धीरे-धीरे सब कुछ खुल रहा है।लॉक-डाउन भी,वायरस भी और हम भी।पहले सरकार खुली फिर विपक्ष।वादों की तरह ‘हवाई-ट्रैक’ भी खुले।रेलगाड़ियाँ खुलीं तो उनके ड्राइवर भी खुल गए।जाना था दूलापुर ,पहुँच गए दौलतपुर।आख़िर कोई कहाँ तक धीर धरे ! सरकार ने कई दिनों तक पिटारी खोली फिर नियम खोले।विपक्ष ने दावे खोले,पोल खोली।सब अपनी-अपनी भूमिका पूरी निष्ठा से निभा रहे हैं।सबसे बड़ी ईमानदारी तो सियासत ने दिखाई।उसकी चाल वायरस से भी तेज हो गई है।शुरुआती संकोच के बाद सब अपनी-अपनी गोटियाँ उछाल रहे हैं।उनको लगता है वे सब रोटियाँ बनकर ज़मीन पर गिरेगीं।अजूबा तो इस बात का हो रहा है कि इतनी भीषण गर्मी में ठीक से रोटियाँ तक नहीं सिंक पा रही हैं।ग़रीब आदमी से सब बेइंतहा प्यार करने पर तुले हुए हैं।जब सरकार और विपक्ष दोनों उसे बचाने के लिए प्रतिबद्ध हो जाएँ,समझिए उसको कोई नहीं बचा सकता।ग़रीब का मरना कोई अनहोनी नहीं है,बल्कि ऐसे समय में उसका बच जाना अचरज से भरा है।
जब लॉकडाउन लगा तो विपक्ष ने ‘रहस्य’ खोला कि सरकार ने जल्दबाज़ी में कदम उठाया है।जब चरणों में लॉकडाउन खुलने लगा,तब आँखें खुलीं कि सरकार के ये ‘चरण’ तो बिलकुल ग़लत हैं।और तो और उसका ‘आचरण’ तक संदिग्ध है।वह बिना सोचे-समझे सब कुछ खोल रही है।कम से कम ‘पोल’ खोलने का अधिकार तो विपक्ष के पास होता।सरकार को लोकतंत्र की यह न्यूनतम मर्यादा रखनी चाहिए।पर सरकार भी क्या-क्या रखे ! उसके पास चतुर प्रवक्ता हैं जिनके पास जवाब देने से अधिक सवाल करने का हुनर है।
और वायरस का क्या कहना ! उसका चेहरा,चाल और चरित्र अबूझ है।सरकार से ज़्यादा जनता में उसकी घुसपैठ हो गई है।जब उससे बचने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही तब लोगों का डर भी खुलने लगा है।एक पुरानी मान्यता है कि जिस शत्रु से जीत न पाओ,उसे अपना लो।प्रेम में जान देने व लेने की हमारी पुरानी परंपरा रही है।जिस तेज़ी से हमारा डर भाग रहा है,उससे लगता है कि यह नामुराद वायरस अब तक हमें यूँ ही हलकान किए था।जबसे यह खबर आई कि इसके साथ ही जीना होगा,जीवन के प्रति सारी धारणाएँ बदल गई हैं।दुःखी लोग दार्शनिक हो गए हैं।भूख-प्यास से विरक्ति-सी हो गई है।जीवन से मोह नहीं रहा।लोग चलते-चलते मर रहे हैं।
रही बात डर की,जो आदमी बड़े और कड़े नियमों से नहीं डरता,वह एक वायरस से क्यों डरे ? डर के आगे वैसे भी जीत होती है।मरने का डर तभी तक रहता है जब तक जीने की कोई उम्मीद बचती है।वैसे भी डर का अपना बाज़ार होता है।जब डर पर्याप्त मात्रा में बिक जाता है तो स्वतः समाप्त हो जाता है।जैसे मार के आगे भूत भागते हैं,वैसे अब डर भाग रहा है।ऐसे माहौल में न हमें ,न ही कोरोना को मुँह छिपाने की ज़रूरत है।इसलिए वह अब निडरता से खुलेआम सड़कों और मुहल्लों में जीवन-प्रसाद की तरह बँट रहा है और हम बाँट रहे हैं।जब सबको इस बात का भरोसा हो गया तो सारा डर खुल गया।वैसे भी आदमी मरने से नहीं उसकी खबर से डरता है।
एक आपदा ने न जाने क्या-क्या खोल दिया है ! जो होशियार हैं,वे इसे अवसर की तरह ले रहे हैं।सूखा और बाढ़ जैसी आपदाएँ तो अब सामान्य हो चली हैं।उनमें अवसर भी सीमित हैं।ऐसी आपदा बड़े भाग्य से सदियों में आती है।इसमें संभावनाएँ भी अधिक हैं।इसलिए जमाख़ोर और कमीशनखोर पूरी निष्ठा से ‘आपदा में अवसर’ आह्वान का पालन कर रहे हैं।कुशल व्यापारी कभी घाटे में नहीं रहता।वह किसी भी आपदा को अवसर में बदलने का हुनर रखता है।बाज़ार के अलावा साहित्य भी यही कोशिश कर रहा है।कुछ लोग मरते हैं,कुछ उन पर कहानियाँ रचते हैं।शोक-गीत गाए जाते हैं।कवि और लेखक गोष्ठियों के बजाय सोशल मीडिया पर खुल रहे हैं।संवेदनाएँ भरे पेट से बाहर आ रही हैं।वरिष्ठों ने इस मामले में नवोदितों को किनारे लगा दिया है।बरसों से उपेक्षित रहे वरिष्ठ अब कहीं जाकर मुख्य-धारा से जुड़ सके हैं।आलोचकों की कोई नहीं सुन रहा है।सब अपनी-अपनी सुना रहे हैं।जिन रचनाओं को वे कभी लिखकर ख़ुद नहीं समझ पाए,उन्हें सोशल-मीडिया में दैनंदिन रूप से खोल रहे हैं।पाठकों और श्रोताओं के लिए यह नई तरह की आपदा है।वे विचलित हैं।पहले गोष्ठियों और समारोहों में जाकर बोर होते थे,अब घर बैठे हो रहे हैं।इस आपदा से हमें सिर्फ़ इतना ही फ़र्क़ पड़ा है कि हमारी बोरियत बदल गई है।इसे सकारात्मक रूप से लेने की ज़रूरत है।भले ही कुछ लोगों को मुट्ठी-भर अनाज नहीं मिला हो,अपने घर नहीं लौट सके हों पर इस आपदा ने बहुतों के पेट और अरमान दोनों भरे हैं।
आने वाले दिनों में कुछ और चीजें खुलेंगी।कुछ पत्र खुलेंगे,कुछ पैकेज भी।तब तक टेलीविजन और रेडियो खोलकर रखें।क्या पता कब कोई अच्छा पैकेज आ टपके और हम लपकने से चूक जाएँ !
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
बहुत संयत, स्वस्थ, सामयिक, सार्थक और पैनी धार वाला व्यंग्य! साधुवाद!
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