रविवार, 4 अक्तूबर 2020

सोशल मीडिया में कवि का ‘लाइव-दर्द’

मैं जन्मजात कवि हूँ।इस बात की गवाही मेरे पड़ोसी दे सकते हैं।पैदा होते ही जैसे तुलसी के मुँह सेरामनिकला था,मेरे मुँह सेक्रांतिनिकली थी।मेरे करुण-क्रंदन से पूरा मुहल्ला रात भर जागता रहा।शुरू से ही मैंजन-जागरणके काम में लग गया था।यहीं से मुझमें कविता के बीज पड़े और कालांतर में मैं साहित्य में स्थायी रूप से स्थापित हो गया।मेरे मुख से निकला हर शब्द कविता बनकर बहने लगा।मेरे अंदर अथाह दर्द था।यह दर्द दिन में कई बार अंदर से पानी के सोते जैसा फूटता।दर्द की व्यापकता देखते हुए कुछ समय के लिए मैंने सरकारीबोरवेलभी काम में लगाया।पता चला कि बिना सरकार की सहायता से पूरा और समुचित दर्द बाहर नहीं पाएगा।जल्द ही मेरे दर्द-प्रवाह से पूरा साहित्य डूबने लगा।साहित्य को इसदर्दनाकस्थिति से बचाने के लिए सरकार को फिर मोर्चा संभालना पड़ा।उसने पहले मुझे अकादमी में डाला,फिर मेरी कविताओं को स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में बहाया तब कहीं जाकर मेरे दुःख का प्रवाह थमा।साहित्य के सभी सक्रिय गुटों ने मेरी प्रतिभा के सामने आत्म-समर्पण कर दिया।दर्द से मेरा इतना निजी लगाव हो गया कि जो मुझसे मिलता कराह उठता।

उन दिनों मैं साहित्य की हरदुर्घटनाके केंद्र में था।आयोजक मुझे प्रत्येक समारोह में बुलाते।सारे सरकारी-असरकारी आयोजन मेरे बिना असरहीन होते।जिस गोष्ठी में नहीं होता,उसे कोईनोटिसनहीं लेता।जहाँ पहुँच जाता,जमकर बवाल होता।मेरी कविता ही मेराबयानहोती।वरिष्ठ कवि तो मेरी कविता के आतंक से मंच पर ही धराशायी हो जाते थे।उस वक़्त श्रोताओं पर क्या गुजरती रही होगी,बताने की ज़रूरत नहीं।कुल मिलाकर गोष्ठीहिटहो जाती।बहुत बाद में मुझे अपने महत्व का अहसास हुआ।सफलता मेरे कदम चूम रही थी और मेरे कदम राजपथ को।

यह स्थिति तब बदली जब बरसों से बैठी सरकार अचानक बदल गई।जो लोग कहते हैं कि सरकारों के बदलने से कुछ नहीं होता,वे झूठे और अहमक लोग हैं।उन्हें मुझसे प्रेरणा लेनी चाहिए।मैं प्रोफ़ेसर बनने की लाइन में सबसे आगे था कि मुझ पर सहसा साहित्याघात हो गया।जिस नालायक को हर मंच में रद्दी कविता बाँचने का लिफ़ाफ़ा मेरी कृपा से अब तक मिलता रहा,मेरी जगह सूची में वह था।मुझे सभी अकादमियों से ससम्मान आराम दे दिया गया।मेरी कविताएँ सरकारी यूनिवर्सिटी से निकलकर व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में बाँची जाने लगीं।इतना होने के बावजूदसौभाग्यने मेरा साथ नहीं छोड़ा।मेरे दुःख-दर्द में और निखार गया।कई आलोचकों ने मेरे दर्द की तीव्रता को समझकर अग्रिम श्रद्धांजलि तक अर्पित कर दी।उनके अनुसार इतने दर्द के साथ जीने वाला प्राणी इस लोक में हो ही नहीं सकता।बहरहाल,आज आप सोशल मीडिया में मुझेज़िन्दासुन रहे हैं।मुझे ख़ुशी है कि मेरे दर्द को अव्वल नंबर की रेटिंग मिली है।

 

मेरी कविता में सच्चा दर्द है।मेरी कविता सुनकर श्रोता पानी माँगने लगते हैं और आयोजक अपना लिफ़ाफ़ा।उन्हें भी बराबर दर्द उठता है।वे कहते हैं मेरी कविता अनमोल है।क्रांति की सूत्रधार है मेरी कविता।दरअसल मेरा कवि होना मेरे हाथ में नहीं था।यह हिन्दी-साहित्य की इच्छा थी कि मैं कवि बनूँ और क्रांति करूँ।बाज़ार हो या साहित्य,दर्द की माँग सर्वत्र है।सरकार भी इसके लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।


आधुनिक कविता ने छायावाद ,प्रयोगवाद से होते हुए प्रगतिवाद की लंबी यात्रा की है।लेकिन इसप्रगतिपर अब ग्रहण लग रहा है।मेरी एक ताज़ी कविता देखिए और अगर दर्द उठे तो ज़ाहिर कीजिए;


कविता के लिए सबसे कठिन समय है यह

कवि के लिए उससे भी अधिक 

अंदर से वह जार-जार रो रहा है 

हँसने के लिए वह लगातार मुँह धो रहा है।


सूख गए हैं उसके सारे स्वप्न 

नहीं बचे हैं उसकी कविता में गाँव और ग़रीब

भूखे किसान औरवह तोड़ती पत्थर’ 


ये सब सियासत का औज़ार हैं   

सारे कवि बेरोज़गार हैं


कविवर ने जैसे ही यह कविता सोशल मीडिया मेंलाइवबाँची,क्रांति की बयार गई।पूरी कवि बिरादरी सरकार पर टूट पड़ी।एक नवोदित कवि ने टिप्पणी की कि उसकाकैरियरशुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गया।चार-लाइना सुनाने पर पहले तालियों के साथ रक़म भी मिलती थी।गोष्ठियाँ बंद होने से लिफ़ाफ़े ग़ायब हो गए हैं।सरकार कम से कम शव-यात्रा की तरह बीस श्रोताओं को अनुमति देकरकवि-सम्मेलनखोल सकती है।आख़िर हम मुर्दे से भी गए-गुजरे तो नहीं ?’


एक बुजुर्ग किसान भी सोशल-मीडिया में कविवर कोलाइवहोते देख रहे थे।एकदम से भावुक हो उठे।काँधे पर रखे हल को नीचे रखकर अपनी टेढ़ी हो चुकी उँगलियों से वे टिपटिपाने लगे, ‘कबिराज,हमें कविता का भाव तो समझ में आयो पर तुमाए हाव-भाव देखकर लग रओ है कि घणे दुक्ख में हो तुम ! हमतो अब तक भरम में ही जी रए थे।तुम्हारा दुक्ख हमाए से कहीं ज़्यादा लग रओ।मरहम की ज़रूरत तो तुम्हें है जी।कल ही हमाए खाते में सरकार जी ने दो हज़ार रुपए टप्प से डाल दओ है।सोच नहीं पा रहे कि इन्हें खर्च कैसे करें ! तुम्हारा दुक्ख देखा तो रस्ता भी मिल गओ।सरकार हमारा तोन्यूनतम समर्थनकरने को तैयार ही है।इसलिए हमें अब अपनी नहीं तुमाई चिंता है।हम तुम्हाराअधिकतम समर्थनकरते हैं।


संतोष त्रिवेदी 






3 टिप्‍पणियां:

विश्वमोहन ने कहा…

लाजवाब व्यंग्य!!!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत खूब।

Pratik Maheshwari ने कहा…

शानदार व्यंग्य है, मास्साब!

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