शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

मौसमे-दोस्ती है,ज़रा बाहर निकल के देख !

मित्रता भी मौसमी हो गई है।अब इसे लोग पाल नहीं चूस रहे हैं।यह ऐसा मौसम है जो हर बार नियत समय पर आता है और फ्लैश-सेल की तरह बस पल भर के लिए ठहरता है।इसमें वही लोग सफल होते हैं जो अतिरिक्त चंट होते हैं।यह अति-सतर्कता का समय है।गदराए और बौराए हुए मौसम में रस की भरपूर गुंजाइश होती है।पर निचोड़ वही पाते हैं,जो खुद निचुड़ चुके हैं।यह मित्रता की भैंस दुहने का मौसम है।

नीरस और मनहूस भी इस वक्त भरे-भरे से दिखते हैं।दोस्ती धीरे-धीरे नहीं होती।वह बकायदा प्रस्ताव लेकर आती है।जिस प्रस्तावक के साथ गारंटर होता है,उसका सौदा जम जाता है।'जनम-जनम का साथ है हमारा तुम्हारा’ टाइप एग्रीमेंट करने की अब ज़रूरत नहीं है।दोस्ती एक सीज़न भर भी चल जाए तो उसकी कीमत वसूल हो जाती है।मामला अगर हिट रहा तो सीजन-टू या इसका सीक्वल भी बन सकता है।

पहले दोस्ती अटूट होती थी।दो टूटे हुए लोग जुड़कर अटूट हो जाते थे।अब ब्रेक-अप होता है।पहले जुड़ते हैं,फिर बिखर जाते हैं।अटूट होने का बड़ा नुक्सान भी था।दोस्ती कूट-कूटकर भरी होने से किसी एडवेंचर की गुंजाइश नहीं रहती थी।कोई स्पेस नहीं था।ज़िन्दगी नीरस और बोझिल होती थी।ब्रेक-अप वाली फटाफट होती है और सीज़न के साथ ही ब्रेक लेने की सुविधा भी।स्पेस का कोई इश्यू नहीं होता।बिलकुल फोन की मेमोरी जैसा एक्सपेंडेबल।जब चाहो जितना बढ़ा लो और जब चाहो एकदम से डिलीट कर दो।अब मित्रता के ढेरों विकल्प मौजूद हैं।सोशल मीडिया में इसके लिए कच्चा माल बहुतायत में उपलब्ध है।बस एक क्लिक से मित्र बनिए और एक क्लिक से ब्लॉक कर दीजिए।यानी अब आप मित्रता कर ही नहीं सकते,बकायदा उससे निपट भी सकते हैं।

मौसमी मित्रता को साध लेना आसान काम नहीं है।यह समय और धन का निवेश चाहती है।संवेदनाओं और सम्बन्धों के बारे में दिमाग खपाना निरा मूर्खता और घाटे का सौदा है।ये चीज़ें केवल साहित्य-सृजन के काम आती हैं।इनसे जीवन-निर्वाह नहीं होता।भले और चतुर लोग मौसम की नब्ज़ अँधेरे में भी पकड़ लेते हैं।बहती गंगा में हाथ धोने वाले इनके सहोदर होते होंगे।जिस तरह वसंत में फूलों का भाईचारा खिलखिला उठता है,ठीक उसी तरह दोस्ती का चारा सरेबाज़ार है।मौसम भी है,वक्त का तकाजा भी।ऐसे में जिन्हें चरने का हुनर न आए,कोई क्या करे ! उनके लिए यही कहा जा सकता है ,'कारवाँ गुजर गया,गुबार देखते रहे।’

©संतोष त्रिवेदी

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