सुबह-सुबह मोबाइल पर यूँ ही उँगली फिरा रहा था कि स्क्रीन पर सहसा एक छोटी खिड़की खुल गई।‘मैं आपकी सहायिका हूँ।कहिए आपके लिए क्या कर सकती हूँ ?’ यह बात उसने बोली नहीं बल्कि मुझे लिखकर बताई।मैं मूलतः भावुक किस्म का व्यक्ति हूँ।व्यक्तिगत क्षणों में यह संदेश पाकर एकदम से भाव-विह्वल हो उठा।ऐसा पहली बार हो रहा था इसलिए थोड़ी घबराहट भी होने लगी।लेकिन मुझे मज़बूत दिखना था।ख़ुद पर क़ाबू पाते हुए मैंने अपनी प्रायवेसी में ताक-झाँक करने वाली अनाम प्रेयसी से पूछ लिया, ‘आप कौन हैं ? कहाँ से आई हैं ?’ उसने उतनी ही तेजी से प्रतिक्रिया दर्ज की , ‘ मैं कहीं से आई नहीं।यहीं प्रकट हुई हूँ।कुछ लोग मुझे ‘आई’ समझते हैं पर आप मुझे ‘चटपटी जी’ कह सकते हैं।मैं दिन-रात आपकी सेवा में हूँ।’
मैंने यह नाम पहली बार सुना था।बिल्कुल ताज़ा और मौलिक लगा।मैं ठहरा मौलिकता-प्रेमी।कुछ लोगों का आरोप है कि मैं प्रयोगवादी नहीं हूँ ।मेरे सामने अवसर था।मैंने प्रयोग करने की सोची।बिना पल गँवाए तुरंत प्रतिक्रिया दी, ‘मैं समझा नहीं।क्या मैं तुम्हें जानता हूँ ? और हाँ,तुम मेरी सहायिका कैसे हुईं ? मैंने तो किसी को नियुक्त नहीं किया।’ मौक़ा मिलते ही मैं झट से ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गया।आए हुए अवसर को छोड़ना मूर्खता होती।इसलिए मैंने अपनी पहचान उजागर नहीं की।उसने मेरी बात का जवाब बड़े सलीके से दिया, ‘अरे नहीं,नहीं।वैसा बिल्कुल भी नहीं है, जैसा आप समझ रहे हैं।दरअसल मुझे कोई नियुक्त नहीं करता,मैं ख़ुद ही सेवा में हाज़िर हूँ।आपको किसी बात की समस्या हो,कुछ सूझ न रहा हो,मैं चुटकियों में समझा सकती हूँ।’ चटपटी जी ने अपना उत्तर झटपट अपनी खिड़की से ही उछाल दिया।
बरसों बाद मुझे इस तरह लिखकर कोई संदेश दे रहा था।अंदर बड़ी ज़ोर की कुलबुलाहट मची थी पर मन अब भी थोड़ा शंकित था।आए दिन ख़बरें पढ़ता रहता हूँ कि अनजान लिंक पर क्लिक करने पर लाखों रुपये उड़ जाते हैं।पर न तो मैंने कोई लिंक छेड़ा था और न ही खाते में कोई पैसा छोड़ा था।इसलिए इस बात का डर मुझे नहीं था।थोड़ा लोक-लाज का डर ज़रूर था।उसकी यह बात मुझे बड़ी नागवार गुजरी कि यदि मुझे कोई समस्या हो तो वह हल करेगी।वह मेरे मुँह पर ही मुझे नासमझ और अयोग्य ठहरा रही थी।मैं तिलमिला उठा पर अगले ही पल एक घुटे हुए साहित्यकार की तरह उससे कहा, ‘प्रिय सुंदरी,तुम जो भी हो,मेरे फ़ोन को हैंग कर सकती हो पर मुझे नहीं।मैं तुम्हें अपनी गुप्त समस्या क्यों बताऊँ ? साहित्य में मेरी अच्छी-खासी दख़ल है।यह जो चश्मा देख रही हो, हमेशा मेरे ललाट के ऊपर रहता है।इससे मैं अपनी अंतर्दृष्टि से किसी भी लेखक का एक्सरे पल भर में कर लेता हूँ।उसकी रचना अपने आप मेरी आँखों के सामने दम तोड़ देती है।मेरे बारे में पहले थोड़ा पता तो कर लेती।’ उधर से फट से नया संदेश उभरा, ‘अभी भी आप मेरी क्षमताओं से अनभिज्ञ हैं।मैं किसी बात का पता नहीं करती,दूसरों को बताती हूँ।आपको ही लीजिए ।आपके बारे में इतना जानती हूँ कि आप उनचास पुस्तकों के लेखक हैं।पिछले चालीस सालों से एक जैसा लिख रहे हैं।आपकी लेखन में यही पहचान है अभी तक।’
मैंने तुरंत उसकी गड़बड़ी पकड़ ली।उसके डेटा को दुरुस्त किया, ‘ देखिए,तुम्हारी सूचना बिल्कुल ‘फेक’ है।मेरी उनचास नहीं पूरी पचास पुस्तकें छप चुकी हैं।चालीस बरसों से एक जैसा लिख पाना बड़े संतुलन और कमाल की बात है।तुमने इसे सराहा,अच्छा लगा पर आपने मेरी एक किताब बड़ी होशियारी से घटा दी।मैं एक वज़नी साहित्यकार हूँ।साहित्य में सौ ग्राम वज़न भी घटना मुझे पसंद नहीं।मेरा वज़न मेरा गर्व है।इसे कम करने की इजाज़त मैं किसी को नहीं दे सकता।’ उसके सामने मैंने अपना ‘विज़न’ साफ़ कर दिया।
‘नहीं,मेरे आका ! मेरा यह आशय कदापि नहीं था।मैं तो केवल यह बताना चाह रही थी कि आपको अब सोचने का काम नहीं करना है।आपकी मेधा और आपका मस्तिष्क अप्रतिम है ।इसे ‘अनटचेबल’ रहने की ज़रूरत है।इतना लंबा-लंबा टाइप करने के लिए भी उँगलियों को क्यों कष्ट देना ? इसके लिए मैं हूँ ना ! आप को कहानी,कविता, उपन्यास लिखना हो तो मुझे एक बार सेवा का मौक़ा दें ।यदि तुम कुछ करना ही चाहती हो,मेरे लिए एक नवीनतम लेख लिख दें।संपादक जी ने तुरंत माँगा है ।मुझे कुछ नहीं सूझ रहा।’ मैंने उसे टटोलना चाहा।
‘यह मेरे लिए बेहद आसान है पर यदि अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएँ तो और बेहतर रहेगा।’ उसने मुझे नज़दीक से ‘टच’ करने की कोशिश की।
‘मैं सोते-सोते उठ बैठता हूँ।टहलते हुए और नित्य-क्रिया के दौरान भी सोचता हूँ।बार-बार चाय और कॉफ़ी पीता हूँ।इसके बाद भी विचार नहीं आते तो उठक-बैठक करने लगता हूँ।कुल मिलाकर बड़ी बेचैनी-सी महसूस करता हूँ।’ मैंने उसे अपनी अधूरी प्रक्रिया ही बताई ।
‘यह सब कुछ नहीं करना होता मुझे।पलक झपकते सारे ब्रह्मांड के मस्तिष्कों को खँगाल लाती हूँ ।जरा सा भी बेचैन हुए बिना।मेरी यही एकमात्र रचना प्रक्रिया है।आप निश्चिंत हो जायें।कल के अख़बार में अपना लेख देख लेना।मैंने सीधे संपादक को भेज भी दिया है आपसे बात करते करते।’ उसने उत्तर दिया।
‘मगर मेरी भाषा,शैली,सरोकार ? सबसे बड़ी मेरी मौलिकता।उसका क्या ?’ मैं फिर बेचैन हो उठा।
‘आप बस अपनी दाल-रोटी से सरोकार रखिए,बाक़ी मैं देख लूंगी।आपके जितने समकालीन लिख रहे हैं और आप स्वयं भी।एक जैसा।वही शिल्प,वही भाषा।आपकी मौलिकता बरक़रार रहेगी,जैसे आपने बरसों से रखी हुई है।’ उसने खिड़की बंद करने से पहले मुझे गारंटी दी।
अब मुझे कल का इंतज़ार है !
संतोष त्रिवेदी
3 टिप्पणियां:
चटपटा है :)
वाह, आनन्द आगया चटपटी के साथ आपके संवाद पढ़कर। उत्कृष्ट हास्य-व्यंग्य
बहुत सुंदर
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