रविवार, 2 दिसंबर 2018

आश्वासन आख़िरी दौर का !

चुनाव-प्रचार अंतिम चरण में कूद चुका था।नेताजी जनता के बिलकुल निकट थे।वे उसके चरणों में कूदने ही वाले थे कि क़रीबी कार्यकर्ता ने आचार-संहिता के हवाले से उन्हें रोक दिया।यह रुकावट उन्हें बहुत अखरी।वे अपनी पर उतर आए।जनता के लिए जो बहुरंगी-पिटारी उनके पास थी,उसे खोल दिया।पिटारी से साँप और बिच्छू के बजाय अचानक हरे और खरे वादे निकलने लगे।घोषणाएँ तो इतनी रफ़्तार से भागने लगीं कि उन्हें पकड़ना जोखिम भरा हो सकता था।मगर जनता ख़ाली हाथ थी।उसके पास कोई विकल्प नहीं था।कुछ न कुछ पकड़ना ज़रूरी था।ऐसा न करने पर लोकतंत्र ख़तरे में पड़ सकता था।जनता ने पहले नेताजी को देखा,फिर अपने चरणों की ओर।वे अब तक सुरक्षित थे।स्थिति पूरी तरह नेताजी के नियंत्रण में थी।वे थोड़ा और निकट आए।जनता के चरण लगातार उनका आह्वान कर रहे थे।आख़िर नेताजी गिर पड़े।

जनता हतप्रभ थी।लोकतंत्र के पुजारी उसके चरणों में थे।यह तो घोर अनर्थ हुआ।उसने उनको उठाकर गले से लगा लिया।नेताजी के मुखारविंद से बोल फूटा-‘हम हमेशा की तरह तुम्हारे ही हैं।तुम भी रहो।हम वह भी करेंगे,जो कभी नहीं कहा।हमारे पास इरादा है और तुम्हारे पास हमारा वादा।उसे मज़बूती से पकड़ लो।हम भले गिर जाएँ,तुम मत गिरना।वादे अनंत-काल तक सुरक्षित  रहने चाहिए।तुम हमें मत दो,हम तुम्हें ठीक कर देंगे।’

जनता की समझ में यह वाली बात नहीं आई।उसने अपना गला छुड़ाते हुए पूछा-‘क्या मतलब ? कम से कम चुनाव की तो लाज रखो स्वामी ! इस संवेदनशील समय में भी हमारा ‘मेकओवर’ करोगे ? जो भी आता है,चपत लगाकर चला जाता है।क्या आप भी यही करेंगे ?’ नेताजी तुरंत संभल गए।यू-टर्न लेते हुए बोले-‘अजी बिलकुल नहीं।हम तुम्हें क्यों ठोंकेंगे ! हम तो तुम्हें ठीक करने की बात कर रहे थे।कुछ लोग भ्रम फैला रहे हैं कि जनता की हालत ठीक नहीं।वे तुम्हें बीमार बताते हैं।कहते हैं तुम्हें लोकतंत्र की बीमारी लगी है।सच तो यह है कि तुम अभिव्यक्ति की आज़ादी की चपेट में हो।हम इसी बीमारी का निवारण करना चाहते हैं।हमने प्रण लिया है कि तुम्हारे पास वोट और प्राण दोनों बने रहें।उसे किसी और को नहीं लेने देंगे।तुम हमें मत का इनाम दो,हम तुम्हें नाम देंगे।’

‘नाम तो हम आपका ही बरसों से जप रहे हैं सरकार।बस मँहगाई और भ्रष्टाचार की तरह हमें भी रोज़गार दे दो।अब तो आपकी सेवा का साइड-इफ़ेक्ट भी होने लगा है।हमारी तबियत इसीलिए ख़राब हुई है।शायद सेवा का ओवरडोज़ हो गया है।कृपया अब आप आराम करें और हमें काम दें।’ जनता ने आख़िरकार नेताजी से कुछ माँग ही लिया।

‘अरे,यह क्या माँग लिया ? यह तो हमारा काम है।तुमने हमें काम करने के लिए ही तो जिताया है।हम वही कर रहे हैं।हमें अपना काम करने दो,इसमें बाधक मत बनो।हम तुम्हें ‘नाम’ देते हैं।हफ़्ते के बजाय अब हम हर दिन देंगे।हमारे पास वादों की तरह नाम का भी एकदम फ़्रेश स्टॉक है।हम रोज़ नया नाम निकालते रहेंगे।अब से तुम्हें प्रजा के बजाय राजा के नाम से जाना जाएगा।यहाँ तक कि तुम्हारे लिए हम ‘नामकरण मंत्रालय’ भी बना देंगे।और हाँ,फिर भी अगर तुम पर काम करने का भूत चढ़ा तो उसे हम सोशल-मीडिया पे झाड़ देंगे।बैंक के बजाय तुम अपना खाता वहीं खोल लो।डरो नहीं दूसरों को डराओ।कुछ फ़ोटो-शोटो खींचो।उन्हें वहाँ डालो।कम पड़ें तो कुछ फ़ोटो ‘शॉप’ कर लो।भुगतान हम कर देंगे।देश की चिंता मत करिए,उसे हम संभाल लेंगे।तुम ख़ुद  को संभालो।तुम हमसे नाम लो,हम तुम्हारा काम तमाम करेंगे।लेकिन ऐसा करने के लिए तुम पहले हमें वोट तो दो !’ नेताजी ने बिलकुल ताजे संकल्प जनता के चरणों में पटक दिए।

अब जनता को बेचैनी महसूस होने लगी।वह एक क़दम पीछे हटी।उसके चरण कुछ सुरक्षित हुए पर ख़तरा अभी पूरी तरह टला नहीं था।एकदम सामने था।मुश्किल यह कि आगे ख़तरा था तो पीछे कचरा।जनता को थोड़ी दुविधा हुई।नेताजी ताड़ गए।आनन-फ़ानन उसके आगे एक बड़ी मूरत खड़ी कर दी।जनता के सामने कोई चारा भी नहीं था कि वह उसे चबा सके।आख़िर बेबस होकर बोली- ‘वोट तो हम तुम्हें ही देते रहे हैं और फिर देंगे।बस काम करने की कसक दिल में बनी रहेगी।आप हमारे लिए इतना सोचते और करते हैं तो हम भी यू-टर्न ले लेते हैं।नए ज़माने में क्रांति बजरिए यू-टर्न भी आती है।आम आदमी का यह अचूक हथियार है।आगे से ‘कर्म ही पूजा’ हमारे लिए ‘पूजा ही कर्म’ होगी।इसलिए कर्म की नहीं तो कम से कम हमारे लिए धर्म की व्यवस्था अवश्य कर दें।सुना है आपका जन्म हमारी सेवा करने के लिए ही हुआ है।’

जनता के इस आर्तनाद का असर तुरंत हुआ।नेताजी की बाँछे खिल गईं।वह बोले-‘हम दूरदर्शी हैं।तुम्हारी चाहत का अंदेशा हमें पहले से ही था।हमने इसीलिए इसकी अग्रिम तैयारी कर रखी है।हर पंचवर्षीय योजना में तुम्हें हमारे दर्शन होंगे।तुम निर्विघ्न पूजा कर सको इसका भी प्रबंध होगा।तुम हमें मत दो,हम तुम्हें मंदिर देंगे’।

यह सुनकर जनता मारे ख़ुशी के बेहोश हो गई।चुनाव का यह आख़िरी आश्वासन था।


©संतोष त्रिवेदी

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