लोकतंत्र और संविधान बचाने की क़सम खाकर वह जैसे ही बाहर निकले हम उनकी ओर लपके।वह भारी भीड़ से घिरे थे।हमें देखते ही उन्होंने कार्यकर्ताओं को किनारे कर दिया।उन्हें शुभकामनाएँ देते हुए हमने समय माँगा तो बोले,‘मुझे ख़ुशी है कि आप मेरी आवाज़ जनता तक पहुँचा रहे हैं।मेरी संपूर्ण काया अब देश को समर्पित है।आप जो भी बात कर रहे हैं,समझिए कि देश से कर रहे हैं।कहिए कहाँ चलकर बात करें ?’ उनकी इस उदारता पर निछावर होते हुए मैंने तुरंत प्रस्ताव फेंका,‘कोने में ठीक रहेगा ?’ वह हँसते हुए बोले, ‘क्यों नहीं ! बस हमें अख़बार के कोने में मत धकेल दीजिएगा।मैं तो चाहता हूँ कि देश की युवा पीढ़ी मेरे संघर्ष से प्रेरणा ले।मेरी संघर्ष-कथा को यदि मुख्य पन्ने पर स्थान मिले तो जनता का बड़ा हित होगा।’
उनकी यह बात सुनकर मैं दंग रह गया।ऐसे समय में जब जनहित का भयंकर ‘टोटा’ पड़ा हो,उसकी बात भी करना किसी दुस्साहस से कम नहीं।ऐसे में उनका जनता और उसके हित के बारे में सोचना,सोने में सुहागा है।मन ही मन सोचने लगा कि इतने सरल और सच्चे लोग अभी भी राजनीति में बचे हुए हैं।तसल्ली हुई कि सही आदमी से सवाल कर रहा हूँ।बिना देरी किए मैंने बात जारी रखी,‘आपको मंत्रिमंडल में शामिल होने पर कैसा लग रहा है ?’
‘जी,मंत्रिपद मिलना कोई लॉटरी लगने जैसा नहीं है।हमने इसके लिए बक़ायदा ‘होमवर्क’ किया है।पुरानी विचारधारा त्यागी।‘नई निष्ठा’ पकड़ी।भाई-भतीजे छोड़े।पुरानी पार्टी व पुराने समीकरण तोड़े।जातीय,क्षेत्रीय और चुनावी-एंगल वाले कई ‘टेस्ट’ पास किए।तब जाकर यहाँ तक आए हैं।इतनी मेहनत का फल तो मिलना ही था।सबसे ज़रूरी बात यह कि मंत्री बन जाने से ज़्यादा ख़ुशी मुझे दार्शनिक हो जाने की है।अचानक मैं सुख और दुःख जैसे सांसारिक चोंचलों से परे हो गया हूँ।पहले मुझे जो विकराल समस्याएँ लगती थीं,अब ज़रूरतें लगने लगी हैं।हमारी सोच का दायरा पेट्रोल-पंप के मीटर से भी ज़्यादा बढ़ रहा है।हमें साफ़ और सिर्फ़ बेहतर दिखे इसलिए चश्मा भी बदल लिया है।इससे भ्रष्टाचार और महँगाई जैसी सारहीन चीजें दिखती ही नहीं।निवेदन है कि सवाल भी आप ज़रा सलीके वाले करें।‘ट्विटर’ जैसा व्यवहार क़तई न करें।’
‘आप बिलकुल निसाख़ातिर रहें।हम बहुत ज़िम्मेदार अख़बार से हैं।यह सुनने में आया है कि नाराज़गी के चलते आपको मौक़ा दिया गया।आख़िर किस बात से नाराज़ थे आप ?’अपने सुर को और मधुर बनाते हुए हमने सवाल किया।
‘देखिए, हमें किसी पद की लालसा कभी नहीं रही।हमारा पूरा जीवन संघर्ष में बीता है।संघर्ष करते गए,पद अपने आप मिलते गए।हाँ,मेरे लोग ज़रूर नाराज़ थे।कार्यकर्ताओं ने हमें जिताने के लिए कड़ा संघर्ष किया था।उनका संघर्ष व्यर्थ हो जाता यदि मैं जनता की सेवा न कर पाता।बड़े दिनों बाद घर में बच्चे बहुत ख़ुश हैं।कार्यकर्ताओं से ज़्यादा रिश्तेदारों के फ़ोन आ रहे हैं।हमारे लिए सबसे बड़ी ख़ुशी यह है कि इस बहाने हमें अपना परिवार बढ़ाने और जानने का अवसर मिला।इसके लिए हम आलाकमान के शुक्रगुज़ार हैं।दरअसल,जब भी मुझे जनसेवा करने से वंचित किया जाता है,विद्रोही हो उठता हूँ।इसके लिए मैं किसी बात का लिहाज़ नहीं करता।मेरे लिए जनसेवा सर्वोपरि है।वह हम हर हाल में करके रहेंगे।मेरे इस संकल्प के पीछे ख़ास वजह है।बचपन में ही एक बड़े ज्योतिषी ने बताया था कि मेरी कुंडली में राजयोग है।फिर इसे नकारने वाले हम और आप कौन होते हैं !’ वह अपने मंत्रालय की नई बनी इमारत की ओर निहारते हुए बोले।
तभी सामने से मास्क लगाए दूसरे सज्जन तेज़ी से निकलते दिखाई दिए।हमने उनको टोक दिया।वह थोड़ा ठिठके।फिर मेरी ओर निहारने लगे।‘भई,मैं उनतालीस मिनट पहले तक मंत्री था,अब नहीं।अब मुझसे क्या पूछोगे ?’ कहते-कहते वह भर्रा उठे।
‘हमारी पूरी संवेदना आपके साथ है।हम आपसे बस इतना जानना चाहते हैं कि मंत्रिमंडल से आपकी निकासी के पीछे क्या कारण रहे ?’ हमने बड़ी मासूमियत से पूछ लिया।
‘ज़्यादा कुछ तो मुझे भी नहीं मालूम,पर सुनने में आ रहा है कि आलाकमान कहता है कि उसे ‘चकमक पत्थर’ नहीं ‘पारस’ चाहिए।ऐसा बंदा हो जो एक साथ कई ‘काम’ निपटा सके।मैं दिन भर में तीन-चार ग़ुस्से भरे ट्वीट कर देता था।इससे ज़्यादा ‘परफोर्मेंस’ नहीं दे सकता।‘बैन’ हो जाता।हाँ,कुछ लोगों को ज़रूर मेरी सूरत नापसंद थी।विपक्षी इतने भर से ही लहालोट हैं कि कुछ ‘पक्षियों’ के पर कतरे गए हैं।कुछ अहमक यह भी कह रहे हैं कि बहुत दिनों बाद आख़िरकार सरकार के हाथ ‘मास्टर-स्ट्रोक’ लगा है।बाक़ी असल ‘स्ट्रोक’ किसे लगा है,यह आप लोग ही बताएँगे।मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मेरे प्रदेश में फ़िलहाल चुनाव नहीं हैं।मेरी क़िस्मत ही ख़राब है।’ यह कहते हुए वह बिना मेरा कोई उत्तर सुने आगे बढ़ गए।
तब तक भीड़ छँट चुकी थी।क़सम खाने वाले मंत्री भी जा चुके थे।शाम का धुँधलका गहराने लगा था।मैं अख़बार के दफ़्तर की ओर निकल पड़ा।देखा,दूर अभी भी एक ‘चिराग़’ जल रहा था।
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
जी,मंत्रिपद मिलना कोई लॉटरी लगने जैसा नहीं है।हमने इसके लिए बक़ायदा ‘होमवर्क’ किया है।पुरानी विचारधारा त्यागी।‘नई निष्ठा’ पकड़ी।भाई-भतीजे छोड़े।पुरानी पार्टी व पुराने समीकरण तोड़े।जातीय,क्षेत्रीय और चुनावी-एंगल वाले कई ‘टेस्ट’ पास किए।तब जाकर यहाँ तक आए हैं।
सटीक।
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