मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

समाजवाद की पारिवारिक फिल्म और जनता की मुश्किल !

निष्ठाएँ बेचैन हैं।वे दाएँ-बाएँ हिल रही हैं।उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा कि डूबती नाव में वे किस तरफ बैठें।एक तरफ़ तूफ़ानी हवाओं का जोर है तो दूसरी ओर बुजुर्ग लहरें पलटवार कर रही हैं।वफाएँ कदमबोसी करने पर आमादा हैं पर दुर्भाग्य से पैर पत्थर हो गए हैं।उनको उम्मीद है कि जब देवता पत्थर होकर पिघल सकते हैं तो गायत्री-जाप अकारथ नहीं जा सकता।इस बीच दीवाली से पहले ही पटाखे दगने शुरू हो चुके हैं।इस बात से दगा बहुत दुखी है और उसने एकदम से ख़ामोशी ओढ़ ली है।

जो समाजवाद अभी तक गाँव-गाँव,शहर-शहर में पसरा हुआ था,अब अपने कुनबे में भी फ़ैल चुका है।हल्ला-बोल का वास्तविक परीक्षण तो अब शुरू हुआ है।भाई-भाई,बाप-बेटा, चाचा-भतीजा,बाहरी-अंदरूनी हर टाइप का समाजवादी-दर्शन जनता के सामने आ गया है।जनता के दिल की मुश्किल यह है कि वह रंगदारी-टाइप राष्ट्रवाद को हिट करे या वह पारंपरिक राज-परिवारी विरासत के साथ बैठे ! आम भारतीय परंपरा-प्रेमी होता है।इसी बात को समझकर राजपरिवार की विमाताएँ भी सक्रिय हो गई हैं।कथा के अनुसार राजा की जान पिंजरे में क़ैद तोते में बसी है।बस कोई राक्षस उस तक न पहुँच पाए।ख़त वाले कबूतर बराबर इस ख़तरे से आगाह कर रहे हैं। पर बिल्लियाँ भी मुस्तैदी से उन गर्दनों की नाप ले रही हैं।

किसी बम्बइया फिल्म की तरह चल रहे इस चित्रपट का निर्देशक कोई बाहरी है,जिसे अंदरूनी पात्रों का भरपूर सहयोग प्राप्त है।पारिवारिक घात-प्रतिघात-आघात के सहयोग से बन रही यह फ़िल्म प्रदर्शन से पहले ही लीक हो गई है।कानून-व्यवस्था को पछाड़कर अब हर जगह इसी के ट्रेलर पर विमर्श हो रहा है।कुछ लोगों को आशंका है कि आगे चलकर फिल्म हिट भी हो सकती है।अलबत्ता,ठंड से बचाव के लिए एहतियात के तौर पर बाहरी-लिहाफ़ अभी से ओढ़ लिया गया है।

कहते हैं,सरकार खतरे में है,पार्टी ख़तरे में है।पर खतरा कहाँ नहीं है ? हालत तो यह हो गई है कि चरणों में बार-बार गिरने पर भी कुर्सी खिसकने का खतरा बना हुआ है।रिश्ता खतरे में है।सारे वचन और वादे खतरे में है।भरोसा खतरे में है और सबसे बड़ी बात पारिवारिक भविष्य खतरे में है।इन सब खतरों के बीच राहत की बात यह कि फ़िलहाल आम जनता को कोई खतरा नहीं है।सब कुछ भुलाकर वह अगले चुनाव तक केवल मनोरंजन पर ध्यान दे।यह टैक्स-फ्री भी है !

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