बहुत पहले सुना था कि नाम में क्या रखा है पर पिछले दिनों अनुभव किया कि नाम में ही सब रखा है।वो दिन हवा हुए जब काम बड़ा करने से नाम बड़ा होता था।अब नाम बड़ा हो तो काम अपने आप बड़ा हो जाता है।काम जब ‘फ़ेल’ होने लगे तो नाम की महिमा से चुनाव की नाव भी पार लग जाती है।छोटे और मझोले क़िस्म के नाम का तो ‘मीटू’ भी नहीं होता।नाम बड़ा हो तो इस्तीफ़ा भी हो जाता है।नाम गद्दी दिलाता है तो उतार भी देता है।‘अबकी बार’ पर सवार सरकार भी इस बार सकते में है।नाम बचाएगा या डुबोएगा,यह बात काम भी नहीं जानता।
सियासत हो या साहित्य सब जगह नाम ही उबारता है।हिट लेखक की पिटी हुई किताब नाम के सहारे दस संस्करण निकाल लेती है।दो-चार अकादमी-सम्मान भी धर लेती है।सियासत में इसका फ़ायदा जनता और सरकार दोनों को अलग-अलग ढंग से होता है।‘हारे को हरिनाम’ का पाठ जनता के दिमाग़ में बहुत पहले से बैठा हुआ है।कोई बड़ी समस्या जब उसे दबोचती है,वह सरकार का मुँह नहीं देखती,नाम सुमिरन करने लगती है।सरकार भी जब काम कर करके थक जाती है तो यही करती है।नाम के इस ‘आतंक’ को तुलसीदास बाबा ने हमसे पहले देख लिया था।शायद इसीलिए उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि कलियुग में नाम के अलावा और कोई उपाय विशेष नहीं है।हम एक-दो दिशाओं में ही नाम के प्रभाव को समझ पा रहे हैं,उन्होंने दसों दिशाओं में इसे महसूसा था।आज के दिन के लिए ही उन्होंने कहा था;‘नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ’।इस बात को जनता के साथ-साथ हमारी सरकार ने भी आत्मसात कर लिया है।अब काम नहीं नाम संकटमोचक है।
जो लोग रोज़ पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों पर रुपए की तरह बल्लियों उछल रहे हैं,उन्हें इनका नाम बदलकर सरकार को सहयोग करना चाहिए।सरकार अपनी तरफ़ से अकेले कितना करे ? ‘मँहगाई’ पहले ही ‘अच्छे दिन’ का भेष धर चुकी है और ‘विकास’ को और फैलने की जगह नहीं मिल रही।वह अब तभी बढ़ेगा,जब सरकार बढ़ेगी और दो हज़ार उन्नीस से आगे जाएगी।नाम के इस बढ़ते प्रभाव से ‘नामधारी’ भी गदगद हैं।उन्हें लगता है कि जब नाम से ही सरकार बननी है तो उनका हक़ सबसे पहले बनता है।नाम ज़िंदा रहता है तो दावा भी मज़बूत होता है।चुनाव में भी टिकट काम नहीं नाम देखकर दिया जाता है।इसकी पीड़ा उनसे पूछो,जिनके नाम आख़िरी सूची से कट जाते हैं।
हम नाम के इस प्रभाव को परख ही रहे थे कि तभी काम याद आ गया।वह सचमुच हमारे सामने खड़ा था।बिलकुल निहत्था।कहने लगा-‘एक तुम्हीं हो जो हमें याद कर लेते हो।बताइए क्या काम है ?’ हम मन ही मन सोचने लगे कि इतनी जल्दी तो नाम लेने पर भगवान भी नहीं आते,काम कैसे आ गया ! पर हमने उससे यह बात नहीं कही।बुरा मान सकता था।काम के कटे हाथ को देखकर पिछले पाँच साल में पहली बार आत्म-संतुष्टि हुई।प्रत्यक्षतः हमने अपने मनोभाव को उस पर प्रकट नहीं होने दिया।हमदर्दी जताते हुए पहला सवाल यही किया कि उसके हाथ कौन ले गया।अब वह काम कैसे करेगा।
काम ने बेहद उदासीन होते हुए कहा-‘जबसे नाम का शोर मचा है,हम बेरोज़गार हो गए हैं।अभी-अभी इस्तीफ़ा देकर आए हैं।नाम ने हमें बहुत चोट पहुँचाई है।जिसके पास काम नहीं,वो सोशल मीडिया में बड़ा-सा नाम लेकर रम जाता है।हमारी सालों की कमाई मिनटों में ‘मीटू’ हो गई।चालीस साल का नाम ख़राब हो गया।हमने सुना था कि ‘काम बोलता है’ पर यहाँ तो ‘काम’ बेरोज़गार भी बना देता है।यह सब हमारे नाम का किया-धरा है।उसी की चपेट में आकर हम चौपट हुए हैं।’
काम को पहली बार पटरी से उतरा देखकर हम ख़ुश थे।इतने दिनों से पत्थरबाज़ी हो रही थी पर ‘हाथ’ ख़ाली था।अब जाकर एक क़ायदे का निशाना लगा था।उसके दुःख को हवा देते हुए हमने गहरे घाव पर सहानुभूति की पुल्टिस बाँधी-‘तुम निराश मत हो।अपने पर भरोसा रखो।कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।रही नाम की बात, सही मौक़ा पाकर बदल लो।वैसे भी नाम में क्या रखा है ! यह तो शेक्सपियर ही कह गए हैं।जब नाम बदलने से घर सदन सकता है तो तुम्हारा नेक ‘काम’ इनाम में क्यों नहीं तब्दील हो सकता ! जब हर साल जलकर भी रावण दशानन बना रहता है,तुम्हारे तो फिर भी दो हाथ कटे हैं।अगले चुनाव तक उग आएँगे।और एक ज़रूरी बात,इतने घुप्प अंधेरे में किसको तुम्हारा ‘काम’ कब तक याद रहेगा ? थोड़े दिनों में ही सारे ‘मीटू’ स्वीटू हो लेंगे।बस दल या दिल बदल लो,यह बुरा वक़्त भी बीत जाएगा।’
हमारी बातें सुनकर घोर अंधेरे में भी काम की आँखों में चमक आ गई।‘नाम गुम जाएगा,चेहरा ये बदल जाएगा’ गुनगुनाते हुए वह अपने नाम की रक्षा के लिए आगे बढ़ गया।हम इस बीच एक नया पत्थर तलाशने लगे।
संतोष त्रिवेदी
सियासत हो या साहित्य सब जगह नाम ही उबारता है।हिट लेखक की पिटी हुई किताब नाम के सहारे दस संस्करण निकाल लेती है।दो-चार अकादमी-सम्मान भी धर लेती है।सियासत में इसका फ़ायदा जनता और सरकार दोनों को अलग-अलग ढंग से होता है।‘हारे को हरिनाम’ का पाठ जनता के दिमाग़ में बहुत पहले से बैठा हुआ है।कोई बड़ी समस्या जब उसे दबोचती है,वह सरकार का मुँह नहीं देखती,नाम सुमिरन करने लगती है।सरकार भी जब काम कर करके थक जाती है तो यही करती है।नाम के इस ‘आतंक’ को तुलसीदास बाबा ने हमसे पहले देख लिया था।शायद इसीलिए उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि कलियुग में नाम के अलावा और कोई उपाय विशेष नहीं है।हम एक-दो दिशाओं में ही नाम के प्रभाव को समझ पा रहे हैं,उन्होंने दसों दिशाओं में इसे महसूसा था।आज के दिन के लिए ही उन्होंने कहा था;‘नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ’।इस बात को जनता के साथ-साथ हमारी सरकार ने भी आत्मसात कर लिया है।अब काम नहीं नाम संकटमोचक है।
जो लोग रोज़ पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों पर रुपए की तरह बल्लियों उछल रहे हैं,उन्हें इनका नाम बदलकर सरकार को सहयोग करना चाहिए।सरकार अपनी तरफ़ से अकेले कितना करे ? ‘मँहगाई’ पहले ही ‘अच्छे दिन’ का भेष धर चुकी है और ‘विकास’ को और फैलने की जगह नहीं मिल रही।वह अब तभी बढ़ेगा,जब सरकार बढ़ेगी और दो हज़ार उन्नीस से आगे जाएगी।नाम के इस बढ़ते प्रभाव से ‘नामधारी’ भी गदगद हैं।उन्हें लगता है कि जब नाम से ही सरकार बननी है तो उनका हक़ सबसे पहले बनता है।नाम ज़िंदा रहता है तो दावा भी मज़बूत होता है।चुनाव में भी टिकट काम नहीं नाम देखकर दिया जाता है।इसकी पीड़ा उनसे पूछो,जिनके नाम आख़िरी सूची से कट जाते हैं।
हम नाम के इस प्रभाव को परख ही रहे थे कि तभी काम याद आ गया।वह सचमुच हमारे सामने खड़ा था।बिलकुल निहत्था।कहने लगा-‘एक तुम्हीं हो जो हमें याद कर लेते हो।बताइए क्या काम है ?’ हम मन ही मन सोचने लगे कि इतनी जल्दी तो नाम लेने पर भगवान भी नहीं आते,काम कैसे आ गया ! पर हमने उससे यह बात नहीं कही।बुरा मान सकता था।काम के कटे हाथ को देखकर पिछले पाँच साल में पहली बार आत्म-संतुष्टि हुई।प्रत्यक्षतः हमने अपने मनोभाव को उस पर प्रकट नहीं होने दिया।हमदर्दी जताते हुए पहला सवाल यही किया कि उसके हाथ कौन ले गया।अब वह काम कैसे करेगा।
काम ने बेहद उदासीन होते हुए कहा-‘जबसे नाम का शोर मचा है,हम बेरोज़गार हो गए हैं।अभी-अभी इस्तीफ़ा देकर आए हैं।नाम ने हमें बहुत चोट पहुँचाई है।जिसके पास काम नहीं,वो सोशल मीडिया में बड़ा-सा नाम लेकर रम जाता है।हमारी सालों की कमाई मिनटों में ‘मीटू’ हो गई।चालीस साल का नाम ख़राब हो गया।हमने सुना था कि ‘काम बोलता है’ पर यहाँ तो ‘काम’ बेरोज़गार भी बना देता है।यह सब हमारे नाम का किया-धरा है।उसी की चपेट में आकर हम चौपट हुए हैं।’
काम को पहली बार पटरी से उतरा देखकर हम ख़ुश थे।इतने दिनों से पत्थरबाज़ी हो रही थी पर ‘हाथ’ ख़ाली था।अब जाकर एक क़ायदे का निशाना लगा था।उसके दुःख को हवा देते हुए हमने गहरे घाव पर सहानुभूति की पुल्टिस बाँधी-‘तुम निराश मत हो।अपने पर भरोसा रखो।कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।रही नाम की बात, सही मौक़ा पाकर बदल लो।वैसे भी नाम में क्या रखा है ! यह तो शेक्सपियर ही कह गए हैं।जब नाम बदलने से घर सदन सकता है तो तुम्हारा नेक ‘काम’ इनाम में क्यों नहीं तब्दील हो सकता ! जब हर साल जलकर भी रावण दशानन बना रहता है,तुम्हारे तो फिर भी दो हाथ कटे हैं।अगले चुनाव तक उग आएँगे।और एक ज़रूरी बात,इतने घुप्प अंधेरे में किसको तुम्हारा ‘काम’ कब तक याद रहेगा ? थोड़े दिनों में ही सारे ‘मीटू’ स्वीटू हो लेंगे।बस दल या दिल बदल लो,यह बुरा वक़्त भी बीत जाएगा।’
हमारी बातें सुनकर घोर अंधेरे में भी काम की आँखों में चमक आ गई।‘नाम गुम जाएगा,चेहरा ये बदल जाएगा’ गुनगुनाते हुए वह अपने नाम की रक्षा के लिए आगे बढ़ गया।हम इस बीच एक नया पत्थर तलाशने लगे।
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 21/10/2018 की बुलेटिन, विरोधाभास - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
एक टिप्पणी भेजें