विद्वान कहते हैं कि उत्तम कोटि का साहित्य सन्नाटे में ही रचा जाता है।इसी को ध्यान में रखकर ‘वे’ निपट कोरोना-काल में फैले सन्नाटे से निपट रहे हैं।वे उम्दा क़िस्म के साधक रहे हैं।जब भी जैसी ज़रूरत होती है,साध लेते हैं।सन्नाटे से भरपूर समय में उन्होंने सैंतीस किताबें रच दीं।थोड़ा और सन्नाटा बढ़े तो वे साहित्य में शतक मार सकते हैं।उनका वश चले तो वे साहित्य को भूनकर रख दें।इसीलिए वे ‘तप’ से इसे तपा रहे हैं।जिस सन्नाटे से दूसरे घबराते हैं,वे इसे मथने में जुटे हैं।अपनी अनपढ़ी रचनाओं को सोशल-मीडिया में वे प्रतिदिन ‘लाइव’ मुक्ति प्रदान कर रहे हैं।उन्होंने कहीं पढ़ रखा था कि वास्तविक साहित्य वही है जो पाठकों में अज़ीब बेचैनी पैदा कर सके।जो लोग उन्हें अब तक पढ़ नहीं रहे थे,वही अब सुन-सुनकर बेचैन हो रहे हैं।कुछ ने इसी बेचैनी के चलते सोशल-मीडिया त्याग दिया है तो कुछ स्वयं को ‘लाइव’ करने में लग गए हैं।ऐसे सन्नाटे में जब आम आदमी रोटी के लिए जूझ रहा हो,साधक जी को साहित्य सूझ रहा है।इससे साहित्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ज़ाहिर होती है।
उनके इस संघर्ष से हमें भी प्रेरणा मिली।अपना सन्नाटा भुनाने की तरकीब सूझी।झट से उन्हें ‘वीडियो-कॉल’ पर ले लिया।पहले तो वे पहचान में ही नहीं आए।बढ़े हुए केशों ने उनके मुख-मंडल को पूरी तरह से ढक लिया था।इससे मुझे उनकी दिव्य-छवि देखने में दिक़्क़त हो रही थी।साधक होने के साथ-साथ वे अच्छी नस्ल के सुधारक भी हैं।मेरी परेशानी ताड़ गए।अपने मुख पर छाई कालिमा को एक तरफ़ करते हुए बोले, ‘साहित्य से इतर भी कोरोना का योगदान याद किया जाएगा।फ़िलहाल तुम्हारी क्या योजना है,यह बताओ वत्स ?’ घरेलू सन्नाटे को भंग करते हुए हमने निवेदन किया,‘आप इस सूने वक़्त में भी साहित्य को चर्चा में घसीटे हुए हैं,बड़ी बात है।हमने तय किया है कि इस संघर्ष में आप अकेले नहीं हैं।आपकी प्रतिबद्धता को सही आवाज़ देने के लिए ही हमारे गिरोह ने आपको सोशल मीडिया पर ज़िंदा,सॉरी लाइव ‘उठाने’ की ‘सुपारी’ ली है।कोरोना-कृपा से हम सोशल-मीडिया में ‘लाइव ई-चर्चा’ करने जा रहे हैं।आप इजाज़त दें तो प्रमुख वक्ता की टोपी आपको सादर पहना दें।’इतना सुनते ही वे ‘चिंतन-मोड’ में चले गए।ललाट पर चश्मा चढ़ाकर नेत्रों को दूर किसी अज्ञात स्थान पर टिकाते हुए बोले, ‘सोची तो तुमने बिलकुल ठीक है वत्स ! इस समय शहर क्या घर के बाहर तक अपने चरण नहीं धर सकते।सभी साहित्यिक आयोजन ठप्प हैं।पहले कर-कमल बेरोज़गार हुए,अब चरण भी।सरकार ने अब तक साहित्य को कोई पैकेज भी नहीं दिया है।गोष्ठी की कुर्सी पर तशरीफ़ रखे युग बीत गए।अंतर्मन के विषाणु कुलबुला रहे हैं।तुम्हारा साहित्य के प्रति अनुराग देखकर मैं अभिभूत हो उठा हूँ।पर मुझे ‘उठाने’ से पहले अपने गिरोह के बारे में तो बताओ वत्स !’
‘दरअसल,हम ‘कलेस’ से जुड़े हैं।इसका मतलब है ‘कवि,लेखक समिति’।हम काफ़ी समय से शहर के कवियों और लेखकों को बेहद उचित तरीक़े से ‘उठा’ रहे हैं।अभी पिछले दिनों ‘कलेस’ के ही सदस्य को ‘जुगाड़ीलाल कटोरा प्रसाद’ सम्मान मिला है।यह हमारी बढ़ती लोकप्रियता का प्रमाण है।सोशल-मीडिया पर ‘सन्नाटा’ तोड़ते हुए जब हमने आपको देखा तो ठीक आपकी तरह ही ‘अभिभूत’ हो उठा।हमारी योजना है कि आज शाम चार बजे हमारी ‘ई-चर्चा’ में आप प्रमुख वक्तव्य दें।अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो हम जल्द ही आपके चालीस वीडियो बाज़ार में उतार देंगे।’ हमने अपनी पूरी योजना का ख़ुलासा कर दिया।उन्होंने सहमति देने में तनिक देरी नहीं दिखाई।उनकी इस उदारता को धन्यवाद देते हुए हम शाम चार बजे का इंतज़ार करने लगे।
ठीक चार बजे ‘वे’ स्क्रीन पर प्रकट हुए।आते ही उन्होंने साहित्य,समाज और राजनीति में फैले सन्नाटे को एक साथ लपेट लिया।बोलने लगे,‘मैं साहित्य के प्रति नियमित रूप से चिंतित रहता हूँ।इसीलिए साहित्य की स्थिति चिंताजनक है।मुश्किल यह है कि चिंता जताने वाले मंच नहीं मिल रहे।समारोहों,गोष्ठियों में पूर्णकालिक सन्नाटा तारी है।गोष्ठियों का शोर सुने ज़माना बीत गया।षड्यंत्र तक नहीं हो पा रहे हैं।यहाँ आकर लगा कि जब तक ‘कलेस’ ज़िंदा है,साहित्य बचा रहेगा।पूर्व कोरोना-काल में जहां साहित्य से प्रेम-गीत ग़ायब हो रहे थे,अब उनकी बाढ़ आने वाली है।कविजन कोरोना की जगह विरह-व्यथा से ग्रस्त हैं।घर में रहते हुए वे चैट तक से वंचित हैं।कोरोना प्रेम-शत्रु साबित हो रहा है।लोग प्रेम तो छोड़िए,ठीक से घृणा तक नहीं कर पा रहे हैं।लगता है,उत्तर कोरोना-काल में यह काम भी चमगादड़ ही करेंगे।असल साहित्यकार को सन्नाटे से घबराने की ज़रूरत नहीं है।वह सड़क का मज़दूर नहीं जो अपने काम ‘लाइव’ कर सके।ईश्वर ने यह हुनर हम जैसों को ही दिया है।’
तभी अचानक ‘ई-चर्चा’ डिसकनेक्ट हो जाती है।सामने टीवी पर एक ख़बर ‘टूटती’ है,‘दो हज़ार कोस दूरी नापकर अपने गाँव पहुँचे युवक ने चार घंटे बाद दम तोड़ा।’
अंदर का सन्नाटा इतना गहरा है कि इस खबर से भी नहीं टूटता।
संतोष त्रिवेदी
5 टिप्पणियां:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'बन्दी का यह दौर' (चर्चा अंक 3691) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
करारा कोरोना सन्नाटे में पकाये गये कुरकुरे व्यंजन की तरह।
करारा व्यंग्यात्मक लेख ।
सारगर्भित एवं विचारणीय व्यंग्य जो विसंगतियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है.
सादर.
कोरोना काल में बरसाती मेंढकों की टर्र टर्र का समवेत उदघोष बरपा है!
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