रविवार, 27 मार्च 2022

मूर्ख होने का मुग़ालता

बचपन में पढ़ा था कि आदमी पढ़-लिखकर बुद्धिमान बन जाता है जबकि बिना पढ़ा-लिखा आदमी निरा मूर्ख रहता है।पर अब जाकर पता चला कि यह सब किताबी बातें हैं।ख़ूब पढ़-लिखकर भी आदमी अच्छी क्वॉलिटी का मूर्ख बन सकता है।पढ़ने से मूर्खता और प्रतिभाशाली हो उठती है।जहाँ बुद्धिमान होना काग़ज़ी और ‘फ़ेक’ है वहीं मूर्ख होना सहज और ‘रियल’ है।मेरे कई मित्र पैदाइशी बुद्धिमान हैं।पढ़-लिखकर वे सब बुद्धिजीवी बन चुके हैं।अच्छी बात यह कि वे मुझे भी अपने जैसा ही समझते हैं।दरअसल,यह उनकी गलती नहीं है।मैंने खुद को ऐसा तैयार किया है कि बाहर से बुद्धिमान लगूँ।कई बार तो मुझे भी शंका होने लगती है कि मैं भी उन जैसा हूँ।फिर अगले पल मेरी उपलब्धियाँ बताती हैं कि मैं दिशाहीन होने से बच गया।बिना किसी मुलम्मे के मैं सोने-सा ख़रा मूर्ख हूँ।मुझे इस बात का बेहद संतोष है कि मूर्खता के दम पर मैंने अपनी अलग पहचान बनाई है।आज बुद्धिमान झख मार रहे हैं और हम जैसे मूर्ख इतिहास लिख रहे हैं।


बुद्धिमान होने के जहाँ ढेर सारे संकट हैं,मूर्ख होते ही वही सब अवसर में बदल जाते हैं।मुझे बुद्धिमान होना कभी सहज नहीं लगा।चेहरे से लेकर काम-काज तक में इसका असर दिखाई देता है।बुद्धिमान दिखने के लिए मनहूसियत की हद तक गंभीर होना होता है,जबकि मूर्ख हमेशा खिला-खिला और ‘ओपन’ होता है।वह जल्दी खुल जाता है जबकि बुद्धिमान नामक जीव कई मुलाक़ातों में भी नहीं खुलता।बेहद गोपन होता है।मूर्खता मौलिक हो तो आदमी बिलकुल सहज रहता है।उसमें कोई बनावट या मिलावट नहीं होती।विद्वान इसीलिए उसे ‘जड़’ कहते हैं।वह हर हाल में स्थिर होता है।झूठ-मूठ की विद्वता ओढ़ना,स्वाँग करना और दूसरों को भ्रमित करना बुद्धिमानों के साधारण कृत्य हैं।मूर्ख जो करते हैं,उल्लेखनीय करते हैं।इसीलिए मूर्खता मुझे हमेशा से आकर्षित करती रही है।इसका अपना आत्म-विश्वास होता है।मूर्ख बात-बात पर गर्व की अनुभूति करता है जबकि बुद्धिमान इतना दीन होता है कि वह किसी बात के लिए गर्व भी नहीं कर सकता।


मैं जितने बुद्धिमानों को जानता हूँ,सब परेशान रहते हैं।कभी स्वयं के लिए,कभी समाज के लिए,कभी देश के लिए।कभी-कभी तो वे किसी ‘फ़िल्म’ के लिए भी बेचैन हो उठते हैं।असल में किसी ने उन्हें बता दिया है कि बेचैन रहना ही बुद्धिमान बने रहना है।उनकी इस बेचैनी का खमियाजा कभी कविता भरती है,कभी कहानी।जब ज़्यादा बेचैन होते हैं तो उपन्यास पूरा होने से पहले नहीं रुकते।यह बेचैनी भी वे सोशल-मीडिया में बताकर ख़त्म करते हैं।इससे प्रकाशक बेचैन हो उठता है कि अब उसे उनकी इस ‘बेचैनी’ का सदुपयोग करना पड़ेगा।यह तो ऐसे बुद्धिमानों की व्यथा है जो साहित्य में घुसकर अपनी बेचैनी दूर कर लेते हैं।एक फ़िल्म के लिए जब यह बेचैनी मचती है तो करोड़ों का बिज़नेस कर डालती है।इसे करने के लिए अव्वल दर्जे की बुद्धिमत्ता की ज़रूरत होती है।कुछ दूसरे बुद्धिमान हैं,जो मँहगाई और अराजकता पर सरकार के ख़िलाफ़ ‘चैनल’ खोल देते हैं।देश-दुनिया में कोई मरे,ये हरदम ‘लाइव’ रहते हैं।ऐसे ‘मिलिनेयर यू-ट्यूबर’ थोड़ी-थोड़ी देर में बेचैन हो उठते हैं।सरकार भी उनकी इस बेचैनी को ख़ूब हवा देती है।पब्लिक की बेचैनी इससे काफ़ी कम हो जाती है।इस तरह साहित्य हो या राजनीति,सब जगह बेचैनी ‘कैश’ होती है।


मूर्ख होने पर ऐसा कुछ भी ‘फ़ील’ नहीं होता।वह दूसरों की चिंता में अपना सुख बर्बाद नहीं करता।दूसरे के दुःख में भी वह अपने हिस्से का सुख खींच लेता है।बुद्धिमान बनना मुझे शुरू से इसलिए भी पसंद नहीं रहा क्योंकि उसका समानार्थी शब्द ‘अक़्लमंद’ होता है।जिसकी अक़्ल ही मंद हो,वह किस गति को प्राप्त होगा,आप आसानी से समझ सकते हैं।इतने अक़्लमंद तो आप भी होंगे !


मूर्ख मूलतः तीन प्रकार के पाए जाते हैं।निम्न कोटि वाले ‘शठ’ कहाते हैं।ऐसे लोग ज़्यादा देर तक नहीं टिक पाते।‘सत्संगति’ पाकर एकदम से विचलित हो उठते हैं।इनकी मूर्खता पर अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता।इसके बाद मध्य कोटि वाले ‘लंठ’ होते हैं।इनको विधाता तक नहीं सुधार सकते।सरकार भी सुधारने का प्रयास नहीं करती।इन दोनों के बारे में तुलसी बाबा थोड़ा संकेत दे गए हैं।इधर तेज़ी से नया ‘वेरियंट’ विकसित हुआ है।यह उच्च कोटि की प्रजाति है ,जिसे ‘बज्रमूर्ख’ कहते हैं।इसे अक़्सर सोशल मीडिया में पाया जाता है।यह किसी की नहीं सुनता।केवल अपनी सुनाता है।सत्य और तथ्य से इसे रत्ती भर मतलब नहीं होता।यहाँ तक कि इसके पास सत्य को भी असत्य सिद्ध कर देने की मौलिक मूर्खता होती है।आधुनिक काल की यह नई उपलब्धि है।इसे ईश्वर और सरकार दोनों की कृपा समान रूप से मिलती है।मेरा अंतिम लक्ष्य यही उत्तम कोटि की मूर्खता है।पूरे मनोयोग से मैं इस पर लगा हूँ।अब यही देखिए ! रात का अंतिम प्रहर है।घर के बाक़ी सदस्य बुद्धि बेचकर सो रहे हैं और मैं उसी बुद्धि से मूर्खता पर गंभीर शोध कर रहा हूँ।संपूर्ण जगत के लिए साहित्य रच रहा हूँ।अब आप खुद तय कीजिए कि मेरी तपस्या में क्या कमी है !



संतोष त्रिवेदी


3 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

रोचक आलेख

Subodh Sinha ने कहा…

ना, ना हम जैसे लोगों (बुद्धिजीवियों का तो नहीं पता) को तो आपकी तपस्या में कोई कमी नहीं दिखी, बेशक़ रातों में जागने वाले रामरहीम और आशाराम बापू वाली तपस्या से भी उच्चतर है .. शायद ... 😃😃😃
वैसे हमारे बिहार में "मूर्ख" के भी कई पर्यायवाची विशेषण हैं, सोच रहा हूँ लगे हाथ आपके शब्दकोश को समृद्ध कर ही दूँ, मसलन .. बकलोल, बकचोंधर, भकुआ, भकलोल और (अगर सन्धि-विच्छेद करने की भूल ना करें 🙉🙉 तो एक और भी ...) बकलंड जैसे अकूत शब्द-सम्पदा भरे पड़े हैं .. बस यूँ ही ...
ये सब पर्यायवाची आगे कभी रात में जागने पर आपकी लेखनी के सहचर बन पाएं .. शायद ...

Onkar ने कहा…

रोचक

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