आजकल जिसे देखो,वही संघर्ष से ‘लैस’ दिखता है।सबके संघर्ष अलग-अलग हैं।जिसका जैसा क़द,वैसा संघर्ष।कुछ का संघर्ष महज़ पेट भरने के लिए होता है।वे जीवन भर यही करते हुए ख़र्च हो जाते हैं।किसी को प्रेरित तक नहीं कर पाते।जिसका पेट भरा होता है,वह और पैसे के लिए संघर्ष करता है।थोड़ा अहिंसक क़िस्म का हुआ तो पारंपरिक भ्रष्टाचार करके ही संतुष्ट हो लेता है।वह सदैव गांधीवाद के रास्ते पर चलता है इसलिए नए प्रयोग करने से बचता है।जब उसकी जेब नहीं भरती,काम करने में ‘असहयोग आंदोलन’ शुरू कर देता है।अगर संघर्ष ज़्यादा बड़ा हुआ तो लूट-खसोट और फ़िरौती जैसा ‘सम्मानजनक’ पेशा अपनाता है।आए दिन अख़बारों में ख़बरें बनाता है फिर एक दिन ख़ुद ख़बर बन जाता है।लेकिन ऐसे संघर्ष कम प्रभाव छोड़ते हैं।जो लोग सालोंसाल सत्ता-संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं,लोकतंत्र के असली रक्षक वही होते हैं।हर हाल में कुर्सी पाने और बचाने का संघर्ष उच्च कोटि का माना गया है।यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है।
इधर संघर्ष को एक नया आयाम मिला है।पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी तक आते-आते संघर्ष बहुत बदल गया है।हाल में एक वरिष्ठ सत्ता-सेवक ने इसका रहस्य सरेआम कर दिया।उनके शब्दों में, “नई पीढ़ी के सुदर्शन चेहरों की ढंग से ‘रगड़ाई’ नहीं हुई।वे बस फ़र्ज़ी चमक बनाए घूमते रहते हैं।इससे वे निकम्मे और नकारा हो गए।बड़ों की भूख का लिहाज़ भी नहीं करते।सत्ता की महक पाकर उनसे रहा नहीं जाता।सही बात तो यह है कि चेहरा चिकना भर होने से आदमी चिकनी-चुपड़ी भाषा नहीं बोलने लगता।इसके लिए पर्याप्त तेल-मालिश की ज़रूरत होती है।‘रगड़ाई’ की एक लंबी प्रक्रिया है जिसे पूरा किए बिना सियासत में सफलता नहीं मिल सकती।अगर ऐसे लोग शुरुआत से ही ‘रगड़े’ जाते तो आलाकमान को जगह-जगह ‘पर्यटन-स्थल’ नहीं खोलने पड़ते।इस पीढ़ी को यह तक नहीं पता कि ‘राजपथ’ का रास्ता ‘जनपथ’ से होकर जाता है।काँटों भरी पगडंडियों पर नंगे पाँव चलना होता है।नई पीढ़ी को ठीक तरह से शीर्षासन तक करना नहीं आता।हमारी पीढ़ी के संघर्ष से इन्हें सबक़ लेना चाहिए।उस वक़्त कार्यकर्ता चप्पल उठाने से लेकर सब्ज़ी-भाजी तक आलाकमान के घर पहुँचाते थे।सियासत में ऐसी ही सेवा से ‘वैभव’ बढ़ता है,किसी जादू से नहीं।लेकिन आज की पीढ़ी ‘फ़ास्ट-फ़ूड’ की तरह सत्ता पाना चाहती है।उसे कौड़ी-भर की जनसेवा के बदले करोड़ों की ‘डील’ चाहिए।अपनी नहीं तो कम से कम उसे हमारे स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए।”
पहली बार मुझे किसी जनसेवक की बातें व्यावहारिक लगीं।साहित्य को लेकर मेरी चिंता बढ़ने लगी।मैंने तुरंत सोशल मीडिया में विमर्श झोंक दिया,‘साहित्य में रगड़वाद की संभावनाएँ’।विमर्श शुरू होते ही दो गुट बन गए;एक पुरानी पीढ़ी का,दूसरा नई पीढ़ी का।नई पीढ़ी के लेखक ज़्यादा मुखर थे।एक नवोदित लेखक ने तो यहाँ तक कह दिया कि आजकल साहित्य में ‘मुँह’ देखकर आलोचना की जाती है।इस पर प्रसिद्ध आलोचक भड़क उठे।उन्होंने फटकार लगाते हुए कहा,‘भाषा का शऊर नहीं तो कम से कम गरिमा का ख़याल रखें।कृपया अशालीन टिप्पणियों से परहेज़ करें।नई पीढ़ी को संघर्ष के बारे में धेला भर का ज्ञान नहीं।इनके ‘संघर्ष’ में वह वजनता नहीं दिखती,जो हमारी ‘रगड़ाई’ में है।एक और राज की बात बताता हूँ।लेखन में पहचान यूँ ही नहीं बनती।पहले मैं लेखक ही था पर किसी ने नहीं माना।फिर मैंने कई वरिष्ठों की ढंग से ‘रगड़ाई’ की।लेखन में केवल खोट को ‘कोट’ किया।उनकी भाषा को भूसा बना दिया।इससे कई लाभ हुए।आलोचक तो बना ही लेखक के रूप में भी स्थापित हो गया।नई पीढ़ी में मेरा आतंक क़ायम हुआ सो अलग।इस प्रक्रिया में भले कई साल लग गए हों पर अब कोई भी मेरे लेखन पर सवाल नहीं उठाता है।’
इसके बाद विमर्श में एक चर्चित लेखक कूद पड़े।वे नई पीढ़ी के प्रतिनिधि लेखक हैं।उन्होंने टिप्पणी की, ‘हम लिखने को लेकर बिलकुल सहज हैं।कुछ लोग लेखन में बेवजह गंभीर हो रहे हैं।मेरे लिए लिखना ‘नित्य-क्रिया’ के जैसा है।साहित्य में ‘रगड़ाई’ जैसे आतंक से मेरा कभी सामना ही नहीं हुआ।पहले मैं संपादक बना,फिर लेखक।अगर किसी को लेखक बनना है तो सबसे पहले उसे उसे आधुनिक तौर-तरीक़ों से परिचित होना चाहिए।नई पीढ़ी के लिए मैं प्रेरणास्रोत हूँ।’
उनकी ‘नित्य-क्रिया’ वाली टिप्पणी पर पर्याप्त हल्ला मचता इसके पहले ही एक बुजुर्ग बुद्धिजीवी वहाँ दाख़िल हो गए।उन्होंने समस्त साहित्य को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।कहने लगे, ‘ आज का साहित्य नक़ली संघर्ष में उलझा हुआ है।देश में रोज़ लोकतंत्र ‘रगड़ा’ जा रहा है।सत्य को परेशान किया जा रहा है।उसकी कई दिनों से कोई ख़बर नहीं है।प्राण-रक्षा के लिए बार-बार उसे अपनी ‘लोकेशन’ बदलनी पड़ रही है।।इसकी चिंता करने के बजाय लेखक साहित्य में ही ‘रगड़वाद’ लाने पर आमादा हैं।हम समस्त बुद्धिजीवी इसकी निंदा करते हैं।’
इसके साथ ही विमर्श का सुखद अंत हुआ।सत्ता का संघर्ष अब लोकतंत्र का संघर्ष बन गया।
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
कोई भी तंत्र हो ताँत्रिक ना हो पाये तंत्र कम से कम बचा रहे लोक ही सही। सुन्दर :)
एक टिप्पणी भेजें