रविवार, 2 जुलाई 2023

टमाटर ख़रीदने के साइड-इफ़ेक्ट

पिछले कई दिनों से मैं गाँव में था।गर्मी की छुट्टियों में आम और जामुन के खूब मज़े ले रहा था।इस दौरान देस-दुनिया से बेख़बर-सा रहा।दो दिन पहले राजधानी लौटा तो ऐसा लगा कि धूप और घाम से झुलसी चमड़ी नक़ली रोशनी और एसी की ठंडी हवा पाकर खिल उठी हो।ऐसे स्वर्गिक-अनुभव में चार-चाँद लगाने के लिए मैं इंटरनेट-मीडिया में घुसने वाला ही था कि श्रीमती जी ने हाथ में थैला थमा दिया।जाओ पहले बाज़ार से सब्ज़ी ले आओ।किचन में कुछ बचा नहीं है।मैंने बचने की असफल कोशिश की, ‘लेकिन सब्ज़ी तो घर बैठे ऑनलाइन भी मँगाई जा सकती है।’ ‘ हाँ, पर सब्ज़ी देखकर लानी है।इस मौसम में सड़ी-गली सब्ज़ी ज़्यादा आती है।तुम्हारे गाँव से लौटने का मैं इंतज़ार ही कर रही थी।’ श्रीमती जी के कठिन संकल्प के आगे मैंने समर्पण कर दिया।घर के बाहर मेरा कितना भी ख़ास रुतबा हो, पर घर में शुद्ध रूप से आम आदमी ही हूँ।इसलिए चुपचाप झोला उठाकर चल दिया।

ख़रीदारी करने का अपना एक उसूल है।मैं ज़्यादा ‘लोड’ नहीं लेता।रुपयों के बजाय किलो में ख़रीदता हूँ।हाँ,जब श्रीमती जी के साथ होता हूँ,अपने उसूल ताक पर रख देता हूँ।दुकानदार से भाव-ताव वही कर लेती हैं।फिर घर आकर जोड़ती हैं कि उन्होंने आज कितने रुपए की बचत की।मोल-तोल करने की मेरी आदत कभी रही नहीं।जिसे मैं अपनी उदारता समझता हूँ,श्रीमती जी उसे बेवक़ूफ़ी कहती हैं।ये सब्ज़ी वाले बड़े शातिर होते हैं।एक का दो बताते हैं और ख़राब सब्ज़ी भी टिका देते हैं।उनके ये सूत्र वाक्य मेरे कानों में गूँजते तो हैं पर बाज़ार जाते ही हवा हो जाते हैं।बहरहाल,मैं तपती गर्मी में सब्ज़ी-मंडी तक सुरक्षित पहुँच गया।मेरे उसूल भी नहीं मुरझाए।मैंने ख़रीदारी में दस मिनट लगाए होंगे।दो किलो आलू,आधा किलो भिंडी,पाव भर अदरक और दो किलो लाल टमाटर झोले में डलवा लिए।मोलभाव किए बिना सब्ज़ीवाले से पैसे पूछकर भुगतान कर दिया।उसने भी हमारी उदारता का उधार नहीं रखा।थोड़ी-सी धनिया और हरी मिर्च मेरे झोले में छिड़क दी।मैंने उसे शुक्रिया कहा और झोला लेकर घर की ओर चल पड़ा।


अभी कुछ ही दूर चला होऊँगा कि मुझे लगा कि कुछ लोग मेरा पीछा कर रहे थे।वे कुल तीन थे।मुझे गले में पड़ी अपनी चेन की चिंता होने लगी।कुछ दिन पहले ही विभाग से मुझे एरियर मिला था,उसी से पीली धातु की भारी चेन बनवाई थी।अब उसी पर भारी संकट था।मैंने अपनी चाल बढ़ाई पर पीछा करने वाले मुझसे तेज निकले।पल भर में तीनों बिलकुल मेरे सामने थे।मैंने एक हाथ से अपना गला पकड़ा और दूसरे से झोला।वे मुझे छोड़कर झोले की ओर बढ़े।एक ने मेरे मासूम झोले को हाथ लगा दिया।मैंने बचने का प्रयास किया।इस क्रम में झोला एक तरफ़ गिरा और मैं दूसरी तरफ़।वे लुटेरे थे पर ज़ालिम नहीं।उन्होंने मुझ पर रहम किया और झोले की ख़बर लेने लगे।अब मुझे सीबीआई और इनकम टैक्स वालों की याद सताने लगी।इसके बाद मैं अचेत हो गया।


जब मुझे होश आया,सबसे पहले मेरा हाथ चेन पर गया।सुरक्षित पाकर राहत की साँस ली।तभी पास खड़े पड़ोसी पांडेय जी दिखे।बड़े चिंतित लग रहे थे।मैंने उन्हें इशारे से बताया कि सब ठीक है।वह बोल पड़े, ‘आपको अंदाज़ा भी नहीं है कि आप बुरी तरह लुट चुके हैं।आपके झोले से टमाटर ग़ायब हैं।यह तो अच्छा हुआ कि मैं आ गया।मैंने अचरज से उन्हें देखा।ये कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं ? टमाटरों के लुटने से मैं बर्बाद कैसे हो गया! यह सोच ही रहा था कि पुलिस पहुँच गई।उसकी गिरफ़्त में दो आदमी थे।तीसरा टमाटरों के साथ फ़रार था।


पुलिस ने एक आक्रमणकारी से पूछा, ‘तूने ऐसा दुस्साहस क्यों किया ?’ उसने बेख़ौफ़ उत्तर दिया, ‘साहब,दुस्साहस हमने नहीं इन्होंने किया है।बाज़ार से दो किलो टमाटर ख़रीदते हम लोगों ने इन्हें देख लिया था।जिस वक़्त टमाटर की ओर निहारना तक हराम है,यह आदमी उन्हें रसोई में ले जाने की हिमाक़त कर रहा था।ज़रूर यह सरकारी आदमी है।आप हमें नहीं इन्हें गिरफ़्तार करें।’ अभी भी मैं पूरा माज़रा समझ नहीं पाया था।मैंने पांडेय जी की ओर सवालिया निगाहों से देखा तो वह फट पड़े, ‘अव्वल तो आपको गाँव से आने की क्या जल्दी थी ? आ ही गए थे तो बाज़ार क्यों गए थे ? और अगर गए भी थे तो टमाटर क्यों लाए ? तुम्हें पता भी है इसका भाव ?’ मैंने गर्दन हिलाकर मना किया।कहने को तो मैं मुँह से भी बोल सकता था पर तब सोने की चेन की क्या उपयोगिता रहती ! पांडेय जी ने मेरे गले पर दृष्टिपात किया फिर विनम्र होते हुए बोले, ‘भई टमाटर इस समय सेंचुरी मार चुका है और अभी भी नॉट-आउट है।आप जैसों की फ़ील्डिंग ऐसी ही रही तो कई रिकॉर्ड टूटेंगे।सरकार तक ख़तरे में पड़ सकती है।’ ‘वह कैसे भला ?’ मैंने मासूमियत का चोला ओढ़ लिया। ‘टमाटर खाते हो, पर इसके साइड इफ़ेक्ट नहीं पता।कुछ समय पहले प्याज़ ने सरकार बदल दी थी।ये तो टमाटर हैं।इनका दुष्प्रभाव और अधिक हो सकता है।ये चाहें तो पल भर में जमे-जमाए कवि को मंच में ही बिखेर दें।नेताओं की सफ़ेदी लाल कर दें।’ पांडेय जी एक साँस में बोल गए।


अब मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ।मेरे एक ग़लत फ़ैसले से मेरी जान पर बन आई थी।सरकार तक गिर सकती थी।तभी श्रीमती जी का फ़ोन आ गया, ‘अजी कहाँ रह गए ? बच्चे बड़ी देर से चटनी खाने का इंतज़ार कर रहे हैं !’ मैं फिर से बेहोश हो गया।


संतोष त्रिवेदी 

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