उच्च सदन हतप्रभ है।देश का एक कोहिनूर बहुत पहले ही विलायत में स्थायी रूप से बस चुका है,दूसरा इस फ़िराक में है कि कहीं वह इसमें चूक न जाय।सदन को इस बात से ज्यादा हैरानी हुई है कि उसको समृद्ध और करने वाले ने उसको ही त्याग दिया है।सदन उच्च है तो नैतिकता के मापदंड भी आवश्यक रूप से उच्च हैं।उच्च सदनवासी होकर निम्न कर्म करना व्यवस्था का नहीं प्रतिष्ठा का प्रश्न है।उनका सदन-त्याग इसी बात को साबित करता है।उनके पास त्यागने की बकायदा एक लम्बी परम्परा है।सबसे पहले उन्होंने लोक-लाज त्यागी,फिर देश और अब उच्च आवास।ऐसे में हमारे बैंक हजारों करोड़ मुद्राओं का मोह क्यों नहीं त्याग देते ?रुपया वैसे भी हाथ का मैल होता है।वह बस मैल धो रहे हैं और हम अपने हाथ मल रहे हैं।इस तरह वे सफाई-अभियान के ब्रांड अम्बेसडर साबित हुए और हम महज मूकदर्शक।
अब उच्च सदन का क्या होगा ? होता तो उसमें वैसे भी कुछ नहीं,हो-हल्ले के सिवा।फिर भी,जाने-माने हाथियों(हस्तियों का समानार्थी नहीं) और शाहों(थैली वाले नहीं इससे चट्ट-बट्टे हो जाने की आशंका उत्पन्न होती है) से लैस इस सभा का ऐसे श्रीहीन हो जाना खलता है।यहाँ बहुमत किसी का भी हो,जीतता वही है,जिसके पास राग-दरबारी की जबरदस्त साधना हो।
माननीय ने बताया है कि वे सभा का परित्याग इसलिए कर रहे हैं ताकि उनकी मिट्टी और पलीद न हो।इस बात से हम कतई सहमत नहीं,ठीक वैसे ही जैसे उनके अन्य सुकर्मों से।ऐसी विभूति का महज दो लाइनों का रुक्का ही अथाह प्रतिभूति की गारंटी है।ऐसे प्रतिमाओं की मिट्टी सदा-सर्वदा के लिए पलीद-प्रूफ हो जाती है।फिर भी,कुचेष्टाओं पर किसी का वश नहीं होता।ऐसा होने पर इस्तीफ़े का कवच-कुंडल उनकी नाक बचाने के लिए पर्याप्त है।शायद इसीलिए ऐसे लोगों की नाक इतनी कमजोर और संवेदनशील नहीं होती।वे साधारण लोग होते हैं जो बात-बात होने पर छींकने लग जाते हैं।यही कारण है कि भद्रजन कड़कड़ाती ठंड में भी सर्दी-जुकाम से दूर रहते हैं और आमजन चुचुहाती गर्मीं में भी अपनी नाक पोंछने और संभालने में मशगूल रहते हैं।
अगर वाकई किसी की मिट्टी पलीद हुई है तो वह है हमारी।हमें हीरे की पहचान ही नहीं है।इसी भूल में हम पहले कोहिनूर को गिफ्ट में दे चुके हैं,अब वापस मांगकर आधिकारिक रूप से अपनी मिट्टी पलीद करवा रहे हैं।हम कितने बदनसीब निकले कि हमारे हाथ से यह वाला जीता-जागता कोहिनूर भी निकल लिया।उसने तो हमारे सामने इस्तीफा फेंककर अपनी मिट्टी पलीद होने से बचा ली,पर हमारे पास क्या है बचाने को ? सिवाय सीलनयुक्त दीवारों पर टंगे नंगी टांगों वाले पुराने कलेंडर के !
हम केवल अपने नंगे बदन को ढांप लें तो अपनी मिट्टी पलीद होने से बचा सकते हैं।ऊंचे आसनों पर बैठने वाले किसी भी तरह की नंगई से परे होते हैं।ख़ास बात यह कि उनकी केवल गर्दनें गिनी जाती हैं,टांगें नहीं।
संतोष त्रिवेदी
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