हाल ही में राजधानी में शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न हुए।अचरज इस बात का रहा कि चुनाव-परिणाम एग्जिट-पोल के मुताबिक आए और शांतिपूर्वक स्वीकारे भी गए।परिणामों के बाद अब सर्वत्र समीक्षा,मंथन और चिंतन का दौर शुरू है।जो जीते हैं,वे इस बात पर हैरान हैं कि ऐसे कैसे जीत गए ! और भी अच्छी तरह से जीत सकते थे।जो हारे हैं, उनका आकलन है कि लोग तो बेईमानी से हारते हैं,वे विशुद्ध ईमानदारी से हारे हैं।और तीसरे जो न जीत में थे,न हार में; वे सबसे ज़्यादा ख़ुश हैं।वे इसी में मगन हैं कि इस बार का शून्य पिछली बार से अलग है।हारने-जीतने वालों से ज़्यादा चर्चा उन्हीं की है।उनकी उपस्थिति भर से मजबूत सरकार भरभराकर गिर गई।यह महत्वपूर्ण उपलब्धि है।इन चर्चाओं के बीच हम तीनों दलों से अंदर की खबर खींच कर लाए हैं।
पहले चुनाव जीतने वालों की खबर लेते हैं।वे कई बरस बाद जीते हैं।जाहिर है सबसे ज़्यादा गहमागहमी यहीं थी।सभी जीते हुए लोग एक गोल बनाकर बैठे हुए थे।एक वरिष्ठ नेता सबको संबोधित कर रहे थे, ‘भाइयो, यह जीत हमारी और केवल हमारी है।कुछ लोग अफवाह फैला रहे हैं कि हम लोग यूँ ही जीत गए हैं।यह सरासर ग़लत है।हमें पता है कि हम कैसे जीते हैं ! हमारे अंदर जीत की भूख हरदम रहती है।हमारी उपस्थिति हार-जीत से ज़्यादा सरकार बनाने के लिए होती है।हमें ‘बिन-दूल्हे की बारात’ कहा जा रहा था,फिर भी हम जीते।यह अलग बात है हम अभी भी उस दूल्हे को तलाश रहे हैं।जनता आश्वस्त रहे।अगले चुनावों से पहले हमारी खोज पूरी हो जाएगी।दूल्हे की बात से याद आया; जिनके पास दूल्हा था, वही घोड़ी से गिर गया।अब बारात पर भी संकट है।हमें पूरी उम्मीद है कि वह जल्द किसी दूसरे पंडाल में प्रवेश कर जाएगी।फ़िलहाल आप सभी लोग ‘गारंटी’ के मजे लें।’ इतना कहकर नेताजी ने अपनी वाणी को विराम दिया और सभी लोग दावतख़ाने की ओर लपके।
वहाँ से निकलकर दूसरे दल के पंडाल में पहुँचा तो माहौल बहुत गर्म था।‘पंद्रह-करोड़ी’ विधायक बेहद उत्तेजित थे।आलाकमान से वे अपने-अपने नुक़सान की भरपाई की माँग कर रहे थे।उनका सबसे बड़ा दुःख था कि हारने के बाद वे बिकने लायक़ भी न रहे।उनके नेता ने सबको शांत करते हुए कहा, ‘असल नुक़सान तो हमारा हुआ है जी।हम आंदोलन से निकले लोग हैं।सरकार में आने से पहले सड़क पर ही थे।हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता जी।जनता पर पूरा भरोसा है हमें।उसकी याददाश्त कमजोर है।वह हमें जरूर फिर से याद करेगी।हम समंदर तो नहीं फिर भी लौट के आएंगे।यमुना मइया की क़सम।अब आम आदमी के मुँह में मुफ्त का ख़ून लग चुका है।वह छूटने वाला नहीं है।कुछ आदतें जनता की बदली हैं और कुछ हमारी भी।हम अपनी ‘कट्टर ईमानदारी’ को रिचार्ज करेंगे।हम हारे भले हैं,पराजित नहीं हुए हैं।असल में हम भ्रष्टाचार साफ़ करने आए थे और हमें ख़ुशी है कि पूरी ईमानदारी से हम स्वयं साफ़ हो गए हैं !’ उनके इस चुनावी-चिंतन से तालियों का शोर इतना बढ़ गया कि आगे कुछ सुनाई नहीं दिया।
मेरे कदम अब तीसरे दल के शामियाने की ओर बढ़ गए।असल ज़श्न का माहौल वहीं दिखा।लोग एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे।मैंने पहली बार किसी को हार की बधाई देते सुना।उनके नेता ऊँचे मंच से चहकते हुए कह रहे थे, ‘दोस्तो, बड़े संघर्ष के बाद हमने लगातार तीसरी बार शून्य हासिल किया है।ऐसे समय में जब सब कुछ तेजी से गिर रहा हो,तब शून्य ने विशेष प्रतिष्ठा अर्जित की है।राजनीति हो, बाज़ार हो या रुपया हो,सभी शून्य से होड़ लगाए हुए हैं।इसी से पता चलता है कि शून्य का क्या महत्व है ! जहाँ शून्य पाकर हम मालामाल हुए हैं ,वहीं सरकार चला रहे लोग अचानक संज्ञा-शून्य हो गए हैं।उन्हें एक झटके से सत्ता से बाहर होना पड़ा है।हमारे शून्य के प्रहार से ‘शीशमहल’ तक उजड़ गया है।जो नई सरकार बनाने जा रहे हैं,शून्य की महत्ता को वह भी नकार नहीं सकते।यह हमारा शून्य है जो किसी और के शून्य से बिल्कुल अलग है।शून्य में असीमित संभावनाएँ होती हैं जिन्हें आम लोग नहीं समझ सकते।यह हमें सकारात्मक ऊर्जा भी प्रदान करता है।हम भविष्य में और बेहतर शून्य की कामना करते हैं।’ ऐसा कहकर वे शून्य की ओर ताकने लगे।
शून्य की यह दार्शनिक व्याख्या उनकी पराजय की व्याख्या पर कितनी भारी पड़ी,यह जानकर मैं संज्ञा-शून्य हो गया।थोड़ी देर बाद जब चेतना वापस लौटी तो समझ में आया कि ऐसी निर्मम समीक्षाएँ ही हमारे लोकतंत्र को स्वस्थ बना रही हैं।