सच्चे गुरू की खोज में सब रहते हैं,पर सच्चे चेले के लिए कभी गंभीरता से खोज हुई हो,नहीं मालूम।साहित्य के विद्वानों से यह भारी चूक हुई है।जहाँ कठिन साधना से एक अच्छा-ख़ासा गुरू साधा जा सकता है,वहीं उभरता हुआ चेला शायद ही किसी से सधा हो ! सच तो यह है कि पहुँचा हुआ गुरू भी सामान्य क्वॉलिटी का ही चेला चाहता है।उन्नत क़िस्म का चेला कब शातिर हो जाए,कोई नहीं कह सकता।साहित्य में हमने गुरू-महिमा ख़ूब पढ़ी और सुनी है।गुरुओं पर पुराणों के पन्ने रंग डाले गए हैं पर मजाल है कि चेलों पर कोई चुटका भी लिखा गया हो ! साहित्य शुरू से ही गुरुओं के पक्ष में झुका रहा है।चेले हमेशा ‘अंडररेट’ किए गए।उन्हें ‘गुरु बिन लहै न ज्ञान’ कहकर भरमाया गया।जबकि सच तो यह है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई चेला अपना वक्त बर्बाद नहीं करता।आजकल के गुरू इसीलिए ‘ज्ञान’ के बजाय ‘सम्मान’ बाँट रहे हैं।
लायक चेले जहाँ आज भी गुरू-गान परंपरा का बखूबी निर्वाह कर रहे हैं,वहीं उनके लिए ‘दो शब्द’ कहने में गुरुजी के पसीने छूटने लगते हैं।सिद्ध गुरुओं का मानना है कि ऐसी ‘आशीर्वादी-समीक्षाओं’ से कभी कोई लेखक नहीं बना।वे इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।ऐसे गुरू इतने महान और साहसी होते हैं कि वे चेले के मुँह पर ही उसकी प्रशंसा करके हाथ झाड़ लेते है,पीठ पीछे नहीं।चेले फिर भी अपना धर्म निभाते हैं।कालांतर में गुरूजी को तबियत भर गुरूदक्षिणा देते हैं।तभी उनका उद्धार होता है।
हालाँकि गुरू-चेले का संबंध बड़ा संवेदनशील और बेहद आपसी मसला है पर चेलों के बारे में जानना ज़रूरी है।इनके ऊपर अभी तक कोई विस्तृत शोध नहीं हुआ है।इस वजह से उनकी तमाम विशेषताओं से अधिकतर गुरु अनजान रहते हैं और गच्चा खा जाते हैं।साहित्य में सफल गुरू बनने के लिए ज़रूरी है कि चेलहाई के सारे दाँव-पेंच आने चाहिए।यह तभी संभव है,जब वह ख़ुद विशुद्ध चेला रहा हो।जितना घुटा और ख़ालिस चेला होता है,आगे चलकर वह उतना ही शातिर गुरू बनता है।असल चेला तो वही है जो गुरू को उसके ही अखाड़े में पछाड़ दे।इनमें ज़बर्दस्त प्रतिबद्धता होती है।हमारे एक प्रसिद्ध गुरू का कहना था, ‘ पहले एक छोटे अखाड़े में प्रवेश करिए।अपने गुरु की सेवा कर दो-चार पैंतरे सीखिए और फिर दाँव पाते ही सबसे पहले गुरु को ही चित्त कर दीजिये।’ इस सबक़ के बाद ही गुरुजी ‘भूतपूर्व’ हो गए।ज्ञानी जन इसे गुरूद्रोह नहीं कहते।इससे गुरू को वास्तविक मुक्ति मिलती है;साहित्य से भी और इस भौतिक संसार से भी।जो वाक़ई में ‘गुरू’ होते हैं,वे ऐसे चेलों के इरादे पहले ही भाँप लेते हैं।उन्हें इस तरह के ‘मुक्ति-अभियानों’ पर क़तई भरोसा नहीं होता।अपने चेले से वे हमेशा सतर्क रहते हैं।उनमें गुरूदक्षिणा ग्रहण करने की लालसा भी नहीं बचती।यह भी एक समर्पित चेले की सफलता है।
चेलहाई का काम सबसे कठिन होता है।अपने मनोरथ दबाकर गुरू जी पर फ़ोकस करना पड़ता है।चेला गुरुजी का ‘साहित्यिक-स्टॉल’ चलाता है,मजूरी में उसे साहित्य का हर ‘सम्मान’ मिलता है।चेला जब तक ठीक-ठाक नहीं लिखता-पढ़ता,गुरुजी का आशीष बना रहता है।जैसे ही चेले का साक्षात्कार अच्छे लेखन से होता है,उसके बुरे दिन शुरू हो जाते हैं।गुरू से द्रोह करना सबसे बड़ा अपराध है।गुरू के होते और किसी की प्रशंसा करना महापाप है।इससे गुरू तो कुपित होते ही हैं,साहित्य के सारे पुण्यों,सम्मानों से वह वंचित हो जाता है।ऐसे चेले अधम कोटि में आते हैं।
इसी तरह चेलों की और भी कोटियाँ हैं।चोटी का चेला किसी-किसी को ही नसीब होता है।ऐसा चेला गुरू के जीते जी अपने सारे सपने पूरे कर लेता है।गुरू द्वारा अर्जित की गई हर तरह की संपत्ति पर उसका ‘वैध’ अधिकार होता है।इसके लिए उसे गुरू की आज्ञा भी नहीं लेनी पड़ती।गुरुजी के लिए यह साफ़ संदेश होता है कि अब गुरूदक्षिणा मिलने का समय क़रीब आ गया है।इस तरह दोनों को मुक्ति मिलती है।
चेलों की एक ‘लंपट कोटि’ भी है,जो आजकल तेज़ी से बढ़ रही है।इनके ‘इन्बॉक्स’ हमेशा ओवरफ्लो रहते हैं जबकि बेचारे गुरूजी सोशल मीडिया में एक-एक कमेंट को तरसते हैं।ऐसे तत्व गुरुजी को चौपालों और गोष्ठियों के बजाय सोशल मीडिया में घेरते हैं।उनकी ‘अमृत-वाणी’ पर सवाल उठाते हैं।गुरू जी की नई किताब बेचने से इंकार कर देते हैं।नामुराद गुरू की कविता में छंद-दोष निकालते हैं।व्यंग्य में ‘सरकार’ और ‘सरोकार’ ढूँढ़ते-फिरते हैं।गुरु फिर भी ‘गुरू’ ठहरे।ऐसे लंपट चेलों का इलाज अपने पास रखते हैं।बचा हुआ मंत्र फूँक देते हैं।कभी हर किताब की पन्नी काटने वाले कन्नी काटने लगते हैं।असभ्य चेलों के नाम सभी ‘सम्मान-सूचियों’ से आदर के साथ यह कहकर कटवा देते हैं कि ये इतने छोटे सम्मान के योग्य नहीं।इसका असर यह होता है कि फिर किसी को गुरुजी के ‘प्रिय’ चेले को सम्मानित करने की हिम्मत नहीं होती।
गुरुओं को इस हालत में लाने वाले ऐसे चेलों का कभी भी कल्याण नहीं हो सकता।
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
बहुत खूब :)
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