अमूमन मैं सम्मान-समारोहों में नहीं जाता।दरअसल दूसरों को दुशाला ओढ़ते देखकर मेरी तबियत ख़राब होने लगती है लेकिन यह बात कोई नहीं जानता।मैं बताता भी नहीं।असली लेखक वही है जो सारी पीड़ा रचनाओं के माध्यम से न निकाले,कुछ आत्मसात भी कर ले।लेकिन यह बात भी हर कोई नहीं जानता।ज़्यादा तकलीफ़ मुझे तब होती है, जब इन समारोहों में सबके साथ ताली बजानी पड़ती है।मेरे भूतपूर्व गुरू कहा करते थे कि हम किसी समारोह में तालियाँ बजाने क्यों जाएँ ! केवल वहीं जाएँ जहाँ हमारे लिए दूसरे तालियाँ बजाएँ।उन्होंने आगे यह नहीं बताया था कि यदि दूसरे भी ऐसा सोच लें फिर हमारे लिए तालियाँ कौन बजाएगा ! मैंने इसका विकल्प उनसे नहीं पूछा था।उस वक़्त गुरू-विहीन रहने का कोई विकल्प मेरे पास था भी नहीं।आज वह गुरू नहीं रहे पर उनके खूब विकल्प मौजूद हैं।दिक्कत बस यही है कि गुरुओं के पास भी खूब विकल्प हैं।छोटे-मोटे गुरू तो अपन भी अब बन गए हैं।यह उपलब्धि मैंने स्वयं अपने पराक्रम से अर्जित की है।इसका प्रमाण है कि वास्तविक वरिष्ठ मुझसे अपनी जान बचाते हैं और समकालीन सहोदर भाव नहीं देते।हाँ,उदीयमान लौंडे ज़रूर साहित्य में मेरी असफलता के राज जानना चाहते हैं ताकि उनका बहुमूल्य समय नष्ट न हो और वे आराम से ‘रील’ बना सकें।
बहरहाल,अभी बात मेरी नहीं हो रही थी।मैं तो सम्मान-समारोहों की ज़रूरत पर बोलना चाह रहा था।आज का समय ‘लिखने’ के बजाय ‘दिखने’ का है।आप कितना भी लिख चुके हों या लिख रहे हों,जब तक सार्वजनिक मंचों और अंतर्जाल की दुनिया में आप ‘लाइव’ रहेंगे,जीवित रहेंगे।इसके उलट आप बिसार दिए जाएँगे।आपको ख़ुद अपने लेखक होने पर संदेह होने लगेगा।इसलिए मैं भले ही सार्वजनिक समारोहों से नदारद रहूँ,अंतर्जाल पर ज़रूर कोई न कोई जाल बुनता रहता हूँ।इससे साहित्य आतंकित रहता है और मैं जीवित।
आए दिन सम्मानों को लेकर हाय-तौबा मची रहती है।लगता है साहित्य केवल सम्मान के लिए ही बना और बचा हुआ है।ठीक वैसे ही जैसे सियासत सेवा के लिए।आज हालत यह है कि लेखक लिखते बाद में हैं, ‘सम्मान’ की गारंटी पहले माँगते हैं।सम्मान के वादे पर इन्हें भरोसा नहीं होता क्योंकि यह शब्द अब अपना अर्थ खो चुका है।साहित्य हो,सियासत हो या निजी जीवन हो,वादे किए ही इसलिए जाते हैं कि उन्हें पूरा करने का कोई नैतिक दबाव नहीं होता।सम्मान-समारोह का ताजा जिक्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि तीन दिन पहले इंटरनेट मीडिया पर इसका सामूहिक न्योता परोसा गया था।उस साहित्यिक-भंडारे में सम्मानित होने वालों में चिर-वरिष्ठ से लेकर वर्षों से उभरते हुए रचनाकार शामिल थे।उन्होंने अलग से इस बात का ढोल भी पीटा कि माँ सरस्वती जी की कृपा से उन्हें इस लायक समझा गया।यानी वे भी मानते हैं कि वाक़ई वे हैं नालायक ही पर भोले इतने हैं कि दूसरों से अपने को ‘लाइक’ करवाना चाहते हैं।
इस बार नेताओं की तरह मेरी अंतरात्मा भी अँधेरा गहराते ही जाग गई।मुझे सार्वजनिक जगहों पर दिखे हुए बहुत दिन हो गए थे।किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ा था।अब समारोह में जाकर फर्क महसूस किया जाए,यह सोचकर अँधेरे का फ़ायदा उठाकर मैं हॉल में घुस गया।सबसे पीछे वाली पंक्ति में जगह तलाश रहा था कि अचानक मुझे दो आकृतियाँ नज़र आईं।वे आपस में कुछ फुसफुसा रही थीं।आँखें फटी रह गईं और कान चौंकन्ने हो गए।
बिल्कुल पास में हमारे पुरखे परसाई और जोशी जी फुसफुसा रहे थे।मैंने कान खड़े कर दिए।परसाई जी कह रहे थे, ‘यार जोशी ! काश, अपने समय में इतनी इज्जत होती तो हमारे हिस्से भी थोड़ी आती।मंच पर तुम्हारे और हमारे नाम के बीस-बीस इनाम बाँटे जा रहे हैं।जिसे हमारे नाम का शिखर इनाम दिया जा रहा है,वो राग-दरबारी का मशहूर गायक है।यह सुनकर जोशी जी बोल पड़े ,‘तुम्हारा वाला तो कम से कम व्यंग्य को बाज़ार में ले आया,मेरा वाला तो सम्मानों का शतक बना रहा है।हर गली-मुहल्ले के इनाम से मेरा नाम जोड़ दिया है।सुना है अब त्यागी जी भी उसके क़ब्ज़े में हैं।’
त्यागी का नाम सुनते ही परसाई सतर्क हो गए।मुझे घूरते हुए बोले, ‘अजी,तुम्हीं तो त्यागी नहीं हो ?’ मैंने सकपकाते हुए मंच की ओर इशारा किया।वे जो सबसे किनारे वाली कुर्सी पर सिर टिकाए बैठे हैं,वही त्यागी जी हैं।परसाई और जोशी दोनों एक साथ मंच की ओर देखने लगे।तभी भंडारे के आयोजक ने परसाई और जोशी का नाम ले-लेकर लिफाफे बाँटने शुरू कर दिए।यह देखकर परसाई जी भावुक हो उठे,‘ऐसे प्यार के लिए हम दोनों बार-बार मर सकते हैं !’
समारोह एक बार फिर तालियों से गूँज उठा।