रविवार, 18 अप्रैल 2021

कोरोना और उनकी दूसरी लहर !

जनसेवक जी खचाखच भरी रैली में नहाकर रहे थे।चेहरा चूँकि शर्म और मास्क-विहीन था इसलिए सफलता साफ़ नज़र रही थी।मुझे देखते ही वे अतिरिक्त उत्साह से भर गए।उनके चेहरे से इतना आत्म-विश्वास टपक रहा था कि यदि उस वक्त मैं उनसेदो गज की दूरीपर होता तो ख़ुद उसआसमानी आत्म-विश्वाससे लैस हो जाता।एकबारगी मुझे स्वयं पर शर्म आने लगी।देश में चहुँ-दिसि छाएपॉज़िटिवमाहौल को नकारात्मक नज़रिए से देखने के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार समझने लगा।तभी जनसेवक जी ने मेरी दुविधा ताड़ ली।वे चुनाव-सिंचित वाणी में बोलने लगे, ‘मित्र ! इसमें आपका दोष किंचित मात्र नहीं है।हम तो कर्मवीर,वाणीवीर और भाग्यवीर ठहरे।अपना कर्म नियत तरीक़े से कर रहे हैं।केवल कर्म पर हमारा अधिकार है,यह गीता में भी कहा गया है।इसलिए कर्म करने में कैसी शर्म ! जनता ने हमें चुना इसीलिए है कि हम चुन-चुनकर उसका उद्धार करें।चुनाव तो हमारे लिएअश्वमेध-यज्ञके समान है।आख़िरी घोड़े की जीत से पहले हम विश्राम नहीं कर सकते।ज़ाहिर है,इसमहायज्ञमें अनेक आहुतियाँ भी होंगी।हम उनके असीम बलिदान और योगदान को कभी नहीं भूलेंगे।हमने पहले भी बदलाव किए हैं,आगे भी करते रहेंगे।इसके लिए हम प्रतिबद्ध हैं।आप ज़रा-सा चश्मा हटाकर देखें,मेरी ही लहर चल रही है।


पर मेरी तो चिंता दूसरी लहर के बारे में है।यह वाली कुछ ज़्यादा ही बड़े बदलाव कर रही है।देश में एक ऐसी नासमझ भीड़ पैदा हो गई है जो रैलियों और मेलों के बजाय अस्पतालों,स्टेशनों और  श्मशानों में उमड़ रही है।चिताएँ शवदाह-गृहों के बजाय सड़कों और खुले मैदानों में जल रही हैं।इससे चुनावी-संभावनाएँ तिरोहित होने का ख़तरा तो नहीं पैदा हो गया है ?’ मैंने एक बेहद ज़रूरी सवाल पूछ लिया।


देखिए,हम सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं।इसलिए यहाँ लोकतंत्र और आस्था का पर्व हम एक साथ मना सकते हैं।लोग अपनी और अपनी आस्था की रक्षा के लिए स्वतंत्र हैं।यह महामारी बेरोज़गारी की तरह कहीं भागी नहीं जा रही हैं।हम बाद में भी निपट लेंगे।यह अब हम सबके साथ ही रहने वाली है।एक और महत्वपूर्ण बात।कोरोना-वायरस सरकार से भी ज़्यादा बदल रहा है।जो नामुराद वायरस ताली और थाली बजाने भर से भाग रहा था,वह अब गाल बजाने से भी नहीं जा रहा है।हम चाहते हैं कि लोग इससे होने वाली मौतों से क़तई विचलित हों।मृत्यु तो हम सबका आख़िरी पड़ाव है।अंतिम लक्ष्य से कैसा डर ? डर के आगे हीजीतहै।वो हमें जल्द मिलने वाली है।हक़ीक़त यह है किचुनावी-रेलेऔर आस्था के मेले हमें नई ऊर्जा देते हैं।इसलिए हम जान पर खेलकर भी लोगों की आस्था की रक्षा करते हैं।ज़्यादातर लोगों की आस्था अस्पतालों के बजाय मंदिर-मस्जिद में ही है।यही वजह है कि लोगों का भरोसा सरकार से भी ज़्यादा भगवान पर है।अब जनभावनाओं का सम्मान हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?’ जनसेवक जी बिना नज़रें झुकाए एक साँस में सब कह गए।


मुझे उनकी बातें सुनकर गहरा इत्मिनान हुआ।मैंने उनकी आगामी कार्य-योजना के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की।उन्होंने अपनी आँखे मूँद ली और भावशून्य होते हुए बोले,‘ताबड़तोड़ हो रही मौतों का जवाब हम ताबड़तोड़ रैलियों से दे रहे हैं।हम कभी झुके हैं, झुकेंगे।मुई बेरोज़गारी की तरह ही इस नई महामारी में भी हम लोगों को आत्म-निर्भर बना रहे हैं।समझदारी में हमने पहले ही समानता स्थापित कर दी है।जनता और सरकार समान रूप से वायरस का स्वागत कर रहे हैं।बिना जनता के सक्रिय सहयोग के हम रोज़ नए रिकॉर्ड नहीं बना सकते थे।हम तो इतने उदार हैं कि इसऐतिहासिक उपलब्धिका श्रेय जनता को ही दे रहे हैं।हमारे लिए वही सर्वोपरि है।यह बातपोरिबर्तनके बाद और साफ़ हो जाएगी।और कोईकठिन सवालबचा हो तो बताइए,अभी हल कर देते हैं।


नहीं,एक सरल सवाल ज़रूर बचा है पर इसका उत्तर ज़रूरी नहीं है।यही कि दिन-रात टीके को कोसने वाले अब नए सिरे से कोसने की संभावनाएँ तलाश रहे हैं।उनका मानना है कि टीके तक पर्याप्त नहीं हैं।ज़्यादा टीके होते तो वे बेहतर ढंग से उनकी बर्बादी को कोसते।सरकार ने उन्हें यह मौक़ा पूरी तरह क्यों नहीं दिया ?’



जनसेवक जी इस पर कुछ कहते कि तभी सामने से कविश्री आते दिखाई दिए।सोशल-मीडिया से ताज़ा डुबकी लगाकर लौटे थे।उनकी कविताओं की दूसरी लहर कोरोना से भी अधिक मारक साबित हो रही है।कुछ प्रगतिशील आलोचकों का मानना है कि अगर उनकी नई कविता किसी यूनिवर्सिटी में लग गई तो कम से कम तीन पीढ़ी तक उनका भला हो जाएगा।जनसेवक जी के विशेष आग्रह पर उन्होंने कविता का एक अंश पेश किया;


परीक्षाओं से घबराते हैं बच्चे

उन्हें देने होते हैं हल।

नेता बच्चे नहीं हैं

वे केवल करते हैं चर्चा 

और सवालों को देते हैं कुचल।


इन क्रांतिकारी पंक्तियों को सुनते ही जनसेवक जी उछल पड़े।मुझसे कहने लगे,महामारी का सटीक इलाज मिल गया।सोशल मीडियाके सभी श्रद्धालुओं को महीने भर इसका नियमित रसपान कराइए,लोगहारी-बीमारीभूलकर केवल कवि को याद रखेंगे !



6 टिप्‍पणियां:

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 19-04 -2021 ) को 'वक़्त का कैनवास देखो कौन किसे ढकेल रहा है' (चर्चा अंक 4041) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

#रवीन्द्र_सिंह_यादव

जितेन्द्र माथुर ने कहा…

सटीक व्यंग्य। अत्यधिक प्रशंसनीय।

Abhilasha ने कहा…

सटीक और सार्थक व्यंग्य वर्तमान परिदृश्य पर करारा कटाक्ष

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

सभी का आभार 🙏

Anuradha chauhan ने कहा…

सटीक व्यंग। बेहतरीन प्रस्तुति 👌

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बढिया

साहित्य-महोत्सव और नया वाला विमर्श

पिछले दिनों शहर में हो रहे एक ‘ साहित्य - महोत्सव ’ के पास से गुजरना हुआ।इस दौरान एक बड़े - से पोस्टर पर मेरी नज़र ठिठक ...