वे बड़े मजे से जनसेवा में रत थे।जनता को भी उनसे कोई व्यक्तिगत तकलीफ़ नहीं थी।अपने विरोधियों को मात देकर वे कुर्सी पर काबिज हुए थे और लगातार इस पर बने रहना चाहते थे।उन्होंने किसी के आगे सरेंडर नहीं किया था पर नामुराद कलेंडर ने धोखा दे दिया।अचानक उन्होंने पचहत्तर की ‘फिनिश लाइन’ पार कर ली।विरोधी खुश हुए कि वे ढल गए पर यह उनकी भूल थी।उन्होंने अभी तक अपनी मौलिक प्रतिभा संरक्षित कर रखी थी।वही काम आई।वे फिर से काम पर लग गए मंत्री से लाट-साहब बनकर।इस तरह सरकार ने प्रतिभा-पुंज बुझने से पहले उसमें और तेल डाल दिया।लालबत्ती फिर से भभकने लगी।
प्राचीन समय में हमारे यहाँ व्यवस्था थी कि पचहत्तर पार होते ही व्यक्ति वानप्रस्थ चला जाता था।वो माया-मोह से रहित होकर केवल भजन-कीर्तन में तल्लीन रहता था।र है।सरकार ने उसी से प्रेरित होकर वानप्रस्थ-योजना लागू की है।लाभार्थी इस योजना का स्वागत भी कर रहे हैं।वे सत्ता-भजन के लिए काला-पानी जाने को तैयार हैं।
सरकार की पूरी कोशिश है कि वे ऐसे लोगों का पुनर्वास करे,फिर भी कुछ लोग रह जाते हैं।उनको उम्मीद है कि वे प्रतीक्षा-सूची को नष्ट कर जल्द ‘री-एम्प्लायड’ हो सकेंगे।पचहत्तर पार का राजनेता खूब पका और घुटा हुआ होता है।उसको काम पर न लगाया जाय तो वह कुछ नहीं,बद्दुआ का पराक्रम तो रखता ही है।एक काम करती सरकार बड़े-बूढ़ों को कम से कम आशीर्वाद लायक तो समझती ही है।उनके पुनर्वास से पार्टी और सरकार दोनों का भला होता है।रही बात जनता की,सो वह अपना भला करने के लिए आत्मनिर्भर है ही।
पचहत्तर पार के नेता खुद चलने या सरकार चलाने के काम के भले न हों पर उम्मीद के प्रतीक-पुरुष हैं।सरकार उन्हें ‘लाट-साहब’ बनाकर यह संदेश देने में सफल है कि ‘सरकारी आदमी’ कभी रिटायर नहीं होता।सेवा ही उसका जीवन है।इस कृत्य से उसे यदि वंचित किया गया तो राजनीति वरिष्ठविहीन हो जाएगी।समय गवाह है कि साहित्य और राजनीति में वरिष्ठों ने सबसे अधिक ‘पदक’ बटोरे हैं।इसलिए पचहत्तर पार के लाट साहब जंगल में भी मंगल मना रहे हैं।
प्राचीन समय में हमारे यहाँ व्यवस्था थी कि पचहत्तर पार होते ही व्यक्ति वानप्रस्थ चला जाता था।वो माया-मोह से रहित होकर केवल भजन-कीर्तन में तल्लीन रहता था।र है।सरकार ने उसी से प्रेरित होकर वानप्रस्थ-योजना लागू की है।लाभार्थी इस योजना का स्वागत भी कर रहे हैं।वे सत्ता-भजन के लिए काला-पानी जाने को तैयार हैं।
सरकार की पूरी कोशिश है कि वे ऐसे लोगों का पुनर्वास करे,फिर भी कुछ लोग रह जाते हैं।उनको उम्मीद है कि वे प्रतीक्षा-सूची को नष्ट कर जल्द ‘री-एम्प्लायड’ हो सकेंगे।पचहत्तर पार का राजनेता खूब पका और घुटा हुआ होता है।उसको काम पर न लगाया जाय तो वह कुछ नहीं,बद्दुआ का पराक्रम तो रखता ही है।एक काम करती सरकार बड़े-बूढ़ों को कम से कम आशीर्वाद लायक तो समझती ही है।उनके पुनर्वास से पार्टी और सरकार दोनों का भला होता है।रही बात जनता की,सो वह अपना भला करने के लिए आत्मनिर्भर है ही।
पचहत्तर पार के नेता खुद चलने या सरकार चलाने के काम के भले न हों पर उम्मीद के प्रतीक-पुरुष हैं।सरकार उन्हें ‘लाट-साहब’ बनाकर यह संदेश देने में सफल है कि ‘सरकारी आदमी’ कभी रिटायर नहीं होता।सेवा ही उसका जीवन है।इस कृत्य से उसे यदि वंचित किया गया तो राजनीति वरिष्ठविहीन हो जाएगी।समय गवाह है कि साहित्य और राजनीति में वरिष्ठों ने सबसे अधिक ‘पदक’ बटोरे हैं।इसलिए पचहत्तर पार के लाट साहब जंगल में भी मंगल मना रहे हैं।
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