभव होगा।कुछ सालों पहले हजारों लोग लंदन में इस प्राकृतिक-वरदान को पाकर मुक्ति पा चुके हैं।हम तो वैसे भी आतिशबाजी के स्वाभाविक चैम्पियन हैं।

दिल्ली में छाई धुंध को लेकर विशेषज्ञ परेशान हैं।यह उतनी भी चिंताजनक बात नहीं है।कहते हैं कि सरकार को तेज हवाओं का इंतज़ार है जो इसे दूर लेकर चली जाएँ।दूसरी जगहों पर खुली आँख से देखने भर से ही धुंध छँट जाती है।दिल्ली की धुंध ज़रा गहरी है।इसमें कई तरह की परतें एक साथ सक्रिय हो उठती हैं।इस समय संसद-भवन और राजपथ घनी धुंध की चपेट में हैं।जैसे ही सूरज की किरणों को वहाँ सर्जिकल-स्ट्राइक का मौक़ा मिलेगा,धुंध को सीमा-पार भागने में देर नहीं लगेगी।फ़िलहाल दिल्ली को तेजाबी-बारिश का इंतज़ार है जो कम-अस-कम आँखों में चढ़ी मोटी धुंध को साफ़ कर सके।

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

चिकनगुनिया की चपेट में लेखक !

जिस चीज़ के बारे में दूर-दूर तक कोई शंका नहीं थी,वह दीर्घशंका बनकर हमारी पिंडलियों में समा गई। पोर-पोर दुःखने लगा,नस-नस पिराने लगी। पूरा शरीर लुहार की भट्ठी बन गया। सिर हमारे शरीर से मुक्ति पाने को छटपटा रहा था। श्रीमती जी ‘ठंडा-ठंडा कूल-कूल’ टाइप तेल लेकर उसकी मालिश किए जा रही थीं पर असर नदारद था। जिस बंदे के पैरों में सनीचर था,दिन भर एक जगह टिकता नहीं था,आज वह बिस्तर के नीचे उतरने की हालत में नहीं था। पर क्या करें,ऊपर वाला यह मजबूरी भी नहीं समझता। वाशरूम तो जाना ही था। जैसे ही पैर ज़मीन पर रखे,वे स्वतः अंगार बन गए। पंजे,तलवे और एड़ी खूब दहक रहे थे। तलवे चाँटने वालों की तरफ़ से भी यह बड़ा धक्का था। मैं वरिष्ठ बनने की कगार पर था और इधर तलवे सुर्ख हो रहे थे। नवांकुर अपना मिशन अब कैसे पूरा करेंगे ? थोड़ी देर के लिए मैं निजी गम भूल गया। हाँ,इस बात का अफ़सोस जरूर हुआ कि ऐसी उपलब्धि से वंचित हो जाऊँगा।


बहरहाल किसी तरह त्रिकोणीय मुद्रा में वाशरूम गया। पर यह क्या ! विष्ठा-विसर्जन को बैठा तो उठने का जोर ही न बचा। किसी तरह बजरंग बली की तरह अपनी ताक़त का स्मरण किया और बाइज्जत ‘स्वच्छ-सदन’ के बाहर आ गया। बमुश्किल अपनी छह बाई चार की खटिया पकड़ ली। तब तक श्रीमती जी ने हमारे पारिवारिक डॉक्टर को इस हादसे की खबर दे दी।

आधे घंटे के अंदर डॉक्टर साब आ गए। बड़ी जल्दी में थे। आते ही मुँह में थर्मामीटर घुसेड़ दिया। कहने लगे-सीज़न बहुत टाइट है। पुराने और वफादार कस्टमर हो,इसलिए आ गया। अपने लोगों को कष्ट से मरते नहीं देख सकता। थर्मामीटर निकाला और परचे पर कुछ नुस्खे लिख दिए। बोले-पाँच दिन तक इनका सेवन करो,फिर देखते हैं।

मैंने सहमते हुए डॉक्टर साहब से पूछा-क्या डेंगू तो नहीं है ? ‘यह चिकनगुनिया है। ’ उन्होंने आखिरी घोषणा कर दी। मेरे सामने अखबार की कई खबरें आँखों के सामने तैर गईं। हिम्मत करके फिर पूछ बैठा,’डॉक्टर साहब ! परेशानी की कोई बात तो नहीं है ?’ अब डॉक्टर साहब उखड़ गए।परेशानी का तो कोई इलाज नहीं है मेरे पास। मैं केवल शारीरिक बीमारियों का इलाज करता हूँ। तभी श्रीमती जी ने उनकी फीस और शुक्रिया दोनों अदा की। हमें झटका देकर वे झट से निकल लिए।

यह सब करते-कराते चार-पाँच घंटे बीत चुके थे। मैं फोन से बहुत दूर था। लड़के को गेम खेलने का इससे अच्छा मौक़ा नहीं मिल सकता था। वह गेम के कई लेवल पार कर चुका था। मुझे इस समय दुनियादारी से विरक्ति हो गई थी। दवा खाकर कुछ राहत मिली तो सोचा अब कमेन्ट खाए जाँय। जैसे ही फेसबुक खोला ,हड़कंप मचा हुआ था। दोस्त इस बात से बेचैन हो रहे थे कि अपने स्टेटस पर कमेन्ट खा कर यह बंदा कहाँ गुम हो गया ! बहरहाल,मैंने एक शेर के साथ आमद की,’दोस्तों की दुआएँ आखिर काम आईं,अच्छे-खासे थे,बीमार हो गए’। साथ में ‘फीलिंग चिकनगुनिया’ को चस्पा कर दिया।

क्या दुश्मन,क्या दोस्त,सब टूट पड़े। संवेदनाएं व्यक्त होने लगीं। कुछ दोस्तों ने तो प्री-श्रद्धांजलि-वक्तव्य भी तैयार कर लिए। बस देरी मेरी ओर से ही थी। एक जिगरी दोस्त का फोन तुरंत आया। कहने लगा-यार तू है बड़ा लकी। जब हट्टा-कट्टा था तो भी सबसे ज्यादा लाइक मारता था और अब देख ! आधे घंटे में ही चार सौ सत्तावन लाइक और नवासी कमेन्ट आ चुके हैं। और हाँ,तूने उन फलां वरिष्ठ से समझौता कर लिया क्या,जिन्हें तू अब तक उखाड़ने में जुटा था ?’

कुछ दवा का असर था और उससे ज्यादा हमारी हालत पर फेसबुक में मचे कोहराम का भी। मेरा सरदर्द हवा हो चुका था। बाकी अंग अभी बदस्तूर पिरा रहे थे पर दिमाग सक्रिय हो चुका था। मैंने दोस्त की बात का कोई जवाब नहीं दिया।बस नेटवर्क और तबियत ख़राब होने की बात कहकर रहस्यमय चुप्पी साध ली।

फोन रखे दो मिनट नहीं बीते थे कि हमारे घनिष्ठ वरिष्ठ साथी का फोन आ गया। फुसफुसाने वाले अंदाज़ में कहने लगे-संतोष,ऐसा करो कुछ दिन बिस्तर में ही आराम करो। लिखा-पढ़ी का जो भी तुम्हारा दायित्व है,हम भलीभांति निभा ही रहे हैं। दूसरे पाले वाले तुम्हें अपनी और घसीटना चाहेंगे। तुम इस समय कमजोर हो। भावुक तो तुम हो ही। भावनाओं पर नियन्त्रण रखना। इस बीमारी से एक बात का फायदा तुम्हें हुआ है। तुम्हारी छवि एक विवाद-पुरुष की बन चुकी है। इस दौरान निष्क्रिय रहोगे तो विवाद भी तुम्हारी तरह हल्के हो लेंगे और तुम्हारा पुरुषत्व फिर से हावी हो जाएगा। हमें उसी की ज़रूरत है। हाँ,जरा चैट-बॉक्स से बचे रहना। सबसे ज्यादा इन्फेक्शन वहीँ से आता है। यहाँ मैं सब मैनेज कर लूँगा। तुम सुन रहे हो ना ?’

मैंने उन्हें निसाखातिर करते हुए बताया-मगर इस सबमें हमारा लेखन चौपट हो जाएगा। बताते हैं कि यह बीमारी ज़रा ज्यादा खिंचती है। इतने दिनों तक अगर हम न खिंचे तो हमारा साहित्यिक तंबू तो सिमट लेगा। अगर खिंच गए तो हमारे न लिखने से विरोधी पाले वाले अपनी दुकान जमा ले जाएंगे। ऐसे में आपके लिए ही मुश्किल होगी। ’

हाँ,इसका डर तो हमें भी है। ऐसा करो,तुम कुछ मत लिखो। पहले जो लिखा है,उसी से लोग हलकान हुए पड़े हैं। कई लोग तो बीमार ही हो गए हैं तुम्हें पढ़कर । ऐसा करता हूँ मैं तुम्हारे पुराने लेखों की माला री-प्रिंट करवा देता हूँ। ’पर यह तो पाठकों के साथ छल होगा ? मैंने चिन्ता व्यक्त की। मेरी मूर्खता पर वे हँस पड़े-भाई,साहित्य में बने रहने के लिए सारे प्रपंच करने पड़ते हैं। आलोचक इसे ही साहित्य का पुनर्जागरण काल कहते हैं।यह बीमारी नहीं तुम्हारे लिए साहित्य में जमने का मुफीद समय है।तुम थोड़े दिन भूमिगत रहो। मैंने तो तुम्हारे साथ वाली फोटुएं भी क्रॉप कर डाली हैं।तुम कहीं नहीं दिखोगे तो विरोधियों को तुम्हारी बीमारी पर पक्का भरोसा हो जाएगा।

वे इत्ता कुछ कहके अंतर्ध्यान हो गए। मुझे भी दवा के असर से नींद आ गई। सुबह उठा तो श्रीमती जी ने एक बुके देते हुए बताया कि अभी अभी कूरियर वाला दे गया है। मन प्रसन्न हो गया कि अभी भी कुछ लोग बचे हैं जो हमें ठीक करने के लिए इस हद तक जा सकते हैं। तभी ताजे फूलों के बीच से एक चिट झाँकने लगी। मैंने उसे झट से निकाला।संदेश चमक रहा था-

चिरंजीव चूजे ! तुम्हारे बीमार होने से साहित्य पर बहुत बुरा असर पड़ा है।कई समीक्षाएँ अधर में लटक गई हैं। इससे लेखक हतोत्साहित व प्रकाशक आशंकित हो उठे हैं। ऐसा रहा तो हमारी साहित्यिक-यात्राएँ भी उठ जाएँगी।तुम्हारी टांगें काँपती हैं,इसे देखते हुए आगामी बैठकें स्थगित नहीं की जा सकतीं। पिछले हफ़्ते समीक्षा के लिए तुम्हें जो किताब दी थी,अब उसकी जरूरत नहीं रह गई है।हमें दूजा चूजा मिल गया है।उसने हलफ उठाया है कि समीक्षा लिखने तक वह बीमार नहीं होगा।तुम सम्पूर्ण आराम करो।और हाँ,डलहौजी की ‘साहित्यिक-यात्रा’ के लिए भी तुम अयोग्य घोषित किए जाते हो। पहाड़ पर तुम्हें चढ़ाकर हम किसी साहित्यिक-क्षति को फ़िलहाल बर्दाश्त करने की हालत में नहीं हैं। सुना है इस बीमारी में जोड़ बहुत दुःखते हैं और तुम इस वक्त किसी जोड़-फ़ोड़ के लायक बचे भी नहीं हो।फ़िलहाल,इतना ही। बुके के खर्च की चिन्ता मत करना। तुम्हारी पिछली समीक्षा का जो बकाया था,उसमें एडजस्ट कर दिया है। हम तुम्हारे लिए इतना तो कर ही सकते हैं। ’

तुम्हारा ही अशुभचिंतक

वरिष्ठ मुर्ग मुसल्लम

चिट पढ़ते ही हमें फिर से मूर्च्छा आ गई। तब से अब तक मैं साहित्य से भूमिगत हूँ। पता नहीं यह बीमारी और कित्ता लम्बा खिंचेगी !



समाजवाद की पारिवारिक फिल्म और जनता की मुश्किल !

निष्ठाएँ बेचैन हैं।वे दाएँ-बाएँ हिल रही हैं।उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा कि डूबती नाव में वे किस तरफ बैठें।एक तरफ़ तूफ़ानी हवाओं का जोर है तो दूसरी ओर बुजुर्ग लहरें पलटवार कर रही हैं।वफाएँ कदमबोसी करने पर आमादा हैं पर दुर्भाग्य से पैर पत्थर हो गए हैं।उनको उम्मीद है कि जब देवता पत्थर होकर पिघल सकते हैं तो गायत्री-जाप अकारथ नहीं जा सकता।इस बीच दीवाली से पहले ही पटाखे दगने शुरू हो चुके हैं।इस बात से दगा बहुत दुखी है और उसने एकदम से ख़ामोशी ओढ़ ली है।

जो समाजवाद अभी तक गाँव-गाँव,शहर-शहर में पसरा हुआ था,अब अपने कुनबे में भी फ़ैल चुका है।हल्ला-बोल का वास्तविक परीक्षण तो अब शुरू हुआ है।भाई-भाई,बाप-बेटा, चाचा-भतीजा,बाहरी-अंदरूनी हर टाइप का समाजवादी-दर्शन जनता के सामने आ गया है।जनता के दिल की मुश्किल यह है कि वह रंगदारी-टाइप राष्ट्रवाद को हिट करे या वह पारंपरिक राज-परिवारी विरासत के साथ बैठे ! आम भारतीय परंपरा-प्रेमी होता है।इसी बात को समझकर राजपरिवार की विमाताएँ भी सक्रिय हो गई हैं।कथा के अनुसार राजा की जान पिंजरे में क़ैद तोते में बसी है।बस कोई राक्षस उस तक न पहुँच पाए।ख़त वाले कबूतर बराबर इस ख़तरे से आगाह कर रहे हैं। पर बिल्लियाँ भी मुस्तैदी से उन गर्दनों की नाप ले रही हैं।

किसी बम्बइया फिल्म की तरह चल रहे इस चित्रपट का निर्देशक कोई बाहरी है,जिसे अंदरूनी पात्रों का भरपूर सहयोग प्राप्त है।पारिवारिक घात-प्रतिघात-आघात के सहयोग से बन रही यह फ़िल्म प्रदर्शन से पहले ही लीक हो गई है।कानून-व्यवस्था को पछाड़कर अब हर जगह इसी के ट्रेलर पर विमर्श हो रहा है।कुछ लोगों को आशंका है कि आगे चलकर फिल्म हिट भी हो सकती है।अलबत्ता,ठंड से बचाव के लिए एहतियात के तौर पर बाहरी-लिहाफ़ अभी से ओढ़ लिया गया है।

कहते हैं,सरकार खतरे में है,पार्टी ख़तरे में है।पर खतरा कहाँ नहीं है ? हालत तो यह हो गई है कि चरणों में बार-बार गिरने पर भी कुर्सी खिसकने का खतरा बना हुआ है।रिश्ता खतरे में है।सारे वचन और वादे खतरे में है।भरोसा खतरे में है और सबसे बड़ी बात पारिवारिक भविष्य खतरे में है।इन सब खतरों के बीच राहत की बात यह कि फ़िलहाल आम जनता को कोई खतरा नहीं है।सब कुछ भुलाकर वह अगले चुनाव तक केवल मनोरंजन पर ध्यान दे।यह टैक्स-फ्री भी है !

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

ऑनलाइन सर्जिकल स्ट्राइक !

इस बार दीवाली महीने के आख़िर में है।तब तक जेब पूरी तरह फट चुकी होगी।यह बात जानते सब हैं पर समझता केवल बाजार है।यह समय न लुटने वाले के लिए मुफीद होता है न लूटने वालों के।लुटने वाले तो निरा विकल्पहीन ठहरे पर लूटने वाले अपने सभी विकल्प खुले रखते हैं।त्यौहार भले महीने की आखिरी तारीख को हो,पर पगार तो पहली को ही मिलती है।बाजार इसी पगार को ताकता है और फिर उसी हिसाब से अपना हिसाब-किताब दुरुस्त करता है।


नौकरी-पेशा लोगों की सुविधा देखते हुए अधिकतर ऑनलाइन शॉपिंग साइटों ने महीने की शुरुआत से ही अपनी दुकानें सजा ली हैं।कम्पनियों ने अख़बार और टीवी के जरिए सर्जिकल स्ट्राइक की तरह हर घर पर विज्ञापनों से हमला कर दिया है।उपभोक्ता के पास कुछ भी खरीद लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।ताज़ी तनख्वाह पर सबसे पहला हक़ बाजार का ही बनता है।अड़ोस-पड़ोस में लगातार कुरियर वाले लड़के आते हों और आपके दरवाज़े पर भूल से भी ठक की आवाज न आए, तो सब कुछ सामान्य जैसा नहीं लगता।पता नहीं लोग क्या सोचने लग जाएं ! उनका पहला सवाल नौकरी की सलामती को लेकर ही होता है।आख़िरकार संभावित 'कड़ी निंदा' से बचने के लिए हमें भी एहतियाती इंतज़ामात उठाने पड़े।


सेल की सुबह से ही मोबाइल खोलकर बैठ गया।हर जगह एप्पल के नए फोन की बुकिंग शुरू थी।कई सालों से मन के अंदर की दबी इच्छा उभर आई।बाजार और बच्चे सातवें वेतनमान का ताना मार ही रहे थे।सोचा कि चलो ट्राइ करने में क्या जाता है ! सत्तर-अस्सी हज़ार की फिगर देखकर 'बाय नाउ' पर जाकर फिंगर हर बार अटक गई।हर साईट पर तब तक दौड़ता रहा, जब तक 'ऑउट ऑफ़ स्टॉक' की चेतावनी नहीं जारी हो गई।मन में एक संतोष मिला कि इस दफ़े ज़रूर ले लेता यदि स्टॉक खत्म न हो जाता।


आईफोन सात की वास्तविक सेल सात तारीख़ को शुरू हो रही है।समझदार बाजार ने इसके पहले ही मेगा-सेल,बिग बिलियन डे और दीवाली-धमाका जैसे कई नामों से अपनी बिक्री चालू कर दी।आईफोन पर अस्सी हजार खर्च करने के बाद दस किलो आटे की बोरी लेने के लिए दस बार सोचना पड़ता है।बाजार जानता है कि आईफोन का दीवाना तो अपनी किडनी बेचकर भी उसे खरीद सकता है। जूते,चश्मे और घड़ियों का पुराना स्टॉक इसीलिए पहले हिल्ले लगाया जा रहा है।पूरी तनख्वाह को पूर्ण रूप से निवेश करने का इससे बेहतर आइडिया और क्या हो सकता है !


इस 'दिवाला सेल' में आहुति देने के लिए आख़िरकार मेरा भी नम्बर आ गया।निजी प्रयासों से 'ऑउट ऑफ़ स्टॉक' के चलते आईफोन से बची रक़म सूट-साड़ी, मेमोरी कार्ड और पॉवर बैंक की साँठगाँठ से स्वाहा हो गई।बचे हुए हौसले से आईफोन आठ के लिए मंसूबे तो बाँधे ही जा सकते हैं।


फ़िलहाल,खरीदारी के खाली डब्बे बॉलकनी में रख लिए हैं।पता नहीं कब पड़ोसी बाजार के सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत हमसे माँग ले !

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

चरणों में लोटने का सुख !

वे आते ही नेता जी के चरणों में लोट गए। नेता जी ने बहुतेरी कोशिश की कि वे उनके मुलायम चरण छोड़ दें पर वे छोड़ने के मूड में बिलकुल नहीं थे। नेता जी उन्हें कुर्सी पर बैठने का प्रस्ताव दे चुके थे मगर इस बार वे कोई चूक नहीं करना चाहते थे। पहले ही वे एक बार कुर्सी-वियोग का आघात सहन कर चुके थे। सो इस बार वे कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। जब कई बार नेता जी के आश्वस्त करने के बाद भी वे टस से मस नहीं हुए तो उन्होंने अंतिम रूप से उन्हें आगाह किया। इस बार उनके निर्जीव से शरीर में जरा-सी हरकत हुई और वे अंततः उठ बैठे।

अब वे कुर्सी पर जम चुके थे। सूनी पड़ी कुर्सी मानो उन्हीं के इंतज़ार में थी। वह उनकी विशाल काया को लादकर खुद को धन्य समझने लगी। जब तक खाली थी,हल्की थी। अब उसमें स्वाभाविक भारीपन आ गया था। दुनिया में वजन की ही पूछ है। कुर्सी मिलने से कुर्सी और वे दोनों वजनी हो गए थे। इस लिहाज़ से नेता जी का भी वजन पहले से बढ़ गया था,कद भले ही घट गया हो !

नेता जी उन्हें धीरे से समझाने लगे-देखो बरखुरदार,राजनीति में सार्वजनिक रूप से कुछ कार्य सर्वथा वर्जित माने गए हैं।इनमें चरण पकड़ना सबसे वर्जित कर्म है। इस क्रिया से चरण पकड़ने वाले और चरण धारक दोनों का नैतिक मूल्य हल्का हो जाता है।राजनीति में वजन तभी तक कायम रहता है,जब तक पर्दे के पीछे गुल खिलते रहें,ग़लती का सबूत न छूटे। सरेआम चरणों में लोटना राजनैतिक हाराकिरी है। तुम जैसे अनन्य जनसेवक को मैं खोना नहीं चाहता इसलिए आइन्दा सबके सामने ऐसे खुरदुरे और कठोर हाथों से मेरे कोमल चरण मत छूना।हल्के हो जाएँगे।

इतना सुनते ही वे सिसक पड़े। कहने लगे-आप मेरे देवता हैं। मेरा अस्तित्व आप का ही दिया हुआ है। माई-बाप तो बस नाम के हैं। प्रजापति होने का जो अवसर आपने सुलभ कराया है,उसे मैं कैसे भुला सकता हूँ ! मैं तो सुलभ शौचालय जाता हूँ तो वहाँ भी लोटा ले जाता हूँ। मैंने ज़िन्दगी में दो ही काम किए हैं। जिस वक्त चरणों में नहीं लोटता हूँ,लोटा पकड़ लेता हूँ। पिछले कई दिनों तक पकड़े रहा। विरोधी खुश थे कि मुझे पेचिश की बीमारी हुई है पर मेरी असल बीमारी तो आपको पता है। जब तक जनहित का पूर्ण मनोयोग से खनन न कर लूँ,दिल को चैन नहीं आता। आपने कृपा की है तभी चरणों में लोट रहा हूँ। इसी में मुझे परम-शांति मिलती है। कृपया मुझे चारों दिशाओं में लोटने दें। यही मेरा मौलिक कर्म है।

नेता जी ने पीठ पर हाथ धरते हुए कहा-जाओ,फ़िलहाल रेत पर लोटो।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

बाहुबली जमानत पर और ऊपरवाले का डर !

नेता जी जमानत पर हैं। आम आदमी को बाहर जितनी सुविधाएँ नहीं मिलतीं,उनको अंदर रहकर हासिल होती हैं। यह उनकी अपनी अर्जित कमाई है। आदमी और नेता को जो अलग करती है,वह यही हनक होती है। बताते हैं कि जेल से बाहर आने पर तेरह सौ गाड़ियाँ उनके आगे-पीछे नाच रही थीं। इससे एक भी कम होती तो जलवे में दाग लग जाता। सुशासन भले जल-भुनकर राख हो गया हो,पर जनता ने अपने प्रतिनिधि पर आँच नहीं आने दी। कुछ भी करने और बोलने के लिए नेता जी अब पूरी तरह तैयार थे।

दरबार सज गया। नेता जी को खुला दरबार पसंद है। वास्तविक नेता बिना दरबार के जीवित नहीं रह सकता। कारागार में भी इसीलिए कारगर इंतजाम किए गए थे।वहाँ थोड़ा लुका-छिपी थी,अब सरेआम है। नेता बोल रहा हो और आप न सुनें तो वह बुरा मान जाता है। यही सोचकर हम भी कुछ सवाल लेकर पहुँच गए।

वे चौतरफ़ा घिरे हुए थे। आधुनिक पत्रकार उनके साथ सेल्फी लेकर कृतार्थ हो चुके तो अपन का नम्बर आया। मैंने उन्हें बाहर आने की औपचारिक बधाई दी। उन्होंने सहर्ष स्वीकारी भी। मेरा पहला सवाल यही था-आपके आने से राज्य की राजनीति में क्या असर पड़ेगा ?’ नेता जी इस प्रश्न के लिए जैसे तैयार ही बैठे थे,लपकते हुए बोले-यह हमसे मत पूछिए। जनता सही समय पर इस बात का जवाब देगी। उसने देना शुरू भी कर दिया है। आप जो इत्ती भीड़ देख रहे हैं,दरअसल यह कातर जनता है। हम इसी के लिए जेल से बाहर आने के लिए आतुर थे। ’

‘आप पर बाहुबली होने का भी आरोप हैं। इसमें कितना झूठ है ?’ मैंने अगला सवाल धर दिया। सामने लगते जयकारे के बीच वे सहजता से बोल उठे-यह सब विरोधियों की साजिश है। हम हिंसा में विश्वास नहीं करते। हमारा नाम ही काफ़ी है। रही बात बाहुबली होने की,तो हमारी बाजुएँ जनता ने मजबूत कर रखी हैं। यह मजबूती उसी को समर्पित है।’

‘अब एक आखिरी सवाल,आपको किससे डर लगता है ?’

‘देखिए वैसे डरने का काम हमारा नहीं है। कानून हमारे साथ है। सरकार और जनता भी हमारे साथ है फिर भी हम थोड़ा-बहुत ऊपरवाले से डर लेते हैं। इससे लोगों में भी डर के प्रति आस्था बनी रहती है। यही हमारी पूँजी है। ’ नेता जी ने दो-टूक जवाब दे दिया था।

नेता जी की अट्टहास वाली फोटो के साथ साक्षात्कार समाप्त हुआ। दूर सुशासन का सूरज अस्त हो रहा था। अँधेरा ज्यादा बढ़ता उसके पहले ही हम लौट आए।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

डूबते-उतराते लोग और टंगे हुए भूपाल !

पूरा राज्य जलमग्न था।जनता घोर कष्ट में थी।उसके दुःख देखने के लिए वे बेचैन हो रहे थे।दुःख तभी समझ में सही आता है,जब दिखाई दे,आर्तनाद करे।राज्य के मुखिया के नाते वे आधिकारिक रूप से इसे देखने के हकदार थे।इसके साक्षी बनने के लिए वे निकल पड़े।जनता के दुःख ठीक प्रकार से दिखाई दें,इसके लिए पहले वे हवा में उड़े।ऊपर से जल और जमीन एक-सी लग रही थी।मैदान उजले और झक सफ़ेद थे।चारों तरफ पूर्ण शान्ति पसरी हुई थी।वे दुःख देखने के लिए अवतरित हुए थे,पर यहाँ तो दूर-दूर तक उन्हें निर्जन दिखा।न कोई कोलाहल,न चिल्ल-पों।यह भी कोई ‘एडवेंचर’ हुआ ?

उन्होंने तत्काल साहसिक निर्णय लिया।ज़मीन पर उतर आए।न,न कहने का मतलब उन्होंने विमान त्याग दिया।अब सामने जल था,वे थे और उनका समर्पित दल।जनता कहाँ-कहाँ तक जल में समाई है,वे निकट से देखना चाहते थे।पर समस्या इससे भी विकट थी।वे अभी तक बेदाग़ और उजले थे।यहाँ तक कि उनके जूते भी उनकी सफेदी की गवाही दे रहे थे।आज उन्हीं पर संकट था।जल-स्तर तीस सेंटीमीटर के खतरनाक लेवल यानी घुटनों तक पहुँच चुका था।वे घुटनों पर कोई संकट नहीं चाहते थे।वे राजा थे,प्रजा नहीं,जो गले तक भी पानी भर आने पर खुद को सहज महसूस करती है।इस विकट परिस्थिति में भी उन्होंने हार नहीं मानी।आख़िरकार पानी से रार ठान दी।

हर मौके पर सुस्त रहने वाला राज्य-बल तुरंत सक्रिय हो गया।राज्य की व्यवस्था खतरे में थी।उसे अगल-बगल से टांग लिया गया।कुछ लोग तो उसे कंधे पर भी बिठाना चाहते थे पर तब जनता के दुःख से वह साठ सेंटीमीटर और दूर हो जाती।वे व्यवस्था की साक्षात् मूर्ति बन गए।जल के बीचोबीच वे जनता के दुःख देखने लगे।कुछ जासूसी आँखें भी उन्हें देख रही थीं।आखिरकार कड़ी मशक्कत के बाद दुःख को कैमरे में क़ैद कर लिया गया।राज्य के बाढ़-पीड़ित मुखिया को उसकी झक-सफेदी के साथ धरा पर सुरक्षित धरा गया।

दुःख का आकलन हो चुका था।जायजा भलीभांति हुआ था ताकि सबको उचित मुआवजा मिल सके।मुआवजे का बजट बढ़ा दिया गया।बाढ़ में फँसे लोग अभी इतना गिरे नहीं थे कि राज्य-कोष के बदले जयघोष न उच्चार सकें।हाहाकार के बीच जयकारा गूँज उठा।दुःख देखने का प्रयोजन सफल हुआ।

कुछ लोग इस ‘दुःख-दर्शन’ पर भी तिरछी नजर उठा रहे हैं।उनको ऐतराज है कि दुःख देखने के लिए दुःख समझना ज़रूरी है।उनका मानना है कि इसके लिए उनको पानी में उतरना चाहिए था।पर ये लोग यह भूल जाते हैं कि इससे उनका पजामा गीला हो जाता।तब बड़ा अनर्थ होता।वैसे भी दुःख-दर्द देखने के लिए थोड़ा फासला होना चाहिए।वे तो बस इसी आपदा से निपट रहे थे।

बुधवार, 7 सितंबर 2016

पत्थर के सनम,तुझे हमने....!

घाटी में बैठक हुई।कबूतरबाज और पत्थरबाज अपनी-अपनी माँगों के साथ मिले।कबूतरबाज चाहते थे कि वे पत्थर न फेंके।इससे शांति के कबूतरों को चोट लगती है।पत्थरबाज इसके लिए तैयार नहीं थे।उन्हें इसके सिवा और कोई हुनर सिखाया ही नहीं गया।दोनों पक्षों में वार्ता ज़रूरी थी।हुई भी।कबूतरबाजों की तरफ से सरकार के प्रतिनिधि ने अपनी बात रखी-हम आपकी समस्या से अवगत हैं।आप यदि पत्थर फेंकना ही चाहते हैं तो इसके लिए भारतीय परम्पराओं का ख्याल रखा जाए।कहने का मतलब कि पत्थर वही फेंके,जिनके निशाने सटीक हों।यह नहीं कि निशाना कनपटी पर हो और वह दिल पर जाकर लगे।इससे जनभावनाएं आहत हो सकती हैं।और हम ऐसा न होने देने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

एक वरिष्ठ पत्थरबाज-प्रतिनिधि ने अपना पक्ष खोलकर धर दिया-देखिए,हम पाक-पत्थरबाज हैं।जो भी पत्थर हमारे हाथ आ जाता है,नापाक नहीं रह पाता।दूसरी बात यह कि पत्थर को तो भारतीय संस्कृति में पूजा जाता है।हम उसी परम्परा को बस आगे बढ़ा रहे हैं।फूलों की वादी में हमें पत्थरों से खेलने की आज़ादी मिलनी चाहिए।हम पत्थर के सनम होना चाहते हैं।हम कितने शरीफ हैं, फिर भी आप हमें छर्रा-बंदूक से नवाज रहे हैं ?

शान्ति का कबूतर फड़फड़ा उठा-आप पत्थर फेंकिए,पर हमें मना करने से मत रोकिए।इतनी आज़ादी तो हमारे पास भी है।पत्थरों से हमारा प्रतिरोध प्राचीन-काल से चला आ रहा है।सुना ही होगा-‘कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को ! और अगर आपको मारना ही है तो पहले ठीक से रिहर्सल कर लिया करिए।फेंकना आसान नहीं होता।आप लोग तैयार हों तो हम इसमें केंद्र सरकार की सब्सिडी-योजना लागू कर सकते हैं।आप लोग थोड़ा कम वजन के और मझोले टाइप के पत्थर फेंके।बदले में हम छर्रा-बंदूक के बजाय फ्रंट पर मिर्च के गोले तैनात कर सकते हैं।

पत्थरबाज-प्रतिनिधि ने कहा-हम आपकी माँग को ऊपर तक पहुँचा देंगे।फ़ैसला उन्हीं को करना है।हमारे हाथ में तो केवल पत्थर पकड़ा दिए गए हैं।इनकी मात्रा और साइज़ भी हम नहीं तय करते।इस मामले में हम बच्चे हैं।

सर्वदलीय बैठक बिना किसी नतीजे के सम्पन्न हो गई।घाटी में शान्ति को लेकर दोनों पक्ष सहमत थे,पर पत्थरों और छर्रों के मसले पर आम सहमति नहीं बन पाई।तय हुआ कि अगली बैठक तक ‘ऊपरवाले’ का कोई निर्देश प्राप्त हो जाएगा।तब से शान्ति के कबूतर यही गुनगुना रहे हैं,’पत्थर के सनम तुझे हमने मुहब्बत का ख़ुदा जाना,बड़ी भूल हुई अरे हमने,ये क्या समझा,ये क्या जाना !’

बुधवार, 31 अगस्त 2016

कृपया ड्रोन साथ लेकर आएं !

दुनिया के महाबली विदेश मंत्री जॉन कैरी साहब ख़ास गुफ्तगू के लिए भारत दौरे पर आए।एयरपोर्ट से होटल के रास्ते में ही उनकी गाड़ी रुक गई।आगे-पीछे केवल गाड़ियाँ दिख रही थीं।कैरी ने अपने सहयोगी से कहा-मि. मोदी हमारा इतना स्वागत कर रहे हैं।इतना एस्कॉर्ट तो हमारे प्रेसिडेंट के लिए भी नहीं होता।उनसे कहो,हम पाकिस्तान को सबक सिखा देगा पर अब हमें होटल पहुँचने दें।पास बैठे एक वरिष्ठ अफसर ने बताया कि सर यह भारतीय जाम है।कैरी बोले-भई,उन्हें समझाओ।मैं दिन में नहीं पीता।’

एक भारतीय अफसर उनकी बातचीत सुन रहा था।शायद ख़ुफ़िया विभाग का था।उसने डिटेल में समझाना शुरू कर दिया,’सर थोड़ी देर पहले रुक-रुक कर बारिश हो रही थी।आपको रुक-रुक कर ही होटल तक पहुँचना होगा।’

‘तो क्या हमारा स्वागत रुक-रुक कर होगा ?’कैरी से न रहा गया। ‘जी जनाब।जैसे पाकिस्तान की सहायता रोक-रोक कर पूरी दे दी जाती है ,वैसे ही यहाँ स्वागत रिलीज किया जाता है।क्या करें,यह हमारी परिपाटी है।’

आखिर दो घंटे बाद कैरी अपने होटल पहुँच गए।रास्ते में जाम के स्वागत से इतने अभिभूत हो चुके थे कि मुँह से बोल नहीं फूट पा रहे थे।अमेरिका से आई कोई भी कॉल वे अटेंड नहीं कर सके।व्हाइट हाउस में हड़कंप मच गया।तुरत-फुरत ओबामा जी ने मोदी जी से हॉटलाइन पर बात करनी चाही।इधर से संदेश दिया गया कि वे अगली ‘मन की बात’ का एजेंडा तय कर रहे हैं।उन्होंने किसी वरिष्ठ मंत्री से उनकी बात करवाने को कहा।

पर्यटन मंत्री जी वहीँ बैठे सैलानियों के ड्रेस-कोड को सेट कर रहे थे।ओबामा जी से वही मुखातिब हुए।बोले-सर क्या बात है ?ओबामा-हमारे विदेश मंत्री कहाँ हैं?हमें उनकी खबर नहीं मिल रही है।’

बस,इत्ती-सी बात ! अभी हमने भी टीवी पर खबर देखी है।वे दो घंटे तक जाम में थे,अब होटल में आराम कर रहे हैं।’मंत्री ने आश्वस्त किया।


ओह माय गॉड ! पर आपके यहाँ इतना समय जाम में खराब होता है ?


‘सर अगली बार कैरी सर को कहना कि अपने साथ एक ड्रोन कैरी करते आयेंगे।जाम से निपटने में आसानी होगी।’मंत्री ने समाधान प्रस्तुत कर दिया था।

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

पचहत्तर पार का पराक्रम !

वे बड़े मजे से जनसेवा में रत थे।जनता को भी उनसे कोई व्यक्तिगत तकलीफ़ नहीं थी।अपने विरोधियों को मात देकर वे कुर्सी पर काबिज हुए थे और लगातार इस पर बने रहना चाहते थे।उन्होंने किसी के आगे सरेंडर नहीं किया था पर नामुराद कलेंडर ने धोखा दे दिया।अचानक उन्होंने पचहत्तर की ‘फिनिश लाइन’ पार कर ली।विरोधी खुश हुए कि वे ढल गए पर यह उनकी भूल थी।उन्होंने अभी तक अपनी मौलिक प्रतिभा संरक्षित कर रखी थी।वही काम आई।वे फिर से काम पर लग गए मंत्री से लाट-साहब बनकर।इस तरह सरकार ने प्रतिभा-पुंज बुझने से पहले उसमें और तेल डाल दिया।लालबत्ती फिर से भभकने लगी।

प्राचीन समय में हमारे यहाँ व्यवस्था थी कि पचहत्तर पार होते ही व्यक्ति वानप्रस्थ चला जाता था।वो माया-मोह से रहित होकर केवल भजन-कीर्तन में तल्लीन रहता था।र है।सरकार ने उसी से प्रेरित होकर वानप्रस्थ-योजना लागू की है।लाभार्थी इस योजना का स्वागत भी कर रहे हैं।वे सत्ता-भजन के लिए काला-पानी जाने को तैयार हैं।

सरकार की पूरी कोशिश है कि वे ऐसे लोगों का पुनर्वास करे,फिर भी कुछ लोग रह जाते हैं।उनको उम्मीद है कि वे प्रतीक्षा-सूची को नष्ट कर जल्द ‘री-एम्प्लायड’ हो सकेंगे।पचहत्तर पार का राजनेता खूब पका और घुटा हुआ होता है।उसको काम पर न लगाया जाय तो वह कुछ नहीं,बद्दुआ का पराक्रम तो रखता ही है।एक काम करती सरकार बड़े-बूढ़ों को कम से कम आशीर्वाद लायक तो समझती ही है।उनके पुनर्वास से पार्टी और सरकार दोनों का भला होता है।रही बात जनता की,सो वह अपना भला करने के लिए आत्मनिर्भर है ही।

पचहत्तर पार के नेता खुद चलने या सरकार चलाने के काम के भले न हों पर उम्मीद के प्रतीक-पुरुष हैं।सरकार उन्हें ‘लाट-साहब’ बनाकर यह संदेश देने में सफल है कि ‘सरकारी आदमी’ कभी रिटायर नहीं होता।सेवा ही उसका जीवन है।इस कृत्य से उसे यदि वंचित किया गया तो राजनीति वरिष्ठविहीन हो जाएगी।समय गवाह है कि साहित्य और राजनीति में वरिष्ठों ने सबसे अधिक ‘पदक’ बटोरे हैं।इसलिए पचहत्तर पार के लाट साहब जंगल में भी मंगल मना रहे हैं।

बुधवार, 10 अगस्त 2016

प्रधानमंत्री जी से सीधी बात !

प्रिय प्रधानमन्त्री जी,बाइस बार आपने अपने मन की बात की।हमने धैर्यपूर्वक सुनी और कुछ नहीं कहा।फिर अचानक आपने ‘सीधी बात’ की।सच कहूँ,सीधे दिल में घुस गई।उस दिन आप बेहद आहत थे।यह जानकर हम और आहत हो गए।आप हमारी उम्मीद हैं,आशा हैं।एक यही तो चीज़ है,जो हमारे जीवन में बची हुई है।आपके बोलने से यह भी नहीं रही।डंडे और गोली खाकर भी हम हर पाँच साल बाद याद किये जाते हैं।आपने दो साल में ही याद कर लिया,इसके लिए आभारी हैं।

आदरणीय,हम गरीबों के पास गुहार लगाने के सिवा कुछ नहीं है।जब हम चौतरफ़ा निराश-हताश होते हैं,ऊपरवाले के रूप में आपकी ओर देखते हैं।आपको हमने इसीलिए चुना था कि आप हमारी गुहार सुनेंगे,लेकिन यहाँ आपने ही गुहार लगा दी!अर्जुन की तरह सारे शस्त्र रख दिए।गाय के रक्षक जनता के रक्षक से बड़े हो गए।अब हम किसको पुकारेंगे ?आप हमारे भाग्य में लिखी गोली कैसे खा सकते हैं ! हमें तो सड़क,अस्पताल और चुनाव में गोली खाने की पुरानी आदत है।शोषक की गोली हमेशा शोषित को लगती है,शासक को नहीं।यह चलन और नियमविरुद्ध है।

प्रधानमंत्री जी,कुछ लोग जहाँ आपकी बातों के क़ायल हैं तो वहीँ कुछ अनावश्यक रूप से घायल भी।आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं है।आपकी इस प्रतिभा की मारक-क्षमता अद्भुत है।इससे दूसरे ही नहीं अब अपने भी झुलस रहे हैं।


चाय-चर्चा से शुरू आपका सफर अब गाय-चर्चा तक आ चुका है।आपने अस्सी और बीस का ऐसा आंकड़ा जारी कर दिया है कि गौ-रक्षक लाठी-डंडा छोड़कर इसी भूल-भुलैया में खो गए हैं।जनसेवक की तरह गौ-सेवक भी अपने दल को लेकर उदार है।वह सेवा के लिए कभी भी इधर-उधर शिफ्ट हो सकता है।

हमें उम्मीद है कि ‘सीधी बात’ का सीक्वल भी आप जल्द बनायेंगे।एक-एक करके देश की सभी समस्याओं को अपनी बातों की मिसाइल से 'सुपर-हिट' कर देंगे।देश के बदलने का जायका इसी से मिलता है कि ‘मन की बात’ अब बासी कढ़ी हो चुकी है।अगले तीन साल आप ‘सीधी बात’ के हलुवे का भोग लगाते रहें,हमारे जैसे मतदाता को आस बनी रहेगी।और हाँ,तब तक हमारे मनोरथों को पूरा करने के लिए ‘ऊपरवाला’ है ही।

प्रधानमंत्री जी,आपको धन्यवाद कि आपको हमारी सुध आई।मगर कहे देता हूँ कि आपको हमारे लिए जान देने की कउनो ज़रूरत नाहीं है।इसमें तो पहिले ही जंग लग चुकी है।आप अपनी कोई जंग न हारें,ऐसी कामना के साथ।


आपका ही धर्म भाई

शनिवार, 6 अगस्त 2016

मेरे ख़िलाफ़ साज़िश है यह !

जैसे ही मंत्री जी के बंगले के दरवाजे पर पहुँचा,दरबान कुत्ता लेकर मेरे ऊपर टूट पड़ा।मैंने डरते-सहमते पूछ ही लिया कि भई,मुझ को कटवाने का इरादा है क्या ? जनसेवक के सेवक ने तुरंत उत्तर दिया,’नहीं साहब,यह केवल सूँघता है,काटता नहीं।’ राहत पाकर मैंने फिर सवाल किया,’मैं पत्रकार हूँ।खबर सूँघने का काम तो मेरा है,यह क्या सूँघता है ?’

इस बीच वह कुत्ता मेरे इर्द-गिर्द दो चक्कर लगा चुका था।मेरे सवाल पर दरबान ने जवाब दिया,’साज़िश और क्या ! हमें सख्त निर्देश हैं कि कोई भी चीज़ साज़िश हो सकती है।आप जानते ही होंगे कि कुत्ते साज़िश सूँघने में माहिर होते हैं।बस इसीलिए यह सब करना पड़ता है।’

‘मगर हमने तो सुना है कि मंत्री जी भी खूब सूँघ लेते हैं।उनकी घ्राण-शक्ति इतनी प्रबल है कि कोसों दूर हुई वारदात मिनटों में उनके नथुनों में प्रवेश कर जाती है।ऐसे में इस कुत्ते की क्या ज़रूरत ? यह तो फिर भी पास से ही सूँघ सकता है।’ मैंने अपने आने का प्रयोजन स्पष्ट कर दिया।दरबान मुझसे अधिक समझदार निकला।उसने झट-से प्रवेश-द्वार खोल दिया।

अंदर जाकर कुछ सूँघता कि मंत्री जी आते दिखाई दिए।मुझे देखते ही बोल पड़े,’भई,तुम लोगों ने मेरी बात का बतंगड़ बना दिया।इसमें विपक्षियों की साज़िश है।’ मैंने पलटकर मंत्री जी से पूछा,’ अगर प्रदेश में जो-जो हो रहा है,सब विपक्ष की साज़िश है,तो क्या आपका बयान भी विपक्ष की साज़िश का हिस्सा है ?’ अब वो चौंके।मुझसे ही पूछ बैठे,’यह कैसे हो सकता है भला ? मैं तो सत्ता-पक्ष में हूँ।इससे तो मुझे ही नुकसान होगा।’

‘बिलकुल ठीक समझे।आपकी सूँघने की इतनी अधिक क्षमता पार्टी को नुकसान पहुँचा रही है।यही काम तो विपक्ष का है तो क्यों न इसे साजिश माना जाए ?’मैंने मियाँ की जूती मियाँ के सर वाली कहावत यहाँ लागू कर दी।सारे अख़बारों की कतरनें उनके आगे फेंक दी।

मंत्री जी सोफे पर पसर गए।कहने लगे-हमारे खिलाफ़ बड़ी साज़िश हुई है।मैंने पूछ ही लिया,’किसकी हो सकती है ?’

‘मीडिया की,और किसकी ?’ मंत्री जी ने गहरी साँस लेते हुए कहा।

मुझे नई खबर मिल गई थी,पर सच इसमें कोई साज़िश न थी।

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

जाम से रुके लोग और आगे बढ़ता देश !

मानसून का सीजन है।राजधानी में संसद चल रही है,पर पड़ोस में जाम लग गया।लोग बीस घंटे तक रुके रहे पर देश नहीं रुका।कुछ लोग अक्सर पीछे रह जाते हैं।जो आगे बढ़ गए,वे मँहगाई का पीछा कर रहे हैं।वह और आगे बढ़ गई है।यह कोई नई बात नहीं।हर सीज़न में ऐसा होता है।यह बात सीजन को नहीं पता कि देश बदल रहा है नहीं तो वह भी बदल जाता।जाम में फँसे लोगों को भी पता है कि देश बदल रहा है पर मुए जाम को कौन बताये ? जहाँ देखो,वहीँ ठिठक जाता है।

जाम को लेकर खूब हंगामा हो रहा है।कहा जा रहा है कि इससे करोड़ों रुपए स्वाहा हो गए।पर दूसरे पहलू पर किसी की नज़र ही नहीं गई।घंटों जाम में फँसे लोगों ने देश की अर्थव्यवस्था को अपना मजबूत कंधा दिया।यह किसी को नहीं दिखा।बीस रुपए वाली पानी की बोतल सौ रुपए में और दस रुपए का बिस्कुट पचास में धड़ल्ले से बिक गया।आखिर इत्ता सारा मुनाफ़ा देश की जेब में ही तो गया।कभी-कभी तो मौक़ा मिलता है,ऐसे लोगों को जो एक का दो और दो का चार बनाते हैं।वर्ना ये काम तो केवल बड़े जमाखोर ही कर पाते हैं।जाम ने इस बहाने नए अवसर पैदा किए।


जो लोग समय न होने का रोना रोते हैं और बड़ी जल्दी में रहते हैं,उनके लिए भी यह जाम एक मौक़ा था।लोग घंटों काम से दूर रह पाए,यह बड़ी बात है।लोगों को घर की याद आई,बच्चों से बातें की और अपने भूले-बिसरे दोस्तों को याद किया।कुछ लोगों ने अपनी रचनात्मकता के लिए भी समय निकाल लिया।इस जाम में कई कविताओं ने जन्म लिया।जहाँ पर आवासीय प्लॉट की भारी माँग रहती है,वहाँ कुछ देर के लिए ही सही,जेहन में कहानियों के प्लॉट आये।हो सकता है आगे चलकर बॉलीवुड वाले इस प्लॉट पर ‘वो बीस घंटे’ नाम से फिल्म बना डालें।जब इस जाम से लोग इत्ता ‘हिट’ हो सकते हैं तो फिल्म तो सुपरहिट होगी ही।

ऐसा नहीं है कि जाम के लिए केवल बारिश का पानी ही उपयोगी है।दस-दिनी कांवड़-यात्रा भी इसमें अपना भरपूर योगदान करती है।इसमें लाठी-डंडे जैसे क्रियात्मक प्रयोग आसानी से देखे जा सकते हैं।इस दौरान सामान्य जन-जीवन और करोड़ों का व्यापार पानी भरता है।शुक्र है कि इससे हमारी आस्था निर्विघ्न चलती रहती है।जाम में फँसे लोग फर्राटे-भरते राजमार्गों पर सामूहिक बलात्कारों से सुरक्षित रहते हैं,यह क्या कम उपलब्धि है ?

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

हम सबको आंनद चाहिए !

आखिरकार सरकार से जनता के दुःख देखे नहीं गए।उसने लोगों को ‘आनंद’ देने का फैसला ले ही लिया।इस उल्लेखनीय शुरुआत का श्रेय मध्य प्रदेश सरकार को जाता है,जिसने बक़ायदा एक ‘आनंद मंत्रालय’ खोल रखा है।यह विभाग तकलीफ़ पाए लोगों को ‘आनंद’ की खुराक देगा।उनको फील कराया जाएगा कि जिसे वे दुःख या तकलीफ समझ रहे हैं,दरअसल वह आनंद है।हम तो वैसे ही ठंडा पानी पीकर सारे गम भुलाने वाले लोग हैं।फिर यहाँ तो आपको खुश करने के लिए पूरा विभाग पीछे लग गया है।कल पूरी कायनात लग जाएगी।जब तक आप विभाग को यह लिखकर नहीं दे देते कि आप खुश हैं,कहीं नहीं जा सकते।सुख की छोड़िए,दुखी रहना भी अब आपके वश में नहीं रहा।

इस तरह की शुरुआत असल में थोड़ा देर से हुई।दूसरे देश इसमें काफी आगे बढ़ गए हैं।हो सकता है सरकारी दौरे में गए किसी ‘आनंद पथिक’ को वहीँ से यह आइडिया मिला हो।आए दिन दाल-रोटी जैसी छोटी-मोटी बातों से आजिज सरकार को एक बड़ा नुस्खा हाथ लगा।उसने झट से इस ‘दुखहरण विभाग’ का गठन कर दिया।इससे अन्य प्रदेश और फिर पूरा देश प्रेरणा लेगा।

कुछ लोग ‘हैप्पीनेस डिपार्टमेंट’ खोले जाने से ज्यादा हैप्पी नहीं हैं।जब हमारे यहाँ ‘आपदा मंत्रालय’ काफी पहले से खुला हुआ है और आपदाएं भी सुचारू रूप से आ रही हैं तो ‘आनंद मंत्रालय’ क्यों नहीं हो सकता भाई ! सरकारी हो या असरकारी,आनंद तो सबको हर हाल में चाहिए ही ।फ़िलहाल नया विभाग खुलने भर से ही कई चेहरे खिल गए हैं!

सच पूछिए,ऐसे मंत्रालय की दरकार सारे देश को है।सरकार के तमाम भारी-भरकम विभाग मिलकर भी आनंद की आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं।मध्य-प्रदेश ने हमें राह दिखाई है।सूखा-राहत,बाढ़-राहत के नाम पर कब तक अधिकारी और जनप्रतिनिधि आनन्दित होते रहेंगे ?इसमें ज्यादा स्कोप भी नहीं बचा है।नया विभाग खुलेगा तो सबको राहत मिलेगी।लोगों में आनंद के ‘कैसेट,सीडी और टेबलेट बाँटने की योजना है।इसमें पहले आओ-पहले खाओ का चक्कर भी नहीं है।‘सरकारी आनंद’ प्राप्त व्यक्ति किसी दूसरे को यह नुस्खा पास कर सकता है।शुरुआत में महीने में एक ही टेबलेट खाने का आनंद मिलेगा।आगे ऐसे टेबलेट की खोज की जा रही है,जिसे केवल एक बार खाकर पाँच साल तक आनंदित रहा जा सकता हो ! फिर नेता,अफसर और जनता सब मगन रहेंगें ।मिल-बाँटकर खाने का आनंद ही कुछ और है। 

बुधवार, 27 जुलाई 2016

सुल्तान को 'केस' पसंद है !

आपको चिंकारा की चीत्कार भले सुनाई दी हो,पर हमें लगता है कि उसे मुक्ति मिली।पिछले बीस सालों से वह नन्हीं जान रोज मर रहा था।फैसला आते ही वह सांसारिक बन्धनों से,कोर्ट-कचहरी से मुक्त हो गया।जब यह साफ़ हो गया कि उसे किसी ने नहीं मारा तब कहीं जाकर उसे सुकून मिला।इस फैसले से यह भी जाहिर हुआ कि हिरन जंगल में हरे-भरे पेड़ों के बीच ही लम्बी छलांग नहीं मार सकता,वह किसान की तरह पेड़ से लटक भी सकता है।जंगल में वह भले घूमता हो पर राज आदमी का ही चलता है।यह भी सबक मिलता है कि पैर ज्यादा होने से दिमाग नहीं बढ़ जाता।चौपाया दोपाए के नीचे ही रहेगा।

इधर ‘सुल्तान’ रुपहले परदे पर धूम मचाए है।सिनेमा के जानकार उसके खाते में रोज करोड़ों जोड़ते जा रहे हैं।कहते हैं कि ‘सुल्तान’ की रफ़्तार को सुल्तान भी नहीं रोक सकता।एक बार जो उसने कमिटमेंट कर ली फिर वह अपनी भी नहीं सुनता।यह बात उस अपढ़ और सिनेमा-द्रोही हिरन को नहीं पता थी।जब हमारा नायक महाबलियों को पलक झपकते ही धूल में मिला देता है तो यह तो ‘छौना’ था।उसकी देह के पास से गुजरने वाली हवा ने ही उसे उड़ा दिया।यह पाँच सौ करोड़ी-हवा थी।दो कौड़ी के हिरन की अगर कुछ कीमत होती भी है तो उसके मरने के बाद।इसीलिए उसकी खाल खींचने के लिए कुछ लोग हमेशा तत्पर रहते हैं।पिछले बीस सालों से यही हो रहा था।अब जाकर नामुराद हिरन को मुक्ति नसीब हुई है।

कुछ लोग अभी भी ‘सुल्तान’ पर उँगली उठा रहे हैं,उन्हें इस पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है।जो लोग आज तक ठीक से ‘आदम-राज’ का अध्ययन नहीं कर पाए,वे ‘जंगलराज’ के अलिखित कानून पर सवाल उठा रहे हैं।न्याय का मतलब सिर्फ़ यह नहीं कि ‘बड़े आदमी’ और ‘छोटे आदमी’ पर एक ही धारा लगे।ख़ास बात यह कि विपरीत धारा में भी कौन पार उतर सकता है ? ’ख़ास आदमी’ का विधायक और ‘आम आदमी’ का विधायक एक-सा नहीं हो सकता।कायदन ‘आम’ को आदमी बने रहने की तमीज तो आई नहीं अभी,और चला है विधायक बनने।असल ‘विधायक’ वह जो विधायी नियमों से परे हो।कानून का ख़ास होने के लिए सुल्तान होना या सुल्तान का ख़ास होना ज़रूरी है।और आप बात करते हैं उस हिरन की,जिसके पास ख़ास को देने के लिए एक वोट भी नहीं ! ऐसे आदमी,विधायक और हिरन जितनी जल्दी मुक्ति पा जाएँ,भला होगा।

सोमवार, 18 जुलाई 2016

घड़ी के उल्टा घूमने का यह मुफीद समय है !

पहले उत्तराखंड और अब अरुणाचल में घड़ी उल्टा घूम गई है।इसने सारी गणित बिगाड़ दी।तब की बात और थी जब गणित का मतलब केवल जोड़तोड़ और गुणा-भाग होता था।घड़ी के घूमने से अब भाग्य हावी हो गया है।हो सकता है घड़ी में यह गुण नेताओं की संगत से आ गया हो।सड़क पर आ चुके रंक को सिंहासन पर बैठा देना अब घड़ी के ही बूते की बात है।इसके घूमने से खुशियों के लड्डू ही नहीं फूटते,जमी-जमाई कुर्सी भी रेत की मानिंद ढह जाती है।जो काम तीर-तलवार से संभव नहीं,वह पतन्नी-सी सुई कर रही है।

घड़ी के उल्टा घूमने का यह मुफीद समय है।भाग्य पर भरोसा करने वाले इससे बड़े खुश हैं।वे चाहते हैं कि ऐसी चमत्कारी घड़ी उनकी हर मुराद पूरी कर दे।अगर ऐसा होने लगा तो चीजें बड़ी तेजी से बदल जाएँगी।एक तरफ जहाँ कबाड़ख़ाने में जा चुकी खादी फिर से कलफ़ पाकर चमचमा जाएगी,वहीँ दूसरी ओर मलमली-कुर्सी पर जमा पैर काँटा चुभने से ‘कलप’ उठेगा।अचानक सुहाने दिन काली रातों में बदल जाएँगे।मीठी नींद ‘अनिद्रा’ की बीमारी बन जाएगी।

जब से ऐसी खबर आई है,हमारे दोस्त गुप्ता जी अपने घर की दीवाल घड़ी को कई बार ताक चुके हैं।उसे किस एंगल से और कितना घुमाया जाय इसकी संभावित योजना भी तैयार कर ली है।वे अपनी घड़ी के काँटे को एक सौ अस्सी डिग्री घुमाकर ‘अच्छे दिनों’ से ‘बुरे दिनों’ की ओर ले जाना चाह रहे हैं।उन्हें नहीं पता कि ऐसा करने के लिए घड़ी फुल चार्ज होनी चाहिए।हो सकता है कि उल्टा घुमाते वक्त घड़ी ऐसी जगह ठिठक जाए,जब वे निरे कुँवारे थे।जब हमने ऐसी आशंका जाहिर की,वे सिहर गए।उनको सत्तर वाली दाल दो सौ में मंजूर है पर अपनी वैवाहिक स्थिति में इत्ता उलटफेर कतई नहीं।इसी साल बमुश्किल उनके चुन्नू को नर्सरी में दाखिला मिला है।घड़ी घुमाकर वे उसे गँवाना नहीं चाहते।


सोचिए,भविष्य में हर आदमी के पास ऐसी ‘टाइम-मशीन’ हो जाए तो क्या होगा ! हमें ‘वेदों की ओर लौटें’ या ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ जैसे नारे लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।सुई घुमाते ही पूरा कश्मीर हमारा और ईराक सद्दाम का हो जाएगा।मुक्तिप्रदायिनी गंगा भगीरथ की जटाओं से निकलकर हमारे सामने निर्मल रूप में प्रवाहित होने लगेंगी।इस सबसे बड़ी बात यह होगी कि ‘अबकी बार,मंहगाई पर वार’ का नारा फिर से गूँजने लगेगा।हमें ऐसी घड़ी की सख्त ज़रूरत है जो पलक झपकते ही नेताओं की तरह ‘यू-टर्न’ ले ले।

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

आत्मा का पर्यटन !

चुनाव की आहट आते ही क़दमों में जान आ गई है।नेता जी मोबाइल हो गए हैं।जिस कम्पनी का नेटवर्क अच्छा है,टॉकटाइम भी फ्री है,उसी का कनेक्शन लेने में समझदारी मानी जाती है।ऐसे समय में नेता जी खुद को रीसेट करते हैं ताकि अनावश्यक मेमोरी डिलीट हो जाय।इससे नयापन तो आता ही है,तगड़ा स्पेस भी मिलता है।उनको पुराना कुछ याद भी नहीं रहता।वे अचानक स्मृतिदोष का शिकार हो जाते हैं।पिछले सारे बयान इस आधार पर स्वतः निरस्त हो जाते हैं।


नेता जी ने पुराना घर छोड़ दिया है।वहाँ उनका दम घुट रहा था।इससे पहले जब यहाँ आए थे,तब भी यही लक्षण थे।वे तो बस बीमारी का सही इलाज करना चाहते हैं।जनसेवा के लिए दम होना पहली शर्त है।वे नशे के भी खिलाफ़ हैं,इसलिए वे दम के लिए दूसरे दल पर लद लेते हैं।इस क्रिया से उनमें और उस दल में यानी दोनों में दम बहाल हो जाता है।कई बार दूसरे दल में लदने वाले का दम इतना भारी होता है कि उस दल का ही दम निकलने लगता है।ऐसा विलय अचानक प्रलय में बदल जाता है।इससे संभावित क्रांति वहीँ ठिठक जाती है।


नेता जी की मजबूती उनकी निष्ठा है।यह ‘पंचकन्या’ की तरह हमेशा पवित्र बनी रहती है।वे जहाँ-जहाँ जाते हैं,उनके साथ चलती है।वे इस मामले में बड़े निष्ठुर हैं।किसी भी पद का लोभ उन्हें आसक्त नहीं करता।वे सबको आश्वस्त करते हैं कि उनकी लड़ाई सिद्धांतों की है।ऐसा संकल्प सुनते ही सारे सिद्धांत उनकी मुट्ठी में दुबक जाते हैं।


वह पिछड़ा समय था जब सुर बदलने में थोड़ा वक्त लगता था।उधर मोबाइल सिंगल से डबल सिम हुआ और इधर नेता जी भी अपडेट हो गए।पलक झपकते ही सुर बदल जाता है।एक ही काया में कई रूप धरने का हुनर आ चुका है।इससे राजनीति को बड़ा फायदा हुआ।दल और नेता दोनों के पास विकल्पों का आसमान खुल गया है।खुले आसमान में घाम,बारिश और शीत सहने का दम सबके पास नहीं होता।नेता जी को इसका अभ्यास है।इस मायने में वे सच्चे योगी हैं।उनकी आत्मा ही नहीं काया भी कलुषरहित हो गई है।


नेता जी के आवागमन को दलबदल कहना नादानी है।यह तो विशुद्ध पर्यटन है।ये बातें संसारी लोग नहीं समझ सकते।


सरकार का अनोखा सब्सिडी-प्लान

आख़िरकार सरकार का विकास हो गया।वह पूरी तरह  फ़ैल गई है।देश भर में छा जाने के लिए ज़रूरी है कि चुन-चुन कर सब जगह की सेवा की जाय।खासकर उन जगहों की ज्यादा जो चुनाव की चपेट में हैं।एक जिम्मेदार सरकार का दायित्व है कि वह वहाँ पर सेवा की सप्लाई बढ़ा दे।इसलिए सरकार ने अपना साइज़ बढ़ा लिया है।अब वह दलित,पिछड़ा,अगड़ा सभी को समान रूप से देख सकती है।उसने जनता की चाक-चौबंद पहरेदारी करने के लिए चौकीदारों की संख्या बढ़ा दी है।ज़रूरत हुई तो भविष्य में दाल और टमाटर मंत्री भी नियुक्त कर दिए जायेंगे जो बाज़ारों पर भी चौकस नज़र रख सकेंगे।

सरकार में मंत्री तो बढ़े ही हैं,बदल भी गए हैं।जो शिक्षा में क्रांति कर चुके हैं,अब कपड़ा संभालेंगे।पहले केवल विश्वविद्यालयों में झंडे फहराए जा रहे थे,अब घर-घर झंडा फहरेगा।आगामी दिनों में सुस्त पड़े कपड़ा उद्योग में हलचल मचने की आशंका है।विस्तार के बीच वे लोग अत्यंत दुखी हैं,जिन्हें सेवा की पंगत से अचानक उठा दिया गया है।कम से कम डकार लेने तक की मोहलत तो मिलती।पचहत्तर पार की पनौती ऐसी लगी कि कुछ तो पार हो गए,कुछ गुबार देखते रहे।

बदलाव करने पर उतारू यह सरकार दो साल पहले मिनिमम गवर्नमेंट,मैक्सिमम गवर्नेंस’ के बुलंद दरवाजे से घुसी थी।थोड़े समय में ही इसने उस दरवाजे के बरक्स एक खिड़की खोल ली है।उसके अनुसार मैक्सिमम गवर्नेंस’ की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है।उसके पास मिनिमम’ को ‘मैक्सिमम’ में बदलने का हुनर बारीकी से आ गया है।अगर उसके उपायों से गवर्नेंस ‘मिनिमम’ और 'स्लिम' हो जाती है तो यह उसकी सेहत के लिए बेहतर ही है।

सब्सिडी इस सरकार के ख़ास एजेंडे में है।वह उसे लगातार छोड़ने की अपील करती आई है।उसकी ये कोशिशें रंग ला भी रही हैं।इसी का असर है कि उसने खुद को बड़ा कर लिया है ताकि ज़्यादा काम कर सके।वह अपने कामों में सब्सिडी नहीं लागू कर रही क्योंकि इससे मँहगाई से दबी जनता पर उस काम का भी बोझ लद जाएगा।सुनने में यह भी आ रहा है कि सरकार अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों से यह मार्मिक अपील करने वाली है कि वे स्वेच्छा से चाहें तो पद छोड़ सकते हैं।सरकार लोगों को छोड़ने की प्रेरणा भी दे रही है।वह हाल ही में एक उद्योगपति के दो सौ करोड़ रुपए छोड़ भी चुकी है।

सरकार में कई नए चेहरे आ गए हैं।वह लगातार बदल रही है।देश बदल रहा है।अब आप भी बदल जाइए।



शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

व्यंग्य की युवा पीढ़ी और चुनौतियाँ !

व्यंग्य से हमारा सीधा सम्बन्ध करीब चार साल से है,जबसे हमने औपचारिक रूप से अख़बारों और पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया।यह बिलकुल वैसा नहीं रहा कि अचानक व्यंग्य दिमाग़ में घुसा और हमने उसे कागज में उतारकर धर दिया हो।यानी कि यह ओवरनाइट जैसी कोई उपलब्धि नहीं रही।बचपन से ही घर-परिवार-दोस्तों के बीच टेढ़ी बात करने की आदत रही।व्यक्तिगत जीवन में कई बार मेरे तंज के कारण निजी सम्बन्ध भी प्रभावित हुए।यह हमारे व्यंग्य-लेखन की पृष्ठभूमि हो सकती है पर यह सब व्यंग्य नहीं है,यह भी जानता हूँ।जबसे लिखना शुरू किया है,मुझे अमूमन आनंद मिलता है।व्यंग्य मेरे लिए केवल मनोरंजन जैसा नहीं है।व्यंग्य लिखना शौक भी है और एक कर्तव्य भी।


व्यंग्य को लेकर मेरी शुरूआती समझ यही है कि जब भी कुछ आपको कचोटता है,दुखता है,पिराता है,आप अपने को इस माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं।शालीन विरोध करने के लिए व्यंग्य सबसे बढ़िया ‘टूल’ है।(हथियार नहीं कहूँगा क्योंकि आजकल इसके सन्दर्भ बदल गए हैं।हर आदमी फरसा लिए घूम रहा है )।व्यंग्य लिखने के लिए सबसे ज़रूरी बात लक्ष्य तय करने की है।आपको सबसे पहले यह विचार करना है कि जिस बात को हम कहने जा रहे हैं,वह व्यक्ति-केन्द्रित है या प्रवृत्ति-केन्द्रित।हाँ कई बार व्यक्ति इतना हावी हो जाता है कि वह प्रवृत्ति बन जाता है।इसी से यह बात भी साफ़ हो जाती है कि आप कमजोर पर प्रहार कर रहे हैं या सहजोर पर।हमें याद रखना चाहिए कि कोई भी सत्ता या व्यवस्था दुर्बल नहीं होती।राजनीति में अमूमन कमजोर कोई नहीं होता।कोई कम मजबूत है तो कोई अधिक।सब मिले हुए हैं।हमें रोजाना अधिक विषय भी राजनीति से ही मिलते हैं।अगर आपको लगता है कि व्यंग्य पर क्या लिखा जाए,तो आप चैनल खोलते हैं या अख़बार पलटते हैं।जैसे हवा-हवाई बयानबाजी होती है,वैसे ही आपका विषय भी जल्द हवा हो जाता है।हम उन विषयों को बहुत कम पकड़ पाते हैं,जिन्हें रोजमर्रा की ज़िन्दगी में भोगते हैं।

राजनीतिक विषयों पर लिखने की बाढ़ है।टीवी खोलते ही विषय छलक पड़ते हैं।न्यूज़ चैनलों की बहस में हम एक पक्षकार की तरह न पड़ें बल्कि अपनी अलग दृष्टि रखें।इसके अभाव में हमारी दृष्टि किसी पार्टी-प्रवक्ता या समर्थक की तरह हो जाएगी।जो दिखाया जा रहा है,उसके पीछे की नज़र व्यंग्यकार के पास होनी चाहिए।तभी वह किसी बयान या घटना के सीधे प्रसारण से बच सकता है।


साहित्य में आज सबसे ज्यादा मारामारी है तो व्यंग्य में ही है ।जो नए हैं वो छपना चाहते हैं,जो नामचीन हैं वो कॉन्ट्रैक्ट पे रेगुलर होना चाहते हैं।व्यंग्य लिखकर साहित्य की मुख्य-धारा में कूदना सबसे आसान लगता है।यह प्रसिद्धि का शॉर्टकट बन गया है।नई पीढ़ी इसी में आत्ममुग्ध हैं।हमारे अधिकतर संपादक और आलोचक भी चाहे-अनचाहे इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं।इससे नुकसान उन्हें नहीं जो इस लायक नहीं हैं।उन्हें तो कुछ फायदा ही मिल रहा है,जिसके काबिल वो नहीं हैं,पर नुकसान केवल व्यंग्य का हो रहा है।नई पीढ़ी सीधे-सपाट लिखे संस्मरण को,चुटीली किस्सागोई को,चलताऊ मुहावरेबाजी को ही व्यंग्य समझ रही है।वह केवल शब्दों के साथ खेल को ही व्यंग्य मान रही है।भाषा तो पठनीय हो ही,पर यदि उसमें तंज का हथौड़ा नहीं है तो वह अपने शिकार को तोड़ने में समर्थ नहीं।व्यंग्य आपके डीएनए में होता है।इसे आप स्किल-इंडिया के प्रोग्राम के तहत डेवलप नहीं कर सकते।हाँ,अध्ययन-मनन या गाइडेंस से थोड़ा मेक-अप ज़रूर किया जा सकता है।जिसे कुछ लोग तकनीकी भाषा में व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र कह सकते हैं।


नई पीढ़ी के बारे में अभी यह भी निश्चित नहीं है कि वह वाकई में आई है या नहीं।अभी भी हम हर बात में परसाईं,जोशी,श्रीलाल और त्यागी जी को ही कोट करते हैं।व्यंग्य की बात वहीँ से शुरू और वहीँ पर खत्म हो जाती है।इस लिहाज से तो उनके बाद जो पीढ़ी आई,अभी तक युवा है और उसी में नए-नए लोग जुड़ते जा रहे हैं।पीढ़ियों में विभाजक-रेखा नहीं दिख रही।चालीस साल पहले लिखने वाले अभी लिख रहे हैं और वैसे ही लिख रहे हैं। है।स्तम्भ लेखन से शुरू हुए थे,आज भी केवल स्तम्भ लिख रहे हैं।पीढ़ी कब रिप्लेस होगी,पता नहीं।शायद अगले बीस-तीस सालों तक भी नहीं।ऐसा भी नहीं है कि नई पीढ़ी के पास अच्छे,अनुभवी और आदर्श व्यंग्यकारों का निर्वात हो,टोटा हो।यह नई पीढ़ी की कमजोरी है कि उसके पास अपने पूर्ववर्तियों को जानने,समझने,पढ़ने का समय नहीं है।सबकी अपनी पसंद और राय होती है।मेरी भी है।अब तक जो पढ़ा है,बेझिझक कह सकता हूँ कि ज्ञान चतुर्वेदी,नरेन्द्र कोहली,सुशील सिद्धार्थ,सुभाष चंदर आदि ऐसे लेखक हैं,जिन्हें पढ़कर समकालीन व्यंग्य समझा जा सकता है।इसके अलावा भी और लोग हो सकते हैं,जो हमारी संकुचित दृष्टि से वंचित रह गए हों।

पिछले पाँच-सात सालों में इस पीढ़ी में बहुत से लोग जुड़े हैं।व्यंग्य ऐसी अकेली विधा है,जिसमें हर दिन नया नाम दिखता है,पर उसका व्यंग्य कहीं नहीं दिखता।आज सैकड़ों लोग व्यंग्य लिख रहे हैं पर जिन चंद लोगों से उम्मीदें हैं,उनमें सुरजीत सिंह,अनूपमणि त्रिपाठी,पंकज प्रसून,निर्मल गुप्त,शेफाली पांडेय आदि हैं।इनमें ‘आदि’ में मेरी जबरदस्त सम्भावना है।हालांकि खुद मुझको मुझसे ज्यादा उम्मीद नहीं है।इन गिने-चुने लोगों में बर्बाद होने की उतनी ही गुंजाइश है।यह स्थिति बताती है कि नए समय में व्यंग्य कहाँ जा रहा है।आज हर तीसरा आदमी व्यंग्य लिख रहा है पर यदि तीन व्यंग्यकार खोज निकालने हों तो पसीने छूट जायेंगे।हाँ,हर व्यंग्यकार और आलोचक की अपनी-अपनी टीम है।यह व्यंग्य का नया समय है।मुँहदेखी और गुटबाजी और सम्मान-समारोह इसकी यूएसपी है।नई पीढ़ी पढ़ने-लिखने के बजाय इसमें व्यस्त है।वह अपने समकालीनों को खूब पढ़े,व्यंग्य समझे तब लिखे।मौका मिले तो अपने लिखे को भी एक बार पढ़ ले ।केवल छपने के दम पर आप अधिक समय तक व्यंग्यकार नहीं बने रह सकते।यह हमारे-आपके जीवन-मरण का नहीं वरन व्यंग्य के अस्तित्व का प्रश्न है।इसको इसी दृष्टि से देखें।लेखन बहुत बदल गया है।जो समय के साथ बदल रहे हैं,अभी भी प्रासंगिक हैं।ज्ञान चतुर्वेदी इसके सशक्त उदहारण हैं।


समकालीन आलोचक भी अपनी सही भूमिका नहीं निभा रहे हैं।अधिकतर आलोचक रद्दी-किताबों की भूमिका लिखने में ही अपनी भूमिका देख रहे हैं।उनको हम जैसे लेखकों से भी शिकायत है।हम अच्छा नहीं लिख रहे हैं तो वे क्या आलोचित करें ? पर आज अधिकतर आलोचना या समीक्षा के नाम पर जो भी हो रहा है,दयनीय लगता है।दोस्ताना-आलोचनाएँ और सुपारी-समीक्षाएं हो रही हैं।‘तुम हमें सम्मान दो,हम तुम्हें व्यंग्यकार बना देंगे’ की पैकेज-डील हो रही है।वाहवाही और बधाई देने के लिए उदारमना बनने की होड़ मची हुई है।व्यंग्य का इतिहास लिखना व्यंग्यकारों की जनगणना करने जैसा कर्म बन गया है।यह बाजारवाद का विस्तार है पर इससे व्यंग्य की समझ संकीर्ण हुई है।इतिहास को लिखने की भी एक दृष्टि होती है पर आज वह समदर्शी हो गई है।सबको साधने की कला, व्यंग्य की आधुनिक साधना है।उसे ‘फनलाइनर’ और व्यंग्यकार एक जैसे दिखते हैं।माना कि व्यंग्य के पास भी ‘फ़न’ है,पर वह तो दुष्प्रवृत्तियों को डसता है भाई।


समकालीन व्यंग्यकारों के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं पर वे व्यंग्य लिखने को सबसे कम चुनौती-पूर्ण मानते हैं।हमारी चिन्ता उनके प्रति है जो दाएँ हाथ से लिखते हैं।जिनके लिए व्यंग्य-लेखन बाएं हाथ का खेल है,वे तो पहले ही चैम्पियन बन चुके हैं।उनसे कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है।ये बातें सिर्फ़ उनके लिए हैं जो व्यंग्य से प्रेम करते हैं।हम या आप व्यंग्य के इतिहास में रहें या इतिहास बन जाएँ,यह महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण यह है कि व्यंग्य की ‘स्पिरिट’,उसकी मूल भावना जीवित रहनी चाहिए।आज उसी पर संकट है।इसकी सबसे पहली जिम्मेदारी मैं लेता हूँ। क्या हम इस लायक भी हैं ?

मंगलवार, 28 जून 2016

मँहगाई कहाँ है,कहाँ है मँहगाई !

सरकार ने दो टूक कह दिया है कि मँहगाई नहीं है तो नहीं है।वह कभी भी गलतबयानी नहीं कर सकती।उसका कहा आधिकारिक वक्तव्य होता है।विपक्ष मान नहीं रहा।उसको लगता है कि मँहगाई उसकी छाती पर सवार है।इसमें उसकी गलती नहीं है।इसका अहसास उन्हें ही होता है,जो विपक्ष में होते हैं।कुर्सी से दूर रहना कितना मँहगा पड़ता है,वे ही जानते हैं।


सच यह है कि मँहगाई सबको अपने दर्शन नहीं देती।जो खुद को उसके भरोसे छोड़ देते हैं,उन्हें साफ़-साफ़ दिखती है।पिछले चुनावों के समय वह अपने यौवन पर थी।तत्कालीन सरकार को तब भी नहीं दिख रही थी।उस समय विपक्ष को धुन सवार थी,’अबकी बार, मँहगाई पर वार’।चुनाव हुए,वार सही पड़ा और वह चित्त हो गई।इसीलिए आज वह नज़र नहीं आ रही।सरकार जोर-जोर से पुकार रही है,’कहाँ है मँहगाई’ पर कहीं हो तो दिखे !

दाल,आलू और टमाटर में तो इत्ती हिम्मत नहीं है कि ऐसी बोल-बहादुर सरकार को हिला सकें।देश-विदेश में जिस सरकार के नगाड़े बज रहे हों,वहाँ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनेगा ?सरकार समझदार है,सब जानती है।वैसे भी मँहगाई चुनावों से पहले कहीं नहीं आने वाली।तब तक ऐसे मुद्दों का पलायन इतनी तेजी से हो लेगा कि लोगों को सिर्फ़ ‘पलायन’ याद रह जाएगा।

देश बदल रहा है।उसके विकास की गाड़ी दादरी,जेएनयू से होते हुए कैराना के ब्रॉडगेज तक पहुँच चुकी है।विपक्ष उसे मँहगाई के मीटरगेज पर उतारना चाहता है।यह केवल सरकार को पता है कि उसने ऐसी कोई पटरी बिछाई ही नहीं।इसलिए वह उसके झाँसे में नहीं आ रही।उसे दुर्घटनाग्रस्त होने का कतई शौक़ नहीं।

मँहगाई को दाल-टमाटर से तौलने वाले नासमझ हैं।जब दाल को पतली करने का हुनर मौजूद है तो इसके लिए शीर्षासन करने की क्या ज़रूरत ? बस एक लोटे पानी में दाल के दो दाने पीसकर ठीक से मिला लें और एक साँस में पी जाएँ।इससे भूख तो भूख,दाल खाने की ‘हुड़क’ भी गायब हो जाएगी।गर्मियों में टमाटर खाने से पथरी की शिकायत हो सकती है,इसलिए इससे तो परहेज ही करें।बस खाली पेट योगा करें,इस जुगत से तन,मन और धन तीनों में जमकर बरकत बरसेगी ।


सरकार लगातार मँहगाई को ढूँढ़ रही है।पर लगता है कि वह सीमा पार कर चुकी है।इसलिए उस पर वह आक्रमण भी नहीं कर सकती।उसकी हिम्मत हो तो लुटियन ज़ोन में दाखिल होकर दिखाए।सरकार उसी दम प्राणायाम करा के उसके प्राण हर लेगी।

शुक्रवार, 17 जून 2016

कुछ खाने के क़ाबिल तो बनिए !

नेता जी जैसे ही पब्लिक मीटिंग के बाद बाहर निकले,पार्टी के प्रति समर्पित पुराने कार्यकर्त्ता ने खुद को उनके चरणों में अर्पित कर दिया।वह बहुत घबराया हुआ था।नेता जी इस क्रिया से द्रवित होते हुए बोले,’किस बात का कष्ट है तुम्हें ? टिकट-विकट चाहिए तो अध्यक्ष जी से मिलो’।कार्यकर्ता संवेदनशील था, सुबक पड़ा-सर जी टिकट तो हमें मिल चुका है,इसीलिए अधिक चिंतित हूँ।’ 'तो फिर क्या हुआ ? चुनाव नहीं लड़ना या टिकट मिलते ही तबियत ख़राब हो गई ? नेता जी ने एक साथ कई सवाल पूछ लिए।'नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।हमें डर दूसरी वजह से लग रहा है। चुनाव जीतने के बाद आपने जनता द्वारा लात मारने की जिस स्कीम को लॉन्च करने का ऐलान किया है,डर तो उससे लग रहा है।कहीं जनता हमारी परफोर्मेंस को देखकर सचमुच हमें लतियाने पर उतारू न हो जाए ? हमारी तो अब रीढ़ की हड्डी भी कमज़ोर हो चुकी है।' कार्यकर्ता दूर की सोचते हुए बोला।

नेता जी एकदम से मौलिक रूप में आ गए।'कौन है ये आदमी ? इसका पता करो कि ये अपना कार्यकर्त्ता है भी कि नहीं ? ‘ चुनाव प्रभारी साथ में ही थे।ऐसी स्थितियों का उन्हें पूर्वानुमान होता है।बात को दबाते हुए बोले ,’हम तो इस बार भी इनका टिकट फाइनल नहीं कर रहे थे पर पार्टी को इनके बुढ़ापे पर तरस आ गया।अब इनको लात खाने से भी डर लग रहा है ! समझा दूँगा मैं।'

नेता जी ने मना किया।वे स्वयं सहमे हुए कार्यकर्ता से मुखातिब हुए 'अच्छा यह बताइए, देश बड़ा होता है या प्रदेश ?' कार्यकर्ता डरते हुए बोला,'सर जी,निश्चित रूप से देश'।जवाब सुनते ही नेता जी हँस पड़े।कहने लगे,'देश के चुनावों में सबको पंद्रह लाख देने और मँहगाई को मारने का वादा किया था।आज भी जब हम बोलते हैं,तो सिर्फ हाथ उठते हैं तालियाँ बजाने के लिए।यहाँ तक कि दाल और टमाटर तो हमें स्टैंडिंग ओवेशन दे रहे हैं।रही बात लात मारने की,इसके लिए पाँव होने भी तो ज़रूरी हैं।'
अब कार्यकर्ता चकित होते हुए बोला,'तो क्या हम जनता के पाँव काट डालेंगे ?'

'बिल्कुल नहीं।अव्वल तो हम इत्ते नए मसले पैदा कर देंगे कि उसे स्मृतिदोष हो लेगा।वह हाथ-पाँव मारकर इतना थक लेगी कि लात मारने का माद्दा ही खत्म हो जायेगा।नहीं तो उसे जुमला बनाना हमारे हाथ में है ही।'

समर्पित कार्यकर्ता फिर से नेता जी के चरणों में लोट गया।चुनाव प्रभारी ने उसे चुनाव-सूत्र देते हुए कहा,'जाइए पहले कुछ खाने के क़ाबिल तो बनिए।'

बुधवार, 15 जून 2016

सरकार की कार और काग के भाग !

भाग केवल आदमियों के ही नहीं खुलते।पक्षियों में अपशकुन का प्रतीक कौआ भी भाग्यशाली हो सकता है।रसखान ने इसका सबूत देते हुए कहा भी है ‘काग के भाग बड़े सजनी,हरि हाथ से ले गयो माखन-रोटी’।पर तब की बात अलग थी।अब एक कौए के हाथ रोटी के बजाय नई कार लगी है।एक मुख्यमंत्री की नई-नवेली गाड़ी पर उनके बैठने से पहले काला कौआ बैठ गया।बिलकुल लालबत्ती के पास।सरकार को कार में शनिदेव दिखाई दिए।उसका ‘भाग’ उस कौए का ‘भाग’ बन गया।मजबूरन सरकार को अपने ‘भाग’ के लिए दुबारा ऑर्डर देना पड़ा।इस के लिए सरकार बहादुर को केवल मुंडी हिलाने की ज़रूरत थी कि राज्य की हुंडी उनके सामने खुल गई।इस बात का ध्यान ज़रूर रखा गया कि इस बार किसी और कौए को उनके ‘भाग’ में चोंच मारने का मौक़ा न मिले।इससे उनकी गाड़ी और कुर्सी दोनों सलामत हो गई।

इस छोटी बात पर विरोधी कांव-कांव करने लगे।कहा जाने लगा कि मुख्यमंत्री जी अन्धविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैं।पर उन्होंने बिलकुल ठीक किया।पहली बात कि गाड़ी में कौआ बैठा था।इसे सबने देखा,इसलिए यह अंध-विश्वास की श्रेणी में नहीं आता।दूसरी यह कि कौए को हमारे यहाँ संदेशवाहक माना गया है।उन्होंने सोचा होगा कि हो न हो,यह कौआ हाई कमान का कोई संदेश लेकर आया हो।उसकी तौहीन करना ठीक नहीं।जिस गाड़ी पर हाई कमान का कौआ बैठ चुका हो,उस पर सेवक कैसे बैठ सकता है !

बरसों से यह मान्यता है कि आंगन की मुंडेर पर बैठा कौआ घर में मेहमान आने की सूचना देता है।यहाँ तो ससुरा सीधा मंत्री जी की छाती सॉरी गाड़ी पर ही चढ़ गया।अब ई तो पक्का असगुन हुआ ना ! मंत्री जी तो अपने लिए गाड़ी पर बैठने जा नहीं रहे थे।वे ठहरे भाग्य-विधाता।जनता का भाग्य सुधारने से पहले खुद का बिगड़ जाए,वह भी कोई भाग्य है भला !उनका तो पूरा जीवन ही जनता के लिए अर्पित है सो मुहूर्त के लिए एक गाड़ी और अर्पित हो गई तो कौन-सा आसमान टूट पड़ा !

एक काले कौए से बड़ा ‘भाग’ राजा और उसके राज्य का होता है।शापित हो चुकी गाड़ी से जनता पर वरदान नहीं बरस सकते।इसलिए एक कौए ने राज्य की जनता को बड़े संकट से उबारा ही,साथ ही गाड़ियों की बिक्री को नया सूत्र दिया।आप चाहें तो उसके ‘भाग’ पर रश्क कर सकते हैं !

सोमवार, 13 जून 2016

चूजे बांग दे रहे हैं क्योंकि मुर्गे यात्रा पर हैं !

पहले अंडा हुआ या मुर्गी,यह सवाल आदिकाल से चला आ रहा है पर उसका दो टूक उत्तर अभी तक नहीं मिला।इस बीच एक अनहोनी और हो गई।ताज़ा ताज़ा पैदा हुए चूजों ने वरिष्ठ मुर्गों को ही फोड़ना शुरू कर दिया।हालत यह हो गई है कि चूजे बांग दे रहे हैं और मुर्गे परम्परा और सम्मान का हाँका लगा रहे हैं।पर यह साहित्य की व्यंग्य-परम्परा ठहरी।वो स्वयं को भी नहीं बख्शती।बुजुर्ग मुर्गे बरसों से केवल मंच पर चढ़ने व नारियल फोड़ने के अभ्यासी रहे हैं।पिछले दिनों एक चूजे ने ऐसे ही एक मंच से अपनी तोतली-भाषा में कुछ सवाल उठाये तो व्यंग्य के मुर्दा-मुर्गों को प्राण-वायु मिल गई।वे तब से यहाँ-वहाँ खुद के मुर्ग-मुसल्लम बन जाने का अफसाना बयां कर रहे हैं।


व्यंग्य को अपनी चांदनी रात बनाने वालों के पेट में मरोड़ तभी से शुरू हुई जब कुछ खद्योतों ने उनकी कृत्रिम रोशनी लेने से इनकार कर दिया।उनकी सम्मान-यात्रा में पटाखे जलाने के बजाय अंगार बरसाने शुरू कर दिए।वे वरिष्ठ हैं और घर के बूढ़े हैं,इस ओट में वे अब तक बचे रहे पर इधर उजाला कुछ जल्दी फट गया।उनको लगा कुछ और फटा।वे सोच रहे थे कि उनके बांगने से ही व्यंग्य में भोर होगी पर इन नामुराद चूजों ने सब बिगाड़ दिया।अब वे सनीचर को बांग देते हैं तो भी ‘भास्कर’ उदित नहीं होते।तो क्या हुआ,उनके थैले में पड़े बासी पुष्प-पत्र फिर भी मुदित होते हैं।वे ‘वाह-वाह’ करके बाहर कूद पड़ते हैं।

व्यंग्य की इतनी लम्बी और दुसह यात्रा करना बुजुर्ग व्यंग्य-यात्री के लिए आसान नहीं है।इसकी साधना के लिए पहाड़ों में जाना पड़ता है।सम्मान का टोटा न पड़ जाए इसलिए वे हमेशा एक कोटा साथ रखते हैं।दिनोंदिन दुर्गम होती इस यात्रा में एक-दो एनजीओ और एकाध मुटल्ले प्रकाशक हमेशा उनके बगलगीर होते हैं।यही उनके सम्मान की ‘शोभा’ बढाते हैं और उन्हें रीचार्ज करते हैं।बीच-बीच में वे अपने लम्बे झोले से व्यंग्य के सिपाही निकालने का जादुई कारनामा अंजाम देते रहते हैं।सम्मान-समारोहों में यही सिपाही शाल ओढ़ाने और ताली बजाने सॉरी स्टैंडिंग ओवेशन के काम आते हैं।जादूगर खुश होता है,यात्रा आगे बढ़ती है।सुनते हैं कि इस यात्रा का अंतिम पड़ाव राष्ट्रपति-भवन का प्रांगण हैं,जहाँ पद्मश्री अपने प्रेमी का वरमाला लिए इंतज़ार कर रही है।इसके लिए बस किसी कमलगट्टे की तलाश है।

व्यंग्य में ‘क से कबूतर’ लिखकर गायब हो जाने वाले आजकल ‘उ का दास यानी उदास’ की टूटी माला जप रहे हैं।व्यंग्य की छाती पर चढ़े हुए सनीचर अब उन्हें व्यंग्य के उद्धारक नज़र आते हैं।समकालीन व्यंग्य में नई भोर तब आई जब व्यंग्य के पप्पुओं ने अचानक बांग देकर सोए हुए महारथियों की नींद हराम कर दी।हाँ,इससे थके-हारे लेखन के पुनर्वास की समस्या ज़रूर पैदा हो गई है।यह शिष्टाचार के विरुद्ध है पर हर पुराने को एक न एक दिन विसर्जित होना पड़ता है।यदि उसके लेखन में नयापन है तो इसके लिए आर्तनाद करने या हाहाकार मचाने की नहीं केवल लिखने की ज़रूरत है।कुछेक वरिष्ठ हैं भी जो बांह चढ़ाकर ज्ञान नहीं बघारते।वे नहीं उनकी कलम दहाड़ती है।

जो कलम अपनी विसंगतियों पर न चले,वो अधूरी है।जिन अंडों को आमलेट बनना था,सनातनी-भूखों के दुर्भाग्य से वे चूजे बन गए।व्यंग्य के भोर में चूजों की बस इतनी भर बांग है कि बुजुर्ग मुर्गे अपनी सम्मान-यात्रा के बीच में थोड़ा सुस्ताकर यह भी सोचें कि व्यंग्य के सम्मान के लिए वे कब बांग देंगे !



डिस्क्लेमर : अ-व्यंग्यकार इसे इग्नोर कर सकते हैं पर व्यंग्य का चूजा भी किसी विसंगति को बर्दाश्त नहीं कर सकता।



शुक्रवार, 10 जून 2016

सेंसर बोर्ड की कैंची और उड़ता विवाद

फिल्म सेंसर बोर्ड ने गज़ब का सेंस दिखाया और सही समय पर उसने कैंची उठा ली।नब्बे से एक कम कट मारकर बोर्ड ने ‘उड़ता पंजाब’ को हवा में उड़ा दिया।हमने ‘उड़ती खबर’ और ‘उड़ता मजाक’ तो सुना था,पर कोई राज्य उड़ता हो,कभी नहीं सुना।माना कि देश बदल रहा है पर इतना भी नहीं कि एक खुशहाल और समृद्ध राज्य को आप सोलह रील की फिल्म बनाकर दो घंटे में उड़ा दें।इसलिए कई दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए ’उड़ता पंजाब’ पर बोर्ड को गहरी आपत्ति है।बात को बवाल बनते आजकल देर नहीं लगती।इन दो लफ़्ज़ों की कहानी को ट्रेंड बनाकर आगे चलकर न जाने किस-किसको उड़ाया जा सकता है ! यह बात बोर्ड के अलावा कोई नहीं समझ सकता।

कल को कोई सिरफिरा ‘उड़ता पीएम’,‘उड़ता बादल’ जैसे निरर्थक शब्दों तक पहुँच सकता है।इससे कितने नुकसानदेह परिणाम निकल सकते हैं,इसका अंदाज़ा हमारे जागरूक बोर्ड को पहले से है।छोटी-सी बात का कितना बड़ा अफ़साना बन सकता है,यह फिल्म वालों से बेहतर कौन जानता है ? सूखे के मौसम में पानी से लदे-फंदे बादल अगर हवा में यूँ ही उड़ जाएँ तो यह बेहद चिंता की बात है।आने वाले चुनावों में केवल फिल्म के नाम से ही सत्ता-दल की संभावना उड़ सकती है।और किसी भी संभावना का नष्ट होना सबसे बुरा होता है।यह है,तो जीवन है।इसलिए सेंसर बोर्ड ने ऐसा करके कई लोगों के जीवन की रक्षा की है।

फिल्म के निर्माता,निर्देशक इस कदम का विरोध कर रहे हैं।उनका कहना है कि वे इसके माध्यम से राज्य से गांजा,अफीम,चरस जैसे नशों को उड़ा रहे हैं।इसका विरोध करने वाले कह रहे हैं कि इससे राज्य की गरिमा,इज्जत और खुशहाली उड़ जाएगी।फिल्म बनाने वालों को यहाँ तक भरोसा है कि जैसे ही लोग उनकी यह फिल्म देखेंगे,उनका देखने तक का नशा काफूर हो जाएगा।निर्देशक का कहना है कि फिल्म की खासियत है कि इसमें ईमानदारी कूट-कूटकर भरी है।इसका सबूत तब और मिला जब ‘ईमानदार पाल्टी’ ने विवादित गुब्बारे में हवा भरनी शुरू कर दी।अब यह हवा फिल्म को हिट करती है या चुनाव को,समय बताएगा।



फ़िलहाल,हवा में विवाद उड़ रहा है।बोर्ड अध्यक्ष का कहना है कि फिल्म निर्देशक अफवाह उड़ा रहे हैं।इस सबसे यह तो जाहिर है कि इसमें ‘उड़ता’ शब्द को कोई नहीं उड़ाना चाहता।अब या तो ‘पंजाब’ उड़े या बोर्ड की कैंची,इसमें एक का उड़ना तय है।

बुधवार, 8 जून 2016

मुक्ति-पथ पर हम !

हम सभी की चाह अंततः मुक्ति पाने की होती है।हर समय हम किसी न किसी से मुक्ति की चाह रखते हैं।हमारी इस बुनियादी ज़रूरत को केवल सरकार समझती है।अपनी इसी दूरदर्शिता के चलते वह मुक्ति-मार्ग पर चल पड़ी है।दूसरी सरकारें जहाँ जनता का इहलोक सुधारने का टेंडर उठाती थीं,इसने परलोक को भी अपने हाथ में ले लिया है।यह काम पहले जिनके ‘हाथ’ में था,वे स्वयं मुक्त हो चुके हैं.जनता अब भी  छटपटा रही है.सरकार इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती.इसलिए वह बार-बार मुक्ति के गीत गा रही है.

मुक्ति पाने के लिए अब किसी साधक को घनघोर तपस्या या हठयोग करने की ज़रूरत नहीं है।सीधा-सा फंडा है-मुक्त-भाव से जीवनपर्यन्त ऐश और आखिर में गंगाजल की दो बूँदें।इससे दालरोटी के शाश्वत चिन्तन से भी मुक्ति मिलती है और मोक्ष का द्वार खुलता है सो अलग।जिनको ऐसा तिलस्मी फंडा नहीं मिलता,उन्हीं के गले फंदे संग मोहब्बत कर बैठते हैं और निर्वाण को प्राप्त होते हैं.

 सरकार इस दिशा में लगातार काम कर रही है।उसकी कोशिश कई तरह के कर ईजाद कर चीजों को मूल्य-मुक्त करने की है।इस तरह वस्तु का वास्तविक मूल्य उसमें लगे कर से स्वतः कम हो जाएगा।लोगों को चीजें तो मुफ़्त मिलेंगी पर उन्हें इसके लिए सरकार को ‘सेवाकर' चुकता करना होगा।आखिर जितनी ज्यादा सेवा,उतना ज़्यादा सेवाकर।अब तो यह सब मानते हैं कि यह सरकार उसकी अधिकतम सेवा कर रही है। अख़बार ,टेलीविजन और रेडियो भी यही बता रहे हैं।इतनी व्यस्तता के बीच भी सरकार का ध्यान ‘कर- मुक्त' भारत पर है।यह परियोजना सीध-सीधे चुनावी-जंग से जुड़ी हुई है।अभी हाल ही में कई राज्य ‘करमुक्त’ हुए भी हैं।मुक्त होने वाले इसमें सरकार का हाथ मानते हैं ।विपक्ष को लगता है कि दरअसल सरकार का उद्देश्य पूरी तरह विपक्ष-मुक्त हो जाना है।यह निर्वाण की राह नहीं उनके नाश की साज़िश है।गंगाजल को घर-घर पहुँचाना इसी रणनीति का हिस्सा  है।यह धरती अगर पापमुक्त हो गई तो कोई चुनाव कैसे जीता जाएगा?

तुलसी बाबा बहुत पहले मुक्ति पाने की तरकीब बता गए हैं।उनका कहना था कि मुक्ति चार प्रकार से मिल सकती है;’दरस,परस,मज्जन अरु पाना’।अर्थात दर्शन करने,छूने,नहाने और पीने से।सरकार ने इन सभी विकल्पों को हमारे लिए उपलब्ध कर रखा है।जिसे मंहगी दाल से मुक्ति पानी है तो बस एक नजर उसे देख भर ले।सूखे इलाकों में जिन्हें पानी नहीं मिल रहा,वे नल की टोंटियों को छू भर लें।इससे उनकी प्यास छू हो जाएगी और जल को ढोकर लाने से मुक्ति भी मिलेगी।नहाने से मुक्ति यूँ ही मिल जाएगी,जब बूँद भर पानी ही नहीं होगा।आखिरी और इन सबसे बढ़िया उपाय पीकर मुक्ति पाना है।जो लोग समर्थ हैं,वे आलरेडी ‘पी’ रहे हैं।बाकियों के लिए सरकार ने डाकिए का इंतजाम कर दिया है।यह मुक्ति का सबसे सरल मार्ग है।बस एक एसएमएस भेजिए और मुक्ति-प्रदायिनी गंगा आपको सभी भौतिक दुखों से मुक्त कर देंगी।

सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में भी मुक्ति-राह खोल दी है।कई महापुरुष जो आज़ादी के बाद से किताबों में बंद पड़े छटपटा रहे थे,उसने उन्हें हटाकर मुक्त कर दिया है।इससे वे तो मुक्त हुए ही हैं,पढ़ने वाले भी हो गए।आखिर हमारे शास्त्रों में कहा ही गया है,’सा विद्या या विमुक्तये’ ,अर्थात विद्या वही जो मुक्ति प्रदान करे;ज्ञान से,डिग्री से और तर्क से।सो देश राह बदल रहा है,आगे बढ़ रहा है।


शुक्रवार, 3 जून 2016

बेक़रार करके हमें यूँ न जाइए !

सुनते हैं कि सरकार ने कई करार रद्द कर दिए हैं।ऐसा इसलिए किया गया है ताकि होने वाले घपले-घोटाले जहाँ हैं,वहीँ ठिठक जाएँ।घपला असरकारी तभी होता है जब करार सरकारी हो।बिना करार के घपला भी भाव नहीं देता।या यूँ कहिए कि सारी रार ही करार के लिए होती है।ऐसे में एकदम से बेक़रार हो जाना घपले से करार तोड़ना है।यह प्राकृतिक न्याय नहीं है।सरकार तो अपनी पैदाइश से ही करार से बंधी होती है।जनता और सरकार के बीच हर पाँच साल में एक करार होता है।जिसके पास करारों की सबसे बड़ी पोटली होती है,उसी की सरकार बनती है।करारों को निभाने के लिए ही इस पोटली में घपलों-घोटालों को जन्म लेना पड़ता है।यह सब 'संभवामि युगे युगे' की गौरवशाली परम्परा के ही अनुपालन में होता है।

करार की ज़मीन तैयार तभी होती है जब घपले का उन्नत बीज हाथ लगता है।ऐसे में करार को खत्म करना घोटाले की भ्रूण-हत्या करनी है।सरकार का यह कदम घोटालेबाजों को अल्पसंख्यक बना देने व उसे हतोत्साहित करने जैसा है।यह करार की मुख्य भावना के साथ खिलवाड़ है।इस तरह की एकतरफ़ा कार्रवाई से जनता अचानक बेक़रार हो सकती है,साथ ही विकास-प्रिय घोटालों के बजाय मुसीबत पैदा होने की आशंका बढ़ सकती है।



करार को लेकर हम भारतीय बड़े संवेदनशील होते हैं।सरकार हमसे किए करार भले भूल जाय पर हम अपने छोटे-मोटे करार दिल से लगा लेते हैं।कोई उन्हें पूरा करने के लिए तो कोई तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध होता है।करार तोड़ने पर जहाँ हम सरकार को पलटकर उससे इसका बदला ले लेते हैं,वहीं प्रेम का करार टूटने पर करुण-पुकार कर उठते हैं,'बेक़रार करके हमें यूँ न जाइए,आपको हमारी कसम लौट आइए'।सरकार तो करार टूटने पर घपलों-घोटालों का आह्वान भी नहीं कर सकती क्योंकि घपले अंधे-बहरे होते हैं।वे तो बस करार होते ही बाय-डिफ़ॉल्ट उसके साथ चले आते हैं।वे किसी कसम से बंधे कच्चे रिश्ते भी नहीं होते ,जो जरा सा हाथ झटक लेने पर टूट जाते हों। उनको इस बात का पूरा करार है कि वे हमारी तरह कभी बेकरार नही हो सकते।

शुक्रवार, 27 मई 2016

उपलब्धियों का आतंक

दो साल पूरे हो गए हैं।विज्ञापनों में विकास और दरबार में फूल बरस रहे हैं।जनता के सेवक जनता की खातिर तपती गर्मी में दुशाले ओढ़ रहे हैं।यह सब इसलिए हो रहा है कि जितनी उम्मीद थी,उससे ज्यादा हुआ है।विरोधी तो विरोधी जनता का भी मुँह बंद हो गया है।मुँह केवल सरकार का खुला हुआ है जो गैर-इरादतन चुनाव से पहले खुल गया था।सरकार बड़ी कारसाज है।रेडियो,टीवी,अख़बार वह सब जगह दिख रही है ताकि जनता को शिकायत न रहे कि वह केवल चुनावों के समय ही दिखती है।मंहगाई,भ्रष्टाचार और कालेधन के लिए कहीं जगह नहीं बची है।सारा ‘स्पेस’ उपलब्धियों ने ले लिया है।‘दो साल-बेमिसाल’ की चपेट में कई चीजें आ गई हैं। जो प्याज पहले हमें रुला रहा था,अब स्वयं खून के आँसू बहा रहा है।आम जनता को रुलाने वाली दाल आज तिरस्कृत-सी पड़ी है।उसे कोई भर-नज़र भी नहीं देख पा रहा।लोग खाना और खरीदना दोनों भूल गए हैं।इससे भारी बचत हो रही है।रेलयात्रा का लेवल तत्काल-प्रभाव से ऊँचा हो गया है।इस वजह से ‘कैटल-क्लास’ को नियंत्रित करने में आसानी हुई है।ट्रेनें विलम्बित सुर में चल रही हैं,ताकि यात्री सफ़र का अधिकतम आनन्द ले सकें।
राजधानी में इस ‘दो-साला’ उपलब्धि पर राज-महोत्सव हो रहा है।देश के बाकी हिस्से भी सूखे की तरह इससे वंचित न रहें,इसके लिए चप्पे-चप्पे पर उत्सव-दल गठित कर दिए गए हैं।मंत्री और अफसर जनता के द्वार पर जाकर नगाड़ा बजा रहे हैं ताकि बहरे और अंधे लोग भी विकास की बहती गंगा में डूबने का अहसास कर सकें।सरकार के लिए जनता एक अच्छे ग्राहक की तरह है।अगर वह हो रहे विकास से अचेत है तो उसे सचेत करने का काम सरकार का ही है।इसीलिए ‘जागो ग्राहक जागो’ की तर्ज पर सरकार विकास की विज्ञापनबाजी कर रही है।
‘अबकी बार’ के दम पर आई सरकार ने अबकी बार विज्ञापन भी आदमकद कर दिए हैं।पूरा विकास दिखने के लिए यह ज़रूरी है कि सूरत पूरी दिखे।'अबकी बार’ के इतने सीक्वल बने हैं कि अख़बार का पन्ना अकिंचन-सा महसूस कर रहा है।बदलाव की बयार आने के बाद से ही यह जानने में सुभीता हुआ कि हमने अपने अगल-बगल कितने देशद्रोही पाले हुए हैं ! यह सबसे बड़ी उपलब्धि है।अब सरकार को केवल एक मिसकॉल देने की ज़रूरत है।वह अपनी कुशल-क्षेम हमें बताती रहेगी ताकि टीवी और अख़बारों में उसकी उपलब्धियों को देखकर हम आतंकित न हों।

शनिवार, 21 मई 2016

रामराज में चिंतन !

मंत्री जी ने सचिव को तलब किया।वे देश के मौजूदा हालात की समीक्षा करने के लिए बड़ी देर से बेचैन थे।सचिव ने मंत्री जी के सामने साप्ताहिक रिपोर्ट पेश की।बात कोई ख़ास नहीं थी।ले-देकर देश में कुछ समस्याएं ही बची थीं,जो माननीय मंत्री जी से बार-बार भेंट करना चाहती थीं।मंत्री जी भी अपने दायित्वों को भलीभांति समझ रहे थे।ऐसा भी नहीं कि वे किसी समस्या को नज़रन्दाज़ करते हों,इसीलिए इतनी भीषण गर्मी को अपने केबिन में अठारह डिग्री तक उतार लाए थे। मंत्री जी सामने धरी फाइलों पर अपनी कृपाफुहार डालने लगे।वे ठंडे शरीर और ठंडे दिमाग से अकाल और अराजकता पर एक साथ  चिंतन कर सकते थे।सामने खड़े सचिव से उन्होंने जवाब माँगा,‘सूखे का क्या स्कोर है फ़िलहाल ?’’

सचिव साहब अचानक सकपका गए।उनको लगा कि मंत्री जी किसी आईपीएल मैच की खुमारी में हैं।अनजान बनते हुए निवेदन करने लगे, ‘सर,सूखे के स्कोर से आपका तात्पर्य मेरी अल्पमति में नहीं चढ़ पा रहा है।कृपा करके तनिक खुलासा करें ताकि इस पर त्वरित कार्यवाही की जा सके।’ मंत्री जी सचिव की बुद्धि पर तरस खाते हुए बोले-‘मिस्टर गुप्ता,आप केवल यह बताएँ कि सूखे से पिछले सप्ताह कितने किसान देह त्यागकर हमारे राज्य से मुक्ति पा चुके हैं ? कम से कम हमें उनका शोक मनाने से तो वंचित मत करिए ।इससे हमें आपदा-कोष की सार्थकता सिद्ध करने का अवसर प्राप्त होगा और राहत-राशि भी अनाथ नहीं रहेगी !’

सचिव ने फाइल पर लिखी हुई संख्या मंत्री जी के आगे सरका दी।मंत्री जी उस पर नोट लिखने लगे-‘पिछले दिनों पानी के लिए भेजे टैंकर रुपयों से लबालब पाए गए।इससे पता चलता है कि लोगों को पानी के बजाय पैसे की अधिक तलब है।नदी-नाले भी विकास की दौड़ में हमारी बराबरी पर उतर आए हैं।उनमें भी पानी खत्म हो गया है,केवल कीचड़ बचा है।इस कारण सूखे से निपटने में भारी अड़चनें आ रही हैं।हमें और गहरे गड्ढे खोदने होंगे।किसानों की आत्महत्या पर हम बराबर चिंतित हैं।इससे हमारे वोट लगातार घट रहे हैं।बहरहाल,अकाल की मुख्य वजह यह कि डिग्री दिखाने के मौसम में सूर्यदेव भी पीछे नहीं रहना चाहते हैं।इससे निपटने के लिए हम जल्द ही सूर्य-नमस्कार अभियान में और तेजी लाएँगे।’

मंत्री जी ने यह फाइल सचिव की ओर बढ़ा दी और अगली समस्या को दूसरी फाइल में ढूँढने लगे।सचिव ने मौक़ा देखकर मंत्री जी की मदद की, ‘सर इस बार हमारे ऊपर जंगलराज का आरोप नए तरीके से लगा है।इसको काउंटर करना बहुत ज़रूरी है नहीं तो आने वाले चुनावों में हमारी संभावनाएं कम हो सकती हैं।’ मंत्री जी ऐनक साफ़ करते हुए बोले, ‘आप बिलकुल भोले हैं गुप्ता जी ! जानते भी हैं कि जंगलराज क्या होता है ? वहाँ न गगनचुम्बी इमारतें होती हैं और न ही वातानुकूलित कक्ष।जंगलराज में कोई अपराधी नहीं माना जाता,हम तो बकायदा मान रहे हैं।न कोई धरना,न प्रदर्शन।वहाँ न कोई सुनवाई होती है न समीक्षा।जबकि यहाँ हम हर हफ्ते सूखे और जंगलराज पर एक साथ चिन्तन कर रहे हैं।इस लिहाज से हम पूर्ण रामराज की ओर बढ़ रहे हैं।' ऐसा कहकर मंत्री जी जंगलराज वाली फाइल पर नोटिंग करने लगे-‘अपराधियों को हम छोड़ेंगे नहीं।कानून और व्यवस्था की हम लगातार समीक्षा करते रहेंगे।इस मुद्दे पर कानून अपना काम करेगा।हम कानून अपने हाथ में नहीं लेंगे।’

मंगलवार, 10 मई 2016

छोटे आदमी का ओवरटेक करना !

छोटी कार ने बड़ी कार को ओवरटेक किया,इससे बड़ी वाली बुरा मान गई।छोटी कार में छोटा आदमी था,बड़ी कार में बड़ा।कार बड़ी होती है तो सरकार बन जाती है,यह छोटी को नहीं पता था।छोटा आदमी जल्दी बुरा मानता नहीं।कभी मान गया तो जल्द मान भी जाता है।बड़े आदमी का बुरा मानना ठीक नहीं।उसे इसकी आदत नहीं होती।सड़क पर तो उसकी कार भी बुरा मान जाती है।

बड़े आदमी को अपनी बड़ी कार की इज्जत बचाने के लिए सड़क पर मजबूरन उतरना पड़ता है।वह छोटी कार वाले की जान लेता है।उसके पास देने के लिए गालियाँ और लेने के लिए जान होती है।यह सुविधा उसको इस व्यवस्था से मिली हुई है।वह क्या करे ? वह यही कर सकता है।

बड़े आदमी की खुली पहचान होती है।उसे किसी आई-कार्ड की ज़रूरत नहीं होती।उसकी हनक हमेशा उसके साथ चलती है।जिसने उसकी हनक के साथ छेड़छाड़ की,ऐसे ही मारा जाएगा।उसे सड़क भी पहचानती है और सरकार भी।फुटपाथ पर सोने वाले इसीलिए रौंदे जाते हैं।छोटे लोग सौन्दर्य-विरोधी हैं।गति और प्रगति के दुश्मन हैं।सोचिए,ऐसे लोग फुटपाथ पर रुकावट न डालें और छोटी कारें ओवरटेक न करें तो बड़ा आदमी बड़ी सड़क से बड़ी गाड़ी को सम्मानजनक गति से ले जा सकता है।

यह विकास की तेजी का समय है।वह कहीं चढ़ रहा है,कहीं बढ़ रहा है।छोटे आदमी को इस सीन को दूर से देखना चाहिए।वह इसके बीच में घुसेगा तो नाहक मारा ही जाएगा।बड़ा आदमी हमेशा सीन में रहता है।भीड़ में होगा,तो भी फोकस उसी पर होता है।कभी ऐसा न हुआ तो कैमरेवाले का बलिदान निश्चित है।बड़ों के लिए छोटे हमेशा बलिदान देते रहे हैं।वे तो छोटे हैं ही,कितना बढ़ पायेंगे ? अच्छा है कि बड़ों के काम आएँ।इससे परमार्थ भी सधेगा और समाज में अशांति भी नहीं फैलेगी।यह बात हर छोटे आदमी को समझ आनी चाहिए।सरकार इसीलिए साक्षरता पर इतना जोर दे रही है।

हमें बड़ों के रास्ते पर चलने को यूँ ही नहीं कहा गया है।वे आगे चलें,हम उनके पीछे-पीछे।यही शाश्वत नियम है।हमने अपना रास्ता बनाने की भूल की,या उन्हें ओवरटेक किया तो हमारी ज़िन्दगी की फिल्म का वह आखिरी ‘टेक’ होगा।हम ‘सीन’ बनाने वाले हैं,’सीन’ में दिखने वाले नहीं।सरकार को चाहिए कि बड़ों के ‘हूटर’ वापिस कर दे,नहीं तो बेचारों को सड़क पर मजबूरन ‘शूटर’ बनना पड़ता है।




शुक्रवार, 6 मई 2016

उनका इस्तीफ़ा और हमारी मिट्टी पलीद होना !

उच्च सदन हतप्रभ है।देश का एक कोहिनूर बहुत पहले ही विलायत में स्थायी रूप से बस चुका है,दूसरा इस फ़िराक में है कि कहीं वह इसमें चूक न जाय।सदन को इस बात से ज्यादा हैरानी हुई है कि उसको समृद्ध और करने वाले ने उसको ही त्याग दिया है।सदन उच्च है तो नैतिकता के मापदंड भी आवश्यक रूप से उच्च हैं।उच्च सदनवासी होकर निम्न कर्म करना व्यवस्था का नहीं प्रतिष्ठा का प्रश्न है।उनका सदन-त्याग इसी बात को साबित करता है।उनके पास त्यागने की बकायदा एक लम्बी परम्परा है।सबसे पहले उन्होंने लोक-लाज त्यागी,फिर देश और अब उच्च आवास।ऐसे में हमारे बैंक हजारों करोड़ मुद्राओं का मोह क्यों नहीं त्याग देते ?रुपया वैसे भी हाथ का मैल होता है।वह बस मैल धो रहे हैं और हम अपने हाथ मल रहे हैं।इस तरह वे सफाई-अभियान के ब्रांड अम्बेसडर साबित हुए और हम महज मूकदर्शक।
अब उच्च सदन का क्या होगा ? होता तो उसमें वैसे भी कुछ नहीं,हो-हल्ले के सिवा।फिर भी,जाने-माने हाथियों(हस्तियों का समानार्थी नहीं) और शाहों(थैली वाले नहीं इससे चट्ट-बट्टे हो जाने की आशंका उत्पन्न होती है) से लैस इस सभा का ऐसे श्रीहीन हो जाना खलता है।यहाँ बहुमत किसी का भी हो,जीतता वही है,जिसके पास राग-दरबारी की जबरदस्त साधना हो।
माननीय ने बताया है कि वे सभा का परित्याग इसलिए कर रहे हैं ताकि उनकी मिट्टी और पलीद न हो।इस बात से हम कतई सहमत नहीं,ठीक वैसे ही जैसे उनके अन्य सुकर्मों से।ऐसी विभूति का महज दो लाइनों का रुक्का ही अथाह प्रतिभूति की गारंटी है।ऐसे प्रतिमाओं की मिट्टी सदा-सर्वदा के लिए पलीद-प्रूफ हो जाती है।फिर भी,कुचेष्टाओं पर किसी का वश नहीं होता।ऐसा होने पर इस्तीफ़े का कवच-कुंडल उनकी नाक बचाने के लिए पर्याप्त है।शायद इसीलिए ऐसे लोगों की नाक इतनी कमजोर और संवेदनशील नहीं होती।वे साधारण लोग होते हैं जो बात-बात होने पर छींकने लग जाते हैं।यही कारण है कि भद्रजन कड़कड़ाती ठंड में भी सर्दी-जुकाम से दूर रहते हैं और आमजन चुचुहाती गर्मीं में भी अपनी नाक पोंछने और संभालने में मशगूल रहते हैं।
अगर वाकई किसी की मिट्टी पलीद हुई है तो वह है हमारी।हमें हीरे की पहचान ही नहीं हैइसी भूल में हम पहले कोहिनूर को गिफ्ट में दे चुके हैं,अब वापस मांगकर आधिकारिक रूप से अपनी मिट्टी पलीद करवा रहे हैं।हम कितने बदनसीब निकले कि हमारे हाथ से यह वाला जीता-जागता कोहिनूर भी निकल लिया।उसने तो हमारे सामने इस्तीफा फेंककर अपनी मिट्टी पलीद होने से बचा ली,पर हमारे पास क्या है बचाने को ? सिवाय सीलनयुक्त दीवारों पर टंगे नंगी टांगों वाले पुराने कलेंडर के !
हम केवल अपने नंगे बदन को ढांप लें तो अपनी मिट्टी पलीद होने से बचा सकते हैं।ऊंचे आसनों पर बैठने वाले किसी भी तरह की नंगई से परे होते हैं।ख़ास बात यह कि उनकी केवल गर्दनें गिनी जाती हैं,टांगें नहीं।


संतोष त्रिवेदी

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

सेल्फ़ी विद सूखा

सूखा चर्चा में है।ज़मीन पर भी इसका असर दिख रहा है और आँखों पर भी।सूखा किसी के प्राण हरता है तो किसी की इमेज भी बनाता है।सूखा मौक़ा है,उपलब्धि भी।किसान के लिए सूखा अभिशाप है तो नेताजी के लिए वरदान।सुख से वंचित होने और सुख को पाने का संयोग सूखा ही देता है।यह उसकी किस्मत है कि वह सूखे से क्या ले पाता है !
नेताजी सूखे के दौरे पर गए।अधिकारियों ने आश्वस्त किया कि ज़नाब अबकी बार वाला सूखा भयंकर है।भूकम्प नापने वाले रिक्टर पैमाने की मदद ली जाए तो इसकी भयावहता मापी जा सकती है।बिना आधिकारिक माप के समस्या में वजनता नहीं आती।काम को प्राथमिकता इसी वजन से मिलती है।नेताजी इसी उम्मीद से दौरे पर थे।पर यह क्या ! भीषण सूखे के बीच पानी का एक पोखर कैसे मिल गया !यह तो भविष्य की योजनाओं पर पानी फेरने वाली घटना हो गई।
नेताजी ने फिर भी आस नहीं छोड़ी।उन्हें अपने नायक का चेहरा याद आ गया।झट से फोन निकाला और सूखे के बैकग्राउंड में अपने चेहरे को चस्पाकर चमकदार सेल्फ़ी खींच ली।उनकी आँखों की कोरों में जमा पानी उसी पोखर वाले पानी में मिल गया।अब सीन ज़ोरदार था।नेता था,पानी था और इन सबको निहारता असहाय सूखा।
नेताजी ने फ़टाक से 'सेल्फ़ी विद सूखा' प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया।सोशल मीडिया नेताजी के इस सुकर्म-प्रवाह से पानी-पानी हो गया।बाढ़ आ गई।इस तरह सूखे के निपटान की प्रारम्भिक तैयारी हुई।अफ़सर खुश।सरकार खुश।और जनता,वह तो चुनाव के बाद से ही खुश है।
कुछ लोग सूखे को भूखे के साथ जोड़ने पर आमादा हैं।उन्हें समझ नहीं कि सूखे का सामना करना कविताई तुकबन्दी नहीं है।सूखा और भूखा सुनने में एक जैसे भले लगते हैं पर महसूसते अलग-अलग हैं।असली भूखे तो उसके इंतज़ार में ही रहते हैं।नकली भूखे सूखा आते ही निकल लेते हैं।उनको सद्गति मिलती है और इनको अद्भुत छवि।
भूखे और कमज़ोर लोग किसी समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं।सरकार का फ़ोकस 'मेक इन इंडिया' पर है।उसमें जगह-जगह से पिचके और दरिद्र-छवि वाले पुतलों की ज़रूरत नहीं है।इससे देश की ग्लोबल इमेज और विदेशी निवेश को धक्का पहुँच सकता है।कम से कम हमारी सरकार इतनी सचेत तो है।
देश में पानी की कमी का रोना रोने वालों को पानी वाली सेल्फ़ी देखनी चाहिए।इससे भी हमारे रहनुमाओं पर भरोसा न हो तो वे दृश्य देखें,जब मंत्री जी के आगमन पर हेलीपैड या कई किलोमीटर दूर सड़क को पानी-पानी किया जाता है।और कुछ न हो तो टीवी खोलकर आईपीएल का अभिजात्य खेल ही देख लें,जिसमें पिच को तरबतर किया जाता है।
नेताजी,मंत्रीजी सब लोग सूखे को लेकर चिंतित हैं।जल्द ही 'सेल्फ़ी विद पानी' की छवि देश के सामने होगी, जिससे हमें उनकी आँखों में पानी होने की गवाही मिल जाएगी।भीषण सूखे में इतना पानी तो बचा ही है !

अनुभवी अंतरात्मा का रहस्योद्घाटन

एक बड़े मैदान में बड़ा - सा तंबू तना था।लोग क़तार लगाए खड़े थे।कुछ बड़ा हो रहा है , यह सोचकर हमने तंबू में घुसने की को...