बिस्तर में जाने की तैयारी में था कि मेरे ह्वाट्सऐप पर दन्न से सर्जिकल स्ट्राइक हुई।आशंका तो मुझे पहले से ही थी पर रपट पढ़ने के बाद पुष्टि भी हो गई।मेरे शरीर के अंदर ख़तरनाक वायरस मिला था।यह खबर दूसरी लहर में आई होती तो प्राण वैसे ही सूख जाते।वायरस को अतिरिक्त मेहनत न करनी पड़ती।बहरहाल,वायरस तो वायरस है,डर लगता ही है।रपट पढ़कर अंदर से तो मैं डर गया पर प्रकट रूप से यही मान लिया कि कई बार रपट ग़लत भी हो जाती है।आदमी उसी बात को ज़्यादा मानता है,जो उसके लिए मुफ़ीद होती है।इस लिहाज़ से भी मैं एक आदमी ठहरा।यही सोचकर निडरता की चादर ओढ़कर सो गया।लेकिन कहते हैं ना कि जैसा सोचो,ज़रूरी नहीं वैसा ही दूसरे भी सोचें।मैंने इस वायरस के बारे में निजी तौर पर किसी को जानकारी नहीं दी थी पर मेरे शुभचिंतक मुझसे भी चतुर निकले।पता नहीं कहाँ से उन्हें सुराग मिल गया और इसकी चर्चा मेरे जगने से पहले अंतरजाल में वायरल हो गई।इस बात का पता मुझे तभी चला जब अलस्सुबह मेरे मित्र अजातशत्रु जी का फ़ोन घनघना उठा।
‘अजी,क्या हुआ ? तुम तो बड़ा परहेज़ बरतते हो।इंटरनेट मीडिया पर भी कभी कुछ नहीं बोलते।किसान,जवान,पहलवान तुम्हारे लिए महज़ तुकबंदी हैं।तुम अपने काम से काम रखने वाले मनई हो।यह ससुरा वायरस तुम्हारे अंदर कैसे प्रविष्ट हो गया ? लापरवाह तो तुम शुरू से ही हो,बीमार भी हो गए ? ’ वे धाराप्रवाह बोलते गए।जैसे ही उन्होंने साँस ली,मैंने दख़ल देना ज़रूरी समझा।अब तक मुझे तनिक होश आ चुका था।मैंने मित्र पर साहित्यिक-हमला बोल दिया, ‘देखिए,मैं तुम्हारी तरह अजातशत्रु नहीं हूँ।तुम संतुलन साधने में माहिर हो।अन्तर्जाल हो या साहित्य,सबसे मिलकर चलते हो।इसलिए मिट्टी में नहीं मिल सकते।अपना क्या है ! दूसरों की जितनी फ़ैन-फॉलोइंग होती है,उससे ज़्यादा मेरी दुश्मन-फॉलोइंग है।वरिष्ठ मुझे ठीक से देखते तक नहीं कि कहीं उन्हें मुझसे प्यार न हो जाए।समकालीन इस डर से मुझे पढ़ते तक नहीं कि कहीं उनका लेखन बंद न हो जाए।और कनिष्ठों को क्या कहें,वे सिर्फ़ लिखना चाहते हैं,किसी को पढ़ना नहीं….।’ मेरी बात बीच में ही काटकर शत्रु बोले, ‘भई मैं तो तुम्हारी बीमारी और वायरस के बारे में चिंतित था।अब पुष्टि हो गई कि वाक़ई,ख़तरनाक वायरस घुस गया है;तुम्हारे शरीर में और दिमाग़ में भी।पता नहीं कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो ! मैं वायरस की पूछता हूँ तो तुम साहित्य में घुस जाते हो।जब कविता लिखना होता है तो कहानी लिखने लगते हो।पूरे अन्तर्जाल में तुम्हारे लिए दुआएँ माँगी जा रही हैं।तुम्हारे लेखन से ज़्यादा तुम्हारे वायरस ने तुम्हें हिट कर दिया है।मुझे इसकी चिंता है।’ कहकर लंबी साँस ली।
‘नहीं,नहीं बिलकुल नहीं।मैं तुम्हारी वायरस वाली चिंता समझता हूँ।जानकर तुमको निराशा होगी कि इसकी मारक-क्षमता पहले जैसी नहीं रही।बिलकुल मॉडर्न वैरियंट है।बाज़ार में नया है।कुछ दिन बीमार करता है फिर ‘हफ़्ता’ लेकर चला जाता है।इसकी ख़ासियत है कि यह अपडेटेड है।और तुम तो जानते ही हो,मैं कितना अपडेटेड आदमी हूँ।गैजेट हो,गाड़ी हो,दोस्त हों या सरकार ,मैं हमेशा नए मॉडल पसंद करता हूँ।पुरानी चीजों का मोह नहीं करता।उन्हें अफ़ोर्ड करना महँगा होता है,और कुछ काम भी नहीं आतीं।भले वायरस ने नए वैरियंट के साथ मुझे धर लिया हो लेकिन इसे नहीं पता कि किससे पाला पड़ा है।जिस तरह धीरे-धीरे मेरे लेखन से सरोकार ग़ायब हुए हैं,यह नामुराद वायरस भी दफ़ा हो जाएगा।अंत सबका होता है,इसका भी होगा।बहरहाल,तुमने जो मेरी चिंता की,उसके लिए हमेशा आभारी रहूँगा।’ मैंने अपनी तरफ़ से बीज-वक्तव्य दे दिया था।
मित्र को अभी भी संतोष नहीं हुआ।बूस्टर-डोज़ देने लगे, ‘देखिए,तुम जैसे भी हो, बने रहो।तुम्हारा बचे रहना साहित्य और मेरे दोनों के लिए ज़रूरी है।तुम्हारे लेखन की तुलनात्मकता से ही मेरी प्रतिष्ठा अभी तक बची हुई है।इसलिए बचे रहने के कुछ सूत्र अवश्य दूँगा।इस वक़्त सबसे ज़रूरी है कि अपनी इम्यूनिटी और कम्यूनिटी दोनों को मज़बूत करिए।इससे तुम्हारे अंदर ‘एंटी-बॉडी’ विकसित होगी और ‘एंटी-नेशनल’ ताक़तों से भी बचोगे।ख़ुद से ज़्यादा मुझे तुम्हारी फ़िक्र है।मुझे निराश मत करना।अब फ़ोन रखता हूँ।अगले साहित्योत्सव की तैयारियाँ भी करनी हैं।’
फ़ोन तो कट गया पर जाते-जाते मित्र ने मेरे अंदर के वायरस को और सक्रिय कर दिया।साहित्योत्सव के मंच पर हर बार मेरी कुर्सी होती है।इस बार भी होगी? यह सोच ही रहा था कि पता नहीं श्रीमती जी कहाँ से ‘काँपा’ लगाए बैठी थीं,अचानक सामने प्रकट हो गईं।कहने लगीं, ‘ई कौन-सा भायरस की बात हो रही है जी ? हमको भी कुछ बताइएगा ?’
‘अरे कुछ नहीं भागवान ! बस रपट में गलती से पॉज़िटिव आ गया है।जल्द से फिर निगेटिव हो जाऊँगा।’ मैंने उन्हें दिलासा दी।पर वो कहाँ मानने वाली थीं। ‘ई तुम्हरा दोस्त-ऊस्त इसमें कुछ नय करेगा।दिन में तीन बार टीवी में न्यूज़वा देख लो।बॉडी में एतना टॉक्सिक हो जाएगा कि ‘एंटी-बॉडी’ क्या ‘एंटी-ह्यूमन’ भी बन जाओगे।ससुरा भायरस कुछ नय बिगाड़ पाएगा।’
अब मुझे पक्का यक़ीन हो गया कि रपट बिलकुल झूठी है।देह में वायरस के रुकने की जगह ही कहाँ बची है ?
संतोष त्रिवेदी
2 टिप्पणियां:
वाह
बहुत ही मजेदार
वाह!!!
लाजवाब।
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