रविवार, 5 अप्रैल 2020

थूकने के रचनात्मक प्रयोग !

पिछले कई दिनों सेघरबंदीमें हूँ।घर से बाहर निकलना तो दूर,बॉलकनी तक से झाँकने में डर लगता है।कहीं मुआ वायरस हवा में ही दबोच ले ! इस अदृश्य दुश्मन का ख़ौफ़ है ही ऐसा कि फ़ोन से भी बात करते समय तीन फ़ीट की दूरी रखता हूँ।यहाँ तक कि डर के मारे सोशल मीडिया में नहीं रहा हूँ।वायरस के डर से अलग इन दिनों एक और डर जुड़ गया है,थूकने का।जहाँ-तहाँ लोग थूक रहे हैं।इसलिए लिखना तक बंद कर दिया है।कहीं किसी ने मेरे लेखन पर थूक दिया तो साहित्य को क्या मुँह दिखाऊँगा ! लिखा ज़्यादा है तो थू-थू भी ज़्यादा होगी।इस वक़्त लिखना तो दूर किसी के कमेंट कोलाइककरने से बचता हूँ।लिखने या कहने से नहीं थू-थू होने से डर लगता है।किसी विशुद्ध बुद्धिजीवी की चपेट में गया तो थू-थू निश्चित है।अगर मज़बूरी में किसी बुजुर्ग के लेखन को छूता भी हूँ तो तुरंत सेकुलर-साबुन सेसैनिटाइजकर लेता हूँ।इससे साहित्यिक-संक्रमण का ख़तरा नहीं रहता।लेखन के दुष्प्रभाव से बच जाता हूँ सो अलग।



रही बात मेरीघरबंदीकी,उस पर मेरे मित्रों की राय अलग-अलग है।लोग अपने-अपने अंदाज़े लगा रहे हैं।मुझे दूर से जानने वाले कह रहे हैं कि मैं घर मेंछुपाहुआ हूँ।वहीं नज़दीकी दोस्तों का आकलन है कि मैंफँसाहुआ हूँ।यानी कोरोना-वायरस से बच भी गया तोसेकुलरयासांप्रदायिक-वायरससे बचना नामुमकिन है।कोरोना ने लोगों को मारा ही नहीं उनकी स्थापनाएँ और निष्ठाएँ भी बदल दी हैं।मैं तो घर मेंछुपाहूँ,फँसा।असलियत यह है किकोरंटाइनका स्थायी-स्टेटस डालकर मैंथूकनेपर शोध करने में जुटा हूँ।साहित्य में शोध करना लिखने से कम ख़तरनाक है।


शोध के दौरान लगा कि इधर थूकना एक हथियार हो गया है।लोग जमकर थूक रहे हैं।थूकने पर नए-नए प्रयोग हो रहे हैं।कुछ गलियों में थूक रहे हैं,कुछ शायरी में।यह उनका वैचारिक-थूक है।मौक़ा पाते ही वे सोशल-मीडिया में थूक रहे हैं।उनके पास थक्का जमा है थूक का।ये नए मिज़ाज का साहित्य है।वे कहते हैं थूकना उनके विरोध का तरीक़ा है।वे जिसका विरोध करते हैं,उसी पर थूकते हैं।इस दौरान किसी और पर उस थूक के छींटे पड़ते हैं तो यह उनकी मंशा नहीं मात्र संयोग माना जाय।इस पर उनकी थू-थू होती है तो क्या,उन्हें संतोष है कि वे साहित्य की मुख्य-धारा में तो बह रहे हैं ! थू-थू करने और करवाने का वे कोई मौक़ा नहीं छोड़ते।पहले ताली-थाली बजाने पर थू-थू कर रहे थे,अबदियाजलाने पर कर रहे हैं।वे जहालत पर कभी नहीं थूकते क्योंकि इससे बुद्धिजीवी-जमात में उनकीरेटिंगकम होने का अंदेशा है।


जहालत वाले बेफ़िक्र हैं।उन्हें ऊपरवाले ने ऐसे हुनर से नवाज़ा है,जिसके होते कोई भी पढ़ाई फिज़ूल है।जहालत किसी तर्क या विज्ञान को नहीं मानती।उसकी अपनी मौलिकता है।सारी दुनिया भले ही एक वायरस के आगे घुटने टेक रही हो, जहालत की एक अलग ही दुनिया है।जब हर जगह आदमी-आदमी से दूर भाग रहा है,जहालत वाले जमात जोड़ रहे हैं।उनके लिए यहनेककाम है।वे वायरस को दुश्मनों की चाल बता रहे हैं।ऐसी जहालत के समर्थन में पढ़े-लिखे भी शामिल हैं।इससे ज़ाहिर होता है कि जहालत का वायरस इस नामुरादवायरसके बाद भी ज़िंदा रहेगा।


जहाँ कुछ लोग बीमारी वाले वायरस को मारने में लगे हैं वहीं वायरस-वाहक उन्हें ही दौड़ा रहे हैं।अव्वल तो पत्थर से मारते है।ग़र दूर से निशाना चूकता है तो नज़दीक से थूक देते हैं।इस महामारी में दुनिया भर में ऐसी रचनात्मक मिसाल ढूँढने से नहीं मिलती।जान बचाने वाले भले दुविधा में हों पर थूकने वाले नहीं।जान बचाने वालों पर जान छिड़कने के दिन गए।वे अब थूक छिड़क रहे हैं।जान बचाने वाले ख़ुद जान बचाकर भाग रहे हैं।थूकने वालों को लगता है कि उन्हें जन्नत जाने से रोकने की साज़िश हो रही है।थूकना अब क्रिया नहीं कर्म बन गया है।इसलिए वे तो बस अपना काम कर रहे हैं।


शोध-कार्य के बीच में वक़्त निकालकर टीवी खोलता हूँ तो वहाँ भी अलग-अलग शोध जारी हैं।रामायणऔरमहाभारतकी रेटिंग इन दिनों सबसे अधिक हो गई है।कुछ लोग इस पर भी थूक रहे हैं।वायरस की खबरों को दिखाने में चैनल वाले एक-दूसरे पर थूक रहे हैं।बीमारी की रेटिंग में भी होड़ है।अलबत्ता किसने-कितनी फैलाई,इसका मसला है।न्यूज़रूम में बैठे एंकर विशेषज्ञों पर और विशेषज्ञ दर्शकों पर जमकर थूक रहे हैं।महाशक्ति अमरीका चीन पर थूक रहा है।चीन पूरी दुनिया पर पहले ही थूक चुका है।सब जगह वायरस की थू-थू हो रही है और हम हैं कि थूकने पर थू-थू कर रहे हैं।लगता है मेरा शोध-कार्य बहुत लंबा चलने वाला है। 



कल शाम को मेरे बेहद नज़दीकी मित्र त्रिपाठी जी का फ़ोन आया।मैंने उन्हें अपनेकामके बारे में जानकारी दी।वे मेरी जहालत पर थूकने लगे।



संतोष त्रिवेदी

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक अदद सम्मान के लिए !

वह एक सामान्य दिन नहीं था।मैं देर से सोकर उठा था।अभी अलसाया ही था कि ख़ास मित्र का फ़ोन आ गया।ख़ास इसलिए क्योंकि उनसे...