सुनते हैं कि सरकार ने कई करार रद्द कर दिए हैं।ऐसा इसलिए किया गया है ताकि होने वाले घपले-घोटाले जहाँ हैं,वहीँ ठिठक जाएँ।घपला असरकारी तभी होता है जब करार सरकारी हो।बिना करार के घपला भी भाव नहीं देता।या यूँ कहिए कि सारी रार ही करार के लिए होती है।ऐसे में एकदम से बेक़रार हो जाना घपले से करार तोड़ना है।यह प्राकृतिक न्याय नहीं है।सरकार तो अपनी पैदाइश से ही करार से बंधी होती है।जनता और सरकार के बीच हर पाँच साल में एक करार होता है।जिसके पास करारों की सबसे बड़ी पोटली होती है,उसी की सरकार बनती है।करारों को निभाने के लिए ही इस पोटली में घपलों-घोटालों को जन्म लेना पड़ता है।यह सब 'संभवामि युगे युगे' की गौरवशाली परम्परा के ही अनुपालन में होता है।
करार की ज़मीन तैयार तभी होती है जब घपले का उन्नत बीज हाथ लगता है।ऐसे में करार को खत्म करना घोटाले की भ्रूण-हत्या करनी है।सरकार का यह कदम घोटालेबाजों को अल्पसंख्यक बना देने व उसे हतोत्साहित करने जैसा है।यह करार की मुख्य भावना के साथ खिलवाड़ है।इस तरह की एकतरफ़ा कार्रवाई से जनता अचानक बेक़रार हो सकती है,साथ ही विकास-प्रिय घोटालों के बजाय मुसीबत पैदा होने की आशंका बढ़ सकती है।
करार को लेकर हम भारतीय बड़े संवेदनशील होते हैं।सरकार हमसे किए करार भले भूल जाय पर हम अपने छोटे-मोटे करार दिल से लगा लेते हैं।कोई उन्हें पूरा करने के लिए तो कोई तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध होता है।करार तोड़ने पर जहाँ हम सरकार को पलटकर उससे इसका बदला ले लेते हैं,वहीं प्रेम का करार टूटने पर करुण-पुकार कर उठते हैं,'बेक़रार करके हमें यूँ न जाइए,आपको हमारी कसम लौट आइए'।सरकार तो करार टूटने पर घपलों-घोटालों का आह्वान भी नहीं कर सकती क्योंकि घपले अंधे-बहरे होते हैं।वे तो बस करार होते ही बाय-डिफ़ॉल्ट उसके साथ चले आते हैं।वे किसी कसम से बंधे कच्चे रिश्ते भी नहीं होते ,जो जरा सा हाथ झटक लेने पर टूट जाते हों। उनको इस बात का पूरा करार है कि वे हमारी तरह कभी बेकरार नही हो सकते।
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