कहते हैं पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं पर वे ऐसा नहीं मानते।पालने में तो वह अपने हाथ-पैर चलाता है और मजबूर होता है।उसकी प्रतिभा का पूरा प्रदर्शन भी नहीं हो पाता।जिधर इशारा किया जाता है,वह उधर ही देखता है।यहाँ तक कि दूसरे के हिलाने-डुलाने पर ही हिलता है।पाँव चलाने की उसकी हद होती है।और इधर कुर्सी का कमाल देखिए।पूत जैसे ही कुर्सी पर बैठता है,पाँव पसार लेता है।दूसरों की छोड़िए,अपनों का मार्ग प्रशस्त करने लगता है।जो पिता उसे उँगली पकड़कर चलना सिखाता है,वह सिर्फ़ दर्शक बनकर रह जाता है।यह पिता का बचपना है कि उसे पालने में हिलाने और कुर्सी में विराजने में फ़र्क़ नहीं समझ आता।
पिता भले ही अपना कर्तव्य भूल जाए पर कुर्सीधारी पुत्र ज़मीन नहीं छोड़ता।असली धरतीपुत्र वही है जो हर हाल में धरती से जुड़ा रहे।कुर्सी टिकती तभी है,जब वह गोंद की तरह चिपकी रहे।ऐसी मज़बूत कुर्सी पर बैठकर पुत्र अपनी लात का सदुपयोग मनचाही दिशा में कर सकता है।वे इस मामले में उन पिताओं से बड़े भाग्यशाली हैं कि उन्हें किसी अनाथाश्रम का मार्ग नहीं पूछना पड़ा।अब वे मार्गदर्शक मंडल में आराम से बैठकर अपने हाथ-पाँव मार सकते हैं।
कुछ लोग बार-बार पिता-पुत्र के रिश्ते को बीच में लाने की कोशिश कर रहे हैं।इसमें वे भी लोग शामिल हैं जो पिता के खेमे में हैं।उन्हें यह सामान्य बात नहीं पता कि खेमे रिश्तों की चौपाल में नहीं,जंग के मैदान में बनते हैं।दूसरी बात यह कि बीच में कुर्सी आने पर किसी रिश्ते के लिए गुंजाइश कहाँ बचती है।रिश्तों से मोह करने वाले अज्ञानी और अदूरदर्शी होते हैं।रिश्ते पीड़ा का बोध कराते हैं जबकि कुर्सी सबका दुःख हरती है।कुर्सी में इत्मीनान से बैठा राजा ही दुखियारी प्रजा को मात्र सम्बोधित करके ही उसके दुःख हर सकता है।रही बात बड़े-बूढ़ों की,तो वे कमंडल लेकर मार्गदर्शक मंडल में बैठकर अपनी अंतिम इच्छा पूरी कर सकते हैं।
पिता भले ही अपना कर्तव्य भूल जाए पर कुर्सीधारी पुत्र ज़मीन नहीं छोड़ता।असली धरतीपुत्र वही है जो हर हाल में धरती से जुड़ा रहे।कुर्सी टिकती तभी है,जब वह गोंद की तरह चिपकी रहे।ऐसी मज़बूत कुर्सी पर बैठकर पुत्र अपनी लात का सदुपयोग मनचाही दिशा में कर सकता है।वे इस मामले में उन पिताओं से बड़े भाग्यशाली हैं कि उन्हें किसी अनाथाश्रम का मार्ग नहीं पूछना पड़ा।अब वे मार्गदर्शक मंडल में आराम से बैठकर अपने हाथ-पाँव मार सकते हैं।
कुछ लोग बार-बार पिता-पुत्र के रिश्ते को बीच में लाने की कोशिश कर रहे हैं।इसमें वे भी लोग शामिल हैं जो पिता के खेमे में हैं।उन्हें यह सामान्य बात नहीं पता कि खेमे रिश्तों की चौपाल में नहीं,जंग के मैदान में बनते हैं।दूसरी बात यह कि बीच में कुर्सी आने पर किसी रिश्ते के लिए गुंजाइश कहाँ बचती है।रिश्तों से मोह करने वाले अज्ञानी और अदूरदर्शी होते हैं।रिश्ते पीड़ा का बोध कराते हैं जबकि कुर्सी सबका दुःख हरती है।कुर्सी में इत्मीनान से बैठा राजा ही दुखियारी प्रजा को मात्र सम्बोधित करके ही उसके दुःख हर सकता है।रही बात बड़े-बूढ़ों की,तो वे कमंडल लेकर मार्गदर्शक मंडल में बैठकर अपनी अंतिम इच्छा पूरी कर सकते हैं।
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