साहित्य में आज सबसे ज्यादा मारामारी है तो व्यंग्य में ही है ।जो नए हैं वो छपना चाहते हैं,जो नामचीन हैं वो कॉन्ट्रैक्ट पर रेगुलर होना चाहते हैं।व्यंग्य लिखकर साहित्य की मुख्य-धारा में कूदना सबसे आसान लगता है।यह प्रसिद्धि का शॉर्टकट बन गया है।नई पीढ़ी की अधिकांश संभावनाएँ इसी में आत्ममुग्ध हैं।इस मामले में वे अपने समकालीन वरिष्ठों के सच्चे अनुयायी हैं।नई पीढ़ी सीधे-सपाट लिखे संस्मरण को,चुटीली किस्सागोई को,चलताऊ मुहावरेबाजी को ही व्यंग्य समझ रही है।वह केवल शब्दों के साथ खेल को ही व्यंग्य मान रही है।भाषा तो पठनीय हो ही,पर यदि उसमें तंज का हथौड़ा नहीं है तो वह अपने शिकार को तोड़ने में समर्थ नहीं।व्यंग्य आपके डीएनए में होता है।इसे आप 'स्किल-इंडिया' प्रोग्राम के तहत डेवलप नहीं कर सकते।
नई पीढ़ी में उँगलियों में गिने जाने वाले जो कुछेक नाम हैं,उनमें मलय जैन ऐसे हैं जो संभावना से आगे बढ़ चुके हैं।उनका उपन्यास 'ढाक के तीन पात' इसकी मज़बूत गवाही देता है।उपन्यास का कथानक ग्रामीण पृष्ठभूमि पर है,जो आधुनिकता की चपेट से वंचित नहीं है।शहर से दूर 'गूगल' गाँव तमाम तकनीकी सुधारों और विकास की भीषण आँधी के बीच अपनी पारंपरिकता बचाए हुए है।इसका प्रत्यक्ष प्रमाण लेखक की शाब्दिक आँखों से ही देखिए,
'आपके स्वागत को आतुर शौचरत स्त्री,पुरुषों और ब्च्चों की क़तारें,बेतरतीबी से बने कच्चे और कुछ पक्के मकान,मकानों के बीचोंबीच गलियाँ और उन पर बहती नालियाँ...इन्हीं गलियों में घूमते कुत्ते....नालियों में गालियाँ खाकर उन्मुक्त स्नान करते सुअर....गाँव से दो-दो कोस दूर पानी भरने जाती गोरियाँ....'
इसी गाँव में सरकारी योजनाओं के लागू होने को लेकर कमिश्नर साहिबा के दौरे पर पूरा कथानक केंद्रित है।अधिकतर पात्र अपने नाम के अनुरूप ही आचरण करते हैं।गोटीराम जहाँ गोटियां बिछाने में माहिर हैं,वहीं लपका सिंह गाँव की हर वास्तविक और संभावित घटना को सबसे पहले लपकते हैं।वैद्य जी सबका इलाज करने से पहले अपने बुढ़ाते काम-पराक्रम की दवा गुलबिया बाई के ज़रिए ढूँढ लेते हैं पर बाद में वही दवा उनके निजी जीवन में रिऐक्शन कर जाती है।
पुलिस का एक शब्द चित्र देखें:
"पुलिस के दारोग़ाओं की धज देखते ही बनती थी।ऊँचा पूरा बाँका बदन,भारी भरकम डील-डौल ,तोंद ऐसी कि उसके पीछे बाक़ी शरीर छिप जाए।इलाक़े में दरोग़ा जी बाद में पहुँचते थे,पहले तोंद पहुँच जाती थी।बल्कि तोंद की आमद होते ही इलाक़े में सन्नाटा छा जाता था कि लो तोंद तो आ गई,दरोग़ा जी भी आते होंगे।"
राजनीति में धर्म और जाति के ज़रूरी दख़ल पर व्यंग्यकार की क़लम यूँ चलती है,"प्रजातंत्र ने देश को मुख़्तलिफ़ दल दिए थे और दलों ने गमछे ।शेष हिंदुस्तानी गाँवों की तरह गूगल गाँव में भी गले- गले में गमछा था।कोई पीला तो कोई नीला,कोई तिरंगा तो कोई बहुरंगा।हर गमछे के रंग को देखकर दूर से यह अन्दाज़ लगाया जा सकता था कि अमुक के शरीर में कौन- से राजनीतिक दल के कीटाणु प्रविष्ट हैं !" ऐसा कहते हुए लेखक की भाषा बिलकुल सहज और चुटीली लगती है।
अंधविश्वास की मज़बूती बताती है कि इसका अशिक्षा से कोई सीधा सम्बंध नहीं है।क्या गाँव वाले,क्या शहर वाले,अभी जब हर तरफ़ से निराश हो जाते हैं तो उनके लिए एकमात्र उम्मीद 'दनादन' बाबा में ही नज़र आती है।यह शब्दचित्र देखें:
'ऐसा आम तौर पर प्रचारित था कि एक दनादन बाबा ही हैं ,जिनकी लातें गूगल गाँव को तमाम विघ्न-बाधाओं से बचाए हुए हैं।लातों की यह ख्याति केवल गूगल गाँव तक नहीं थी,वरन दूर-दूर के क़स्बों और शहरों तक पहुँच चुकी थी।इस ख्याति के अनुसार दनादन बाबा की लात हर मर्ज़ की दवा थी।जो हारी- बीमारी तमाम दवाओं और मँहगे अस्पतालों के बूते की बात न थी,उसका इलाज दनादन बाबा की लात थी।जिस कोख को हरी करने में अनिवार्य अंग थक-हारकर अधमरी हालत में चले गए हों,वहाँ कामयाबी का एकमात्र नुस्ख़ा दनादन बाबा की चमत्कारी लात थी।भूतों-प्रेतों की छाया हो या साढ़ेसाती का चक्कर,इन सबसे निज़ात के लिए ग्रह-नक्षत्रों की शांति नहीं,दनादन बाबा की लात काफ़ी थी।'
सरकारी योजनाएँ अव्वल तो काग़ज़ों से उतरकर ज़मीन पर आती ही नहीं,अगर आईं भी तो उनका क्रियान्वयन करने के बजाय क्रियाकर्म कर दिया जाता है।सरकारी स्कूल के लिए 'दोपहर का भोजन' योजना अफ़सरों,कर्मचारियों के लिए मौक़े की तरह आया है।गाँव में एक आम आदमी कैसे अपनी रोज़ाना ज़िंदगी में जद्दोजहद करता है उसकी एक बानगी:
'शौचालय की तो छोड़ो,इन बेवक़ूफ़ देहातियों के घरों में ढंग का एक ग़ुसलखाना भी नहीं था।कलेक्टर साहब ने गाँव में देखा था,प्रायः हर घर में पन्नियों,टाट और लकड़ी के फट्टों का इस्तेमाल कर उन्हें गुसलखाने का रूप दे दिया गया था।कबाड़ का उपयोग तो कोई इन मूर्ख गाँव वालों से सीखे।टाट और फट्टों की बस चार फ़ुट ऊँची दीवारें ......ताकि हर कोई रास्ता चलता ताककर या झाँककर इस बात की तसदीक़ कर सके कि इसके भीतर जो भी शख़्स है वह उसी हालत में पाया जा रहा है या नहीं,जैसा कि हमाम में पाया जाना चाहिए ...'हुँह ' उन्होंने सोचते हुए मुँह बिचकाया।'स्साले देहाती खेती करेंगे ट्रैक्टर हार्वेस्टर से और हगने जाएँगे सड़कों पर।'
मलय जैन का भाषा-पक्ष मज़बूत है।समृद्ध होने के बावजूद उनकी भाषा पठनीयता के आड़े नहीं आती।भाषा का पूर्णतः विशुद्ध होना जैसी बंदिश से लेखक प्रभावित नहीं है।वह आम बोलचाल और देशज भाषा के साथ-साथ हिंगलिश शब्दों को भी अपनी रचना-यात्रा में स्वाभाविक रूप से आने देता है।यह उपन्यास विकास के दौर में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की तरह है।ऐसे कथानक का समय चालीसेक साल पहले का होना चाहिए था पर अपने अगल-बग़ल देखने पर ऐसा लगता है कि यह वर्तमान समय की सीधी कमेंट्री है।आम आदमी आज भी किसी समस्या के बजाय व्यवस्था और अफ़सरशाही का शिकार है।दरअसल उसकी मुख्य समस्या व्यवस्था ही है जिसे उसकी सेहत में सुधार के लिए लाया गया बताते हैं।आज़ादी के बाद ख़ुशहाली की चाह 'ढाक के तीन पात' बनकर रह गयी है।इस नाते मलय जैन अपनी बात को बड़ी सुरूचिपूर्ण तरीक़े और स्पष्टता से कह जाते हैं,जिसमें हमें कभी हँसी,कभी विषाद और अंततः करुणा का अनुभव होता है।
नई पीढ़ी में उँगलियों में गिने जाने वाले जो कुछेक नाम हैं,उनमें मलय जैन ऐसे हैं जो संभावना से आगे बढ़ चुके हैं।उनका उपन्यास 'ढाक के तीन पात' इसकी मज़बूत गवाही देता है।उपन्यास का कथानक ग्रामीण पृष्ठभूमि पर है,जो आधुनिकता की चपेट से वंचित नहीं है।शहर से दूर 'गूगल' गाँव तमाम तकनीकी सुधारों और विकास की भीषण आँधी के बीच अपनी पारंपरिकता बचाए हुए है।इसका प्रत्यक्ष प्रमाण लेखक की शाब्दिक आँखों से ही देखिए,
'आपके स्वागत को आतुर शौचरत स्त्री,पुरुषों और ब्च्चों की क़तारें,बेतरतीबी से बने कच्चे और कुछ पक्के मकान,मकानों के बीचोंबीच गलियाँ और उन पर बहती नालियाँ...इन्हीं गलियों में घूमते कुत्ते....नालियों में गालियाँ खाकर उन्मुक्त स्नान करते सुअर....गाँव से दो-दो कोस दूर पानी भरने जाती गोरियाँ....'
इसी गाँव में सरकारी योजनाओं के लागू होने को लेकर कमिश्नर साहिबा के दौरे पर पूरा कथानक केंद्रित है।अधिकतर पात्र अपने नाम के अनुरूप ही आचरण करते हैं।गोटीराम जहाँ गोटियां बिछाने में माहिर हैं,वहीं लपका सिंह गाँव की हर वास्तविक और संभावित घटना को सबसे पहले लपकते हैं।वैद्य जी सबका इलाज करने से पहले अपने बुढ़ाते काम-पराक्रम की दवा गुलबिया बाई के ज़रिए ढूँढ लेते हैं पर बाद में वही दवा उनके निजी जीवन में रिऐक्शन कर जाती है।
पुलिस का एक शब्द चित्र देखें:
"पुलिस के दारोग़ाओं की धज देखते ही बनती थी।ऊँचा पूरा बाँका बदन,भारी भरकम डील-डौल ,तोंद ऐसी कि उसके पीछे बाक़ी शरीर छिप जाए।इलाक़े में दरोग़ा जी बाद में पहुँचते थे,पहले तोंद पहुँच जाती थी।बल्कि तोंद की आमद होते ही इलाक़े में सन्नाटा छा जाता था कि लो तोंद तो आ गई,दरोग़ा जी भी आते होंगे।"
राजनीति में धर्म और जाति के ज़रूरी दख़ल पर व्यंग्यकार की क़लम यूँ चलती है,"प्रजातंत्र ने देश को मुख़्तलिफ़ दल दिए थे और दलों ने गमछे ।शेष हिंदुस्तानी गाँवों की तरह गूगल गाँव में भी गले- गले में गमछा था।कोई पीला तो कोई नीला,कोई तिरंगा तो कोई बहुरंगा।हर गमछे के रंग को देखकर दूर से यह अन्दाज़ लगाया जा सकता था कि अमुक के शरीर में कौन- से राजनीतिक दल के कीटाणु प्रविष्ट हैं !" ऐसा कहते हुए लेखक की भाषा बिलकुल सहज और चुटीली लगती है।
अंधविश्वास की मज़बूती बताती है कि इसका अशिक्षा से कोई सीधा सम्बंध नहीं है।क्या गाँव वाले,क्या शहर वाले,अभी जब हर तरफ़ से निराश हो जाते हैं तो उनके लिए एकमात्र उम्मीद 'दनादन' बाबा में ही नज़र आती है।यह शब्दचित्र देखें:
'ऐसा आम तौर पर प्रचारित था कि एक दनादन बाबा ही हैं ,जिनकी लातें गूगल गाँव को तमाम विघ्न-बाधाओं से बचाए हुए हैं।लातों की यह ख्याति केवल गूगल गाँव तक नहीं थी,वरन दूर-दूर के क़स्बों और शहरों तक पहुँच चुकी थी।इस ख्याति के अनुसार दनादन बाबा की लात हर मर्ज़ की दवा थी।जो हारी- बीमारी तमाम दवाओं और मँहगे अस्पतालों के बूते की बात न थी,उसका इलाज दनादन बाबा की लात थी।जिस कोख को हरी करने में अनिवार्य अंग थक-हारकर अधमरी हालत में चले गए हों,वहाँ कामयाबी का एकमात्र नुस्ख़ा दनादन बाबा की चमत्कारी लात थी।भूतों-प्रेतों की छाया हो या साढ़ेसाती का चक्कर,इन सबसे निज़ात के लिए ग्रह-नक्षत्रों की शांति नहीं,दनादन बाबा की लात काफ़ी थी।'
सरकारी योजनाएँ अव्वल तो काग़ज़ों से उतरकर ज़मीन पर आती ही नहीं,अगर आईं भी तो उनका क्रियान्वयन करने के बजाय क्रियाकर्म कर दिया जाता है।सरकारी स्कूल के लिए 'दोपहर का भोजन' योजना अफ़सरों,कर्मचारियों के लिए मौक़े की तरह आया है।गाँव में एक आम आदमी कैसे अपनी रोज़ाना ज़िंदगी में जद्दोजहद करता है उसकी एक बानगी:
'शौचालय की तो छोड़ो,इन बेवक़ूफ़ देहातियों के घरों में ढंग का एक ग़ुसलखाना भी नहीं था।कलेक्टर साहब ने गाँव में देखा था,प्रायः हर घर में पन्नियों,टाट और लकड़ी के फट्टों का इस्तेमाल कर उन्हें गुसलखाने का रूप दे दिया गया था।कबाड़ का उपयोग तो कोई इन मूर्ख गाँव वालों से सीखे।टाट और फट्टों की बस चार फ़ुट ऊँची दीवारें ......ताकि हर कोई रास्ता चलता ताककर या झाँककर इस बात की तसदीक़ कर सके कि इसके भीतर जो भी शख़्स है वह उसी हालत में पाया जा रहा है या नहीं,जैसा कि हमाम में पाया जाना चाहिए ...'हुँह ' उन्होंने सोचते हुए मुँह बिचकाया।'स्साले देहाती खेती करेंगे ट्रैक्टर हार्वेस्टर से और हगने जाएँगे सड़कों पर।'
मलय जैन का भाषा-पक्ष मज़बूत है।समृद्ध होने के बावजूद उनकी भाषा पठनीयता के आड़े नहीं आती।भाषा का पूर्णतः विशुद्ध होना जैसी बंदिश से लेखक प्रभावित नहीं है।वह आम बोलचाल और देशज भाषा के साथ-साथ हिंगलिश शब्दों को भी अपनी रचना-यात्रा में स्वाभाविक रूप से आने देता है।यह उपन्यास विकास के दौर में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की तरह है।ऐसे कथानक का समय चालीसेक साल पहले का होना चाहिए था पर अपने अगल-बग़ल देखने पर ऐसा लगता है कि यह वर्तमान समय की सीधी कमेंट्री है।आम आदमी आज भी किसी समस्या के बजाय व्यवस्था और अफ़सरशाही का शिकार है।दरअसल उसकी मुख्य समस्या व्यवस्था ही है जिसे उसकी सेहत में सुधार के लिए लाया गया बताते हैं।आज़ादी के बाद ख़ुशहाली की चाह 'ढाक के तीन पात' बनकर रह गयी है।इस नाते मलय जैन अपनी बात को बड़ी सुरूचिपूर्ण तरीक़े और स्पष्टता से कह जाते हैं,जिसमें हमें कभी हँसी,कभी विषाद और अंततः करुणा का अनुभव होता है।
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सटीक
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