जब यह ख़बर आई कि एक विश्वविद्यालय ने ‘लुगदी-लेखन’ को मान्यता दी है,मुझे अपार ख़ुशी हुई।मैं सीधे अपने स्कूली दिनों में पहुँच गया।उस वक़्त शर्मा,पाठक,नंदा और बाजपेयी आदि की ऐसी लत लगी थी कि ‘केमिस्ट्री’ और ‘अलज़ेब्रा’ के बजाय दिन भर मैं सस्पेंस और थ्रिलर की दुनिया में खोया रहता था।स्कूली-किताबें जहाँ काटने को दौड़ती थीं,वहीं घर-परिवार में प्रतिबंधित किताबें छुप-छुप के पढ़ता रहता।सभ्य समाज में यह ‘लुगदी-लेखन’ वर्जित था।उस समय अपन को लेखन के किसी टाइप का पता नहीं था।बस,रोमांटिक और जासूसी किताबें परमानंद देती थीं।इनकी वजह से पढ़ाई से मन एकदम उचट गया था।नतीजा यह हुआ कि किसी तरह से बस पास भर हो पाया।यदि उस जमाने में आज वाली ‘स्कीम’ आ जाती, तो विद्या-क़सम,पूरे प्रदेश में टॉप करता !
लेकिन यह मेरी सोच थी।इस फ़ैसले का ताप मापने के लिए मैं सोशल-मीडिया में गया तो वहाँ थर्मामीटर चटकने से बाल-बाल बचा।साहित्य की ‘मुख्य-धारा’ में ज़बर्दस्त उबाल आया हुआ था।साहित्य में हुए इस हादसे के बाद से मुख्य-धारा के कई लेखक गंभीर रूप से घायल हुए थे।इनमें से एक बड़े पाठ्यक्रम-लेखक,जो मेरे परम मित्र हैं,कुछ ज़्यादा ही चोटिल लग रहे थे।आम जन का दुःख बयान करने में वह खूब अनुभवी हैं पर पहली बार उनका निजी-दर्द रिस रहा था।अब तक उन्होंने जो लिखा था,कहीं न कहीं ‘फिट’ हो चुका था।तक़रीबन हर विश्वविद्यालय या बोर्ड में उनकी किताबें लगी हुई थीं।किंतु अब उन पर यह नई आपदा आई थी।
समाज और देश पर जब भी संकट आता है तो मेरे लेखक-मित्र सहजता से आँखें मूँद लेते हैं,पर यह बिलकुल अलग तरह का संकट था।वह सोशल-मीडिया पर बेक़ाबू हो गए, ‘यह संकट हम पर नहीं साहित्य पर गिरा है।हमारे ‘क्लॉसिक-लेखन’ को ‘लुगदी-लेखन’ से ‘रिप्लेस’ किया जा रहा है।यह छोटा-मोटा नहीं गंभीर ख़तरा है।आज इतिहास और साहित्य को मिटाया जा रहा है।इतिहास नहीं बचेगा तो न हम बचेंगे, न ही साहित्य।आज लुगदी-लेखन विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में पढ़ाया जाने लगा है,तो कल को पुस्तकालयों में भी इन्हीं का क़ब्ज़ा होगा।कहाँ क्लॉसिक-लेखन और कहाँ यह लुगदी-लेखन ! क्लॉसिक वाले लेखन में कई तरह की संभावनाएँ मौजूद थीं।विद्वान पाठक शब्दार्थ के साथ भावार्थ भी ढूँढ़ लेते थे।पर अब क्या होगा ? पाठक को पढ़ते समय न चिंतन की ज़रूरत पड़ेगी और न ‘गाइड’ की।एक तरफ़ से पढ़ते जाओ,दूसरी तरफ़ से निकालते जाओ।लुगदी-लेखन दिमाग़ में ही नहीं टिक पाता फिर साहित्य में कहाँ टिकेगा ?’ इतने पर भी वह रुके नहीं।उन्होंने फिर आग बरसी, ‘बरसों से जो कृतियाँ ऐसे पुस्तकालयों में खप रही थीं,वहाँ से भी उनका पत्ता कट जाएगा।फिर उनके ‘लेखक’ बने रहने में भी ख़तरा होगा।वे ‘मुख्य-धारा’ से ही बह जाएँगे।लोकतंत्र की हत्या के बाद लोक-साहित्य की हत्या की जा रही है।हम चुप नहीं बैठेंगे।’
उनकी इस लंबी चिंता पर एक वरिष्ठ लेखक ने,जो क्लॉसिक के नीचे लिखते ही नहीं थे,बड़े मार्के की टीप दर्ज़ की, ‘ हमारी सबसे बड़ी चिंता सम्मानों को लेकर है।अभी कम मारामारी है,जो यह नई विधा भी ‘कंपटीशन’ में उतार दी गई ? यह संकट साहित्य से अधिक हमारे सम्मान का है।निराला,परसाई और मुक्तिबोध को जो मिलना था,मिल चुका।उन्हें हटाकर सरकार ठीक ही कर रही है।वे हटेंगे,तभी हमारे लिए जगह बनेगी लेकिन यह सरासर ग़लत है कि ‘लुगदी-लेखकों’ को हमारे मुक़ाबले में खड़ा किया जाए।वैसे यदि सरकार को ऐसे लेखन से ज़्यादा प्यार है तो यह कमी हम स्वयं पूरी करते हैं।हमारा संपूर्ण लेखन उत्कृष्ट-क़िस्म की लुगदी से किसी प्रकार भी कम नहीं है।अभी तक प्रकाशक ने रॉयल्टी नहीं दी,कम से कम सरकार ही हमें इसका मुआवज़ा दे ! ’
दूसरी टीप इससे भी अधिक उल्लेखनीय थी।यह एक उभरते हुए कवि की थी, ‘हम अभी भी मुख्य मुद्दे से दूर हैं।सबसे बड़ा संकट कविता में आने वाला है।पारंपरिक साहित्य में कविताई का ख़ूब चांस है।लुगदी में केवल ‘क्राइम’ है,थ्रिल है,लोकप्रियता है।उपन्यास और कहानियाँ लिखने वाले तो फिर भी ‘सर्वाइव’ कर जाएँगे,लेकिन दोस्तो,क्या आपने सोचा है कि कविता का क्या भविष्य होगा ? ‘लुगदी-लेखन’ में कोई ऐसा उदाहरण अभी तक नहीं है।कविता के लिए वहाँ कोई जगह नहीं दिखती।’
इस टिप्पणी के बाद चर्चा और उत्तेजक हो गई।एक सम्मानित-कवि ने कहा, ‘यह केवल समझ का फेर है।हमारी बोरी भर कविताएँ आज भी या तो प्रकाशक के यहाँ या पुस्तकालय में जमा हैं।सरकार चाहे तो इन्हें ‘लुगदी-लेखन’ की मान्यता दे सकती है।वे अब न मेरे और न ही जनता के किसी काम की हैं।पाठ्यक्रम में लग जाएँ तो प्रकाशक का भी भला हो,हमारा भी।कम से कम ‘रद्दी-लेखन’ के तमग़े से तो मुक्ति मिलेगी !’
जल्द ही यह पोस्ट वायरल होने लगी।जितनी तेज़ी से जंगल में आग नहीं फैलती (क्योंकि अब जंगल में पेड़ ही नहीं रहे ) उतनी तेज़ी से पाठ्यक्रम-लेखक की यह पोस्ट फैल गई।आख़िरकार एक ज़िम्मेदार शिक्षाशास्त्री ने स्थिति स्पष्ट की, ‘हमने अपनी तरफ़ से कुछ नहीं जोड़ा।जो उपेक्षित लेखक थे,उन्हें मौक़ा मिला है और केवल असुविधाजनक पाठ हटाए गए हैं।अब सियासत की तरह साहित्य में भी विकल्प है कि आप जिसे चाहें,उसे चुनें।और आख़िरी बात,ये सुधार हम ‘क्लॉसिक-लेखन’ पढ़ने के बाद ही कर रहे हैं।इसलिए सारी बहस बेमानी है।’
संतोष त्रिवेदी
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