राजधानी फिर से धुंध की गिरफ़्त में है।बीसियों दिन हो गए, साफ़ हवा रूठी हुई है।शायद उसे भी किसी के ख़त का इंतज़ार है।फ़िलहाल, सरकार और बुद्धिजीवी इससे भी ज़रूरी मसलों पर व्यस्त हैं।वैसे राजधानी में प्रदूषण होना या बढ़ना कोई ख़बर भी नहीं रही।इस मौसम में हर साल हवा का मूड बिगड़ता है।पहले पराली,दीवाली के हवाले ठीकरा फूटता था।अब उसकी भी ज़रूरत नहीं रही।आम आदमी (पार्टी नहीं असली वाला आम आदमी) ने इसे अपनी नियति मान ली है और सरकार ने बेहतरी दिखाते हुए दीग़र मसलों की तरह प्रदूषण को भी ‘न्यू नॉर्मल’ की श्रेणी में डाल दिया है।उसकी प्राथमिकता में सरकार बनाकर और एक सरकार बनाना भर है।उसे भरोसा है कि सारे देश में जब एक सी हवा बहेगी,राजधानी की हवा अपने आप साफ़ हो जाएगी या आम आदमी ही।इसमें पहले कौन साफ़ होता है,देखने वाली बात यही है।
एक पुराने गाने के बोल याद आ रहे हैं; ‘ देखो,देखो,देखो ! दिल्ली का कुतुबमीनार देखो !’ और अब सारी दुनिया दिल्ली के प्रदूषण पर शोध कर रही है।‘कूड़े का पहाड़’ पहले ही इसकी शान में चार चाँद लगा रहा था,अब ज़हर भरी हवा और धूल के महीन कण दिल्ली के मुकुट में स्थायी रूप से टाँक दिए गए हैं।घर से बाहर निकलते ही आँखें बाहर निकलने लगती हैं।पहले ऋषि-मुनि लंबी तपस्या करके आँखों से अग्नि प्रज्ज्वलित करते थे।सामने वाला देखते-देखते राख हो जाता था।अब यह प्रताप आम आदमी को हासिल हो गया है।फ़र्क़ सिर्फ़ इतना भर हुआ है कि उसने उसी आग को आत्मसात कर लिया है।फेफड़े ठीक से फड़फड़ा भी नहीं पा रहे।अभी तक मुई सिगरेट अकेले यह काम करती थी, लेकिन जबसे सरकार ने इस पर तबियत से टैक्स ठोंका है,लोग बिजली और पानी के बाद फ्री में धुंआ ले रहे हैं।विकास के लिए और कोई कितना हासिल कर लेगा ?
एक तो यह कोई समस्या नहीं है।अगर है भी तो साफ़ हवा देने की जिम्मेदारी सीधे जनता पर है।अव्वल तो वह सड़कों पर निकले नहीं।अगर निकलती भी है तो रैली,जुलूस और शोभायात्रा संग निकले।बिना डीज़ल और पेट्रोल की गाड़ी में निकले।सम-विषम सोचकर घर से निकले।मंत्री, सांसद, विधायक और पार्षद चुनाव जीतने के बाद से आराम फ़रमा रहे हैं।उनसे मिलने में कृपया मारामारी न करें।यह पक्की बात है कि यदि उन्हें धुँध का तनिक भी संज्ञान होता तो अब तक ज़रूर इस गंदी हवा का मान-मर्दन कर देते ! चुनाव में उड़ा गर्दा कुछ दिन तो आसमान में छाएगा ही।आख़िर सब कुछ सरकार ही क्यों करे !
कुछ लोगों के शौक अलग ही लेवल के हैं।उन्हें मंहगाई,भ्रष्टाचार,बेरोजगारी और आतंक से मुक्ति के बाद हवा भी साफ़ चाहिए।सरकार और ज़रूरी कामों से साँस ले सके तो आम आदमी की साँस की भी ख़ैर ले।हालाँकि शहर में हर आदमी परेशान है,ऐसा भी नहीं है।कुछ ने शुद्ध हवा को अपने-अपने कमरों में पैदा कर लिया है।वह दिन भी जल्द आएगा,जब समृद्ध लोग अपनी नाक घर पर ही रखकर आयेंगे।यदि नाक के साथ निकलना ज़रूरी हुआ तो नाक में कुप्पी लगाकर निकला करेंगे।उस कुप्पी में दिन भर के लिए पर्याप्त हवा भरी होगी।देर-सबेर आम आदमी भी ईएमआई पर साफ़ हवा की कुप्पी ले सकेगा।बैंक वाले उसकी जान बचाने के लिए इतना क्रेडिट उसे दे ही देंगे।
अभी की बात करें तो हम बीस दिन पहले आख़िरी बार सैर पर निकले थे।डॉक्टर ने कहा है कि गाँठें और टाँगे फिर कभी देख लेना,पहले अपनी साँसें बचाओ।ज़िंदा रहोगे तो घुटने भी बदलवा लेना।अच्छी बात है कि इसी बहाने घर को भी कुछ ‘टाइम’ दे पाओगे।घर पर रहने के अपने ख़तरे हैं पर जीवन बचाने के लिए कुछ ख़तरे उठाने पड़ेंगे।बस वाद-विवाद से दूर रहना।अब डॉक्टर साहब को कौन समझाए ! झगड़े से दूर रहने से खतरा नहीं टलता।अकसर झगड़ा ख़ुद सिर पर आकर बैठ जाता है।
बहरहाल बाहर ज़हरीली हवा लेने से बेहतर है घर पर ही ज़हर के घूँट पिए जाएँ।मैं कोई बुद्धिजीवी या लेखक भी नहीं हूँ ,वरना उस हवा को ख़त लिख देता,जिसने ज़िंदगी में ज़हर पीना आसान कर दिया है ! देखता हूँ, खिड़की के बाहर किसी ने रेडियो चला दिया है जिसमें हमारी पीढ़ी का गाना बज रहा है,‘ तुम अपना रंजो-ग़म,अपनी परेशानी मुझे दे दो’ ! तभी श्रीमती जी की आवाज़ आती है, ‘खिड़की बंद कर लो जी।धुंध अंदर आ रही है’। और मैं खिड़की बंद करके कमरे में ही टहलने लगता हूँ।