पूरा राज्य जलमग्न था।जनता घोर कष्ट में थी।उसके दुःख देखने के लिए वे बेचैन हो रहे थे।दुःख तभी समझ में सही आता है,जब दिखाई दे,आर्तनाद करे।राज्य के मुखिया के नाते वे आधिकारिक रूप से इसे देखने के हकदार थे।इसके साक्षी बनने के लिए वे निकल पड़े।जनता के दुःख ठीक प्रकार से दिखाई दें,इसके लिए पहले वे हवा में उड़े।ऊपर से जल और जमीन एक-सी लग रही थी।मैदान उजले और झक सफ़ेद थे।चारों तरफ पूर्ण शान्ति पसरी हुई थी।वे दुःख देखने के लिए अवतरित हुए थे,पर यहाँ तो दूर-दूर तक उन्हें निर्जन दिखा।न कोई कोलाहल,न चिल्ल-पों।यह भी कोई ‘एडवेंचर’ हुआ ?
उन्होंने तत्काल साहसिक निर्णय लिया।ज़मीन पर उतर आए।न,न कहने का मतलब उन्होंने विमान त्याग दिया।अब सामने जल था,वे थे और उनका समर्पित दल।जनता कहाँ-कहाँ तक जल में समाई है,वे निकट से देखना चाहते थे।पर समस्या इससे भी विकट थी।वे अभी तक बेदाग़ और उजले थे।यहाँ तक कि उनके जूते भी उनकी सफेदी की गवाही दे रहे थे।आज उन्हीं पर संकट था।जल-स्तर तीस सेंटीमीटर के खतरनाक लेवल यानी घुटनों तक पहुँच चुका था।वे घुटनों पर कोई संकट नहीं चाहते थे।वे राजा थे,प्रजा नहीं,जो गले तक भी पानी भर आने पर खुद को सहज महसूस करती है।इस विकट परिस्थिति में भी उन्होंने हार नहीं मानी।आख़िरकार पानी से रार ठान दी।
हर मौके पर सुस्त रहने वाला राज्य-बल तुरंत सक्रिय हो गया।राज्य की व्यवस्था खतरे में थी।उसे अगल-बगल से टांग लिया गया।कुछ लोग तो उसे कंधे पर भी बिठाना चाहते थे पर तब जनता के दुःख से वह साठ सेंटीमीटर और दूर हो जाती।वे व्यवस्था की साक्षात् मूर्ति बन गए।जल के बीचोबीच वे जनता के दुःख देखने लगे।कुछ जासूसी आँखें भी उन्हें देख रही थीं।आखिरकार कड़ी मशक्कत के बाद दुःख को कैमरे में क़ैद कर लिया गया।राज्य के बाढ़-पीड़ित मुखिया को उसकी झक-सफेदी के साथ धरा पर सुरक्षित धरा गया।
दुःख का आकलन हो चुका था।जायजा भलीभांति हुआ था ताकि सबको उचित मुआवजा मिल सके।मुआवजे का बजट बढ़ा दिया गया।बाढ़ में फँसे लोग अभी इतना गिरे नहीं थे कि राज्य-कोष के बदले जयघोष न उच्चार सकें।हाहाकार के बीच जयकारा गूँज उठा।दुःख देखने का प्रयोजन सफल हुआ।
कुछ लोग इस ‘दुःख-दर्शन’ पर भी तिरछी नजर उठा रहे हैं।उनको ऐतराज है कि दुःख देखने के लिए दुःख समझना ज़रूरी है।उनका मानना है कि इसके लिए उनको पानी में उतरना चाहिए था।पर ये लोग यह भूल जाते हैं कि इससे उनका पजामा गीला हो जाता।तब बड़ा अनर्थ होता।वैसे भी दुःख-दर्द देखने के लिए थोड़ा फासला होना चाहिए।वे तो बस इसी आपदा से निपट रहे थे।
उन्होंने तत्काल साहसिक निर्णय लिया।ज़मीन पर उतर आए।न,न कहने का मतलब उन्होंने विमान त्याग दिया।अब सामने जल था,वे थे और उनका समर्पित दल।जनता कहाँ-कहाँ तक जल में समाई है,वे निकट से देखना चाहते थे।पर समस्या इससे भी विकट थी।वे अभी तक बेदाग़ और उजले थे।यहाँ तक कि उनके जूते भी उनकी सफेदी की गवाही दे रहे थे।आज उन्हीं पर संकट था।जल-स्तर तीस सेंटीमीटर के खतरनाक लेवल यानी घुटनों तक पहुँच चुका था।वे घुटनों पर कोई संकट नहीं चाहते थे।वे राजा थे,प्रजा नहीं,जो गले तक भी पानी भर आने पर खुद को सहज महसूस करती है।इस विकट परिस्थिति में भी उन्होंने हार नहीं मानी।आख़िरकार पानी से रार ठान दी।
हर मौके पर सुस्त रहने वाला राज्य-बल तुरंत सक्रिय हो गया।राज्य की व्यवस्था खतरे में थी।उसे अगल-बगल से टांग लिया गया।कुछ लोग तो उसे कंधे पर भी बिठाना चाहते थे पर तब जनता के दुःख से वह साठ सेंटीमीटर और दूर हो जाती।वे व्यवस्था की साक्षात् मूर्ति बन गए।जल के बीचोबीच वे जनता के दुःख देखने लगे।कुछ जासूसी आँखें भी उन्हें देख रही थीं।आखिरकार कड़ी मशक्कत के बाद दुःख को कैमरे में क़ैद कर लिया गया।राज्य के बाढ़-पीड़ित मुखिया को उसकी झक-सफेदी के साथ धरा पर सुरक्षित धरा गया।
दुःख का आकलन हो चुका था।जायजा भलीभांति हुआ था ताकि सबको उचित मुआवजा मिल सके।मुआवजे का बजट बढ़ा दिया गया।बाढ़ में फँसे लोग अभी इतना गिरे नहीं थे कि राज्य-कोष के बदले जयघोष न उच्चार सकें।हाहाकार के बीच जयकारा गूँज उठा।दुःख देखने का प्रयोजन सफल हुआ।
कुछ लोग इस ‘दुःख-दर्शन’ पर भी तिरछी नजर उठा रहे हैं।उनको ऐतराज है कि दुःख देखने के लिए दुःख समझना ज़रूरी है।उनका मानना है कि इसके लिए उनको पानी में उतरना चाहिए था।पर ये लोग यह भूल जाते हैं कि इससे उनका पजामा गीला हो जाता।तब बड़ा अनर्थ होता।वैसे भी दुःख-दर्द देखने के लिए थोड़ा फासला होना चाहिए।वे तो बस इसी आपदा से निपट रहे थे।
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