बात उन दिनों की है जब देश क्रांति की चपेट में था।सड़कों पर बेरोक-टोक क्रांति बह रही थी।गड्ढे भी क्रांति से पट गए थे।वे सड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुक्त हो जाने को तैयार थे।भ्रष्टाचार था कि कुंडली मारकर ऊँचे आसन पर बैठा हुआ था।'आम' परेशान था कि 'ख़ास' की सारी सप्लाई-लाइन कैसे रोकी जाय ! ऐसे कठिन समय में ‘क्रांतिकुमार’ अवतरित हुए।'आम' और 'अवाम' एक हो गए।जल्द ही अँधेरा फट गया।कुर्सी दिखने लगी।उनकी सहयात्री ईमानदारी भ्रष्टाचार से मिलने को आतुर हो उठी,जिससे वह उसका गला दबा सके।पर इसमें एक मुश्किल थी।वह हवाई चप्पल से बँधी हुई थी।कुर्सी उसकी पकड़ से बहुत दूर थी।वहाँ तक पहुँचने के लिए उसे एक मज़बूत जूते की दरकार थी।उसने इधर-उधर से कई आरोप इकट्ठे किए।उन्हीं को जूता बनाकर नियमित रूप से मीडिया की ओर उछालना शुरू कर दिया।दिन में दस बार लोकपाल जी का मंत्रजाप भी शुरू हो गया।राजपथ जनपथ में बदल गया।देखते-ही-देखते बदलाव की आग लग गई।
कुर्सी का फ़र्नीचर पुराना था,सुलग उठा।क्रांति की ताप से भ्रष्टाचार भाग खड़ा हुआ।अभी आरोप हवा में ही तैर रहे थे,पर कुर्सी उनकी जद में आ गई।ईमानदारी के साथ वे कुर्सी पर बैठ गए।वे चारों तरफ़ पसरना चाहते थे,पर कुर्सी में लगे दो हत्थे उनकी इस राह का रोड़ा बन गए।उन्होंने एक झटके में लात मारकर दोनों हत्थे उखाड़ फेंके।यह काम इतनी कुशलता से किया गया कि लोकतंत्र को तनिक भी चोट नहीं पहुँची।पूरी पारदर्शिता के साथ उन्होंने अपना मुक्ति-पथ साफ़ किया।इसके बाद वे सुकून से फैल गए।
इस बीच उन्होंने लोकपाल जी की सुरक्षा को लेकर महत्वपूर्ण क़दम उठाया।उन्हें एक गठरी में बाँधकर रख दिया ताकि वे प्रदूषित हवा-पानी के संसर्ग से बचे रहें।देश के आम और ख़ास लोकपाल जी का नाम तक भूल गए।शोध से मालूम हुआ कि दरअसल देश को अब लोकपाल जी की ज़रूरत ही नहीं थी।केवल कुर्सियाँ बदल जाने भर से ही भ्रष्टाचार भय से काँपने लगा था।इसमें उनका कोई दोष नहीं था।उन्होंने शुरू में ही चेतावनी दे दी थी कि सब मिले हुए हैं।किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया पर वे गंभीर थे।
भ्रष्टाचार के यूँ एकदम से ग़ायब हो जाने के बाद बेचारी ईमानदारी अकेली रह गई।सरकार का संसर्ग पाकर वह अब कट्टर हो चुकी थी।कट्टरता को लेकर क्रांतिकुमार इतने ईमानदार निकले कि देशभक्त भी हुए तो एकदम कट्टर।यह बात असली देशभक्तों को बुरी लगी।इससे उनकी रेटिंग पर ख़तरा उत्पन्न हो गया।अब देश में दो तरह के ही देशभक्त पाए जा रहे थे।एक असली,दूसरे कट्टर।इनके अलावा जो भी बचे थे,वे देशद्रोही हो सकते थे या संदिग्ध नागरिक।
देश को तब तक ‘अच्छे दिनों’ की लत लग चुकी थी।तभी घटनाक्रम में ज़बर्दस्त मोड़ आ गया।आपातकाल से आजिज़ आए लोगों ने पहले तो भक्तिकाल की घोषणा की,फिर एक-एक कर सबकी निशानदेही शुरू हो गई।राज्य से इतर राय रखने वाले ‘अराजक’ सबक़ सीखने लगे।मँहगाई और बेरोज़गारी जैसी बातें भक्ति में बाधा डालने लगीं।इस समस्या से निपटने के लिए लोगों ने शंख और घड़ियाल बजाने शुरू कर दिए।इससे दोतरफ़ा फ़ायदा हुआ।मँहगाई ने आत्महत्या कर ली और बेरोज़गारी से लड़ने के लिए ‘अग्निवीर’ आ गए।इस बीच क्रांतिकुमार को लगा कि उनकी तपस्या में कहीं कमी रह गई थी।अचानक उनका ताप कम होने लगा था।वे देशभक्ति को ‘सिलेबस’ में ले आए।अब देशभक्ति एक जज़्बा नहीं सबक़ था।इसे याद करना ज़रूरी बना दिया गया।फिर एक दिन ‘दिल्ली-मॉडल’ की चर्चा ध्वस्त हुए ‘ट्विन-टॉवर’ वाले सुदूर देश तक जा पहुँची।इस बीच कहानी में एक और ‘ट्विस्ट’ आ गया।राष्ट्रवादियों के सामने नव-राष्ट्रवादी उनसे ज़्यादा उछल-कूद करने लगे।यह बात खरे राष्ट्रवादियों को अखर गई।
आख़िरकार वे उबल पड़े।उनके तरकश में अभी भी कई ‘मास्टर-स्ट्रोक’ बचे थे।आपातकाल से उबर चुके देश में ‘अमृतकाल’ लागू हो गया।सहसा सब कुछ अमृतमय हो उठा।उन्होंने विरोधियों पर तोते और कबूतर छोड़ दिए।वे जगह-जगह सुरक्षा और शांति का संदेश वितरित करने लगे।इससे प्रभावित हो लाभार्थियों ने तुरत-फ़ुरत राष्ट्रवाद की शपथ ले ली।जो बचे,वे पिंजरे में बंद हो गए।उधर कट्टर ईमानदार सुरापान में व्यस्त थे और इधर ‘पाँच टिलियन’ के कटोरे में ‘सुधा-पान’ होने लगा।एक तरफ़ गालीबाज़ों का गौरवगान था तो दूसरी तरफ़ बलात्कारियों और हत्यारों को सरकारी-सहायता से अमृत चखाया जाने लगा।‘निर्भया’ की मुक्ति के बाद जैसे ‘अभय’ अभियान प्रारंभ हो गया हो !
मेरी आँखों के सामने इत्ती अच्छी फ़िल्म चल रही थी कि तभी पर्दा फाड़कर ‘अच्छे दिनों की सरकार’ और ‘क्रांतिकुमार’ दोनों एक साथ प्रकट हो गए।एक के हाथ तिरंगा था तो दूसरे का मुँह पुता हुआ।देश कोने में खड़ा मेरी ओर देख रहा था।मैं उधर लपकने ही जा रहा था कि श्रीमती जी मुझे झिंझोड़ने लगीं-कितनी बार कहा है कि दिन में ‘सनीमा’ मत देखा करो।बड़ी देर से पता नहीं क्या अंट-शंट बक रहे हो ! अपना घर देखो।कितने दिन से टपक रहा है।इसे जोड़ लो फिर देश जोड़ लेना !
संतोष त्रिवेदी
2 टिप्पणियां:
लाजवाब
सुंदर व्यंग्य!!
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