रविवार, 6 अगस्त 2023

लोकतंत्र की रक्षा हेतु

इस वक़्त देश में अलग तरीक़े की बाढ़ आई हुई है।लोग अभी आसमानी बाढ़ से ठीक से सँभले नहीं थे कि गठबंधन की बाढ़ ने नया संकट पैदा कर दिया है।एक तरफ़ अट्ठाइस मिल गए हैं तो दूसरी तरफ़ लेख लिखे जाने तक स्कोर अड़तीस तक पहुँच गया है।अगर अड़तीस वालों की बैटिंग इसी तरह चलती रही तो जल्द ख़तरे का निशान भी पार हो जाएगा।मतलब अगला साल किसी के लिए काल तो किसी के लिए फिर से गाल फुलाने वाला होगा।और हम सब लोकतंत्र की रक्षा के चश्मदीद गवाह होंगे।


इस तरह देश में दो बड़े तंबू तन गए हैं।लोकतंत्र के साथ जो भी होना है,इन्हीं तंबुओं के अंदर होगा।अच्छी बात यह कि दोनों की प्रक्रिया बड़ी ही पारदर्शी है।सब कुछ आर-पार दिखता है फिर भी मायाजाल ऐसा कि इसमें प्रवेश पाने वाले को मुँह-माँगी मुराद मिल सकती है।एक तरफ़ भविष्य की छतरी है जो कभी भी हवा में उड़ सकती है।दूसरी तरफ़ वर्तमान की अमोघ छत्र-छाया है जिसके पास हर वंचित और भूखे को शरण और भोजन का इंतज़ाम है।कमाल तो यह कि लोग अटूट बने रहने के लिए टूटे पड़ रहे हैं।और यह भी कि किसी भी तंबू में अब तकहाउसफुलका बोर्ड नहीं चस्पा है।सत्ता का प्रसाद सबके लिए सुलभ है।इससे ज़ाहिर होता है कि हमारी राजनीति कितनी समावेशी और उदार है ! फिर भी आए दिन हम उसे कोसते रहते हैं।


सबसे सुंदर बात यह कि इस पुनीत कार्य मेंसब मिले हुए हैं।देश के लिए सब मिलकर लड़ रहे हैं।मरने-मिटने का संकल्प लेकर महासमर में कूद पड़े हैं।कोई लोकतंत्र को बचाने के लिए अति विनम्र हो गया है तो कोई भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अति उदार।एक भी भ्रष्टाचारी बच नहीं पा रहा है।सत्ता या संभावित सत्ता के साथ गाँठ बाँध रहे हैं।उनकी पवित्रता सत्ता के ही साथ ही सुरक्षित रह सकती है।इसलिए ऐसे लोग निर्मोही होते हैं।वे किसी भी दल से स्थायी रूप से दिल नहीं लगाते।क्रांति करनी हो या शांति,दोनों अवसरों पर ऐसी ही पुण्यात्माएँ काम आती हैं।गठबंधनों का गठबंधन हो रहा है।लोग देश-हित में एकजुट हो रहे हैं।कई ऐसे भी सेवक हैं जो हर हाल में देश की सेवा करना चाहते हैं।वे चाहे इधर रहें या उधर,उनकी इकलौती और अंतिम इच्छा है, बस देश के काम जाएँ।उन्हें नैतिकता और सिद्धांत खिलौने भर लगते हैं।देश-सेवा की उनमें इतनी आतुरता है कि बकरी और मगरमच्छ एक ही घाट पर पानी पीने को तैयार हैं।दूसरे शब्दों में इसी को रामराज कहते हैं।इससे पता चलता है कि चुनाव हमें आपस में बाँटते नहीं बल्कि अटूट गठजोड़ कराते हैं।और हाँ,टूट ज़रूरी हुई तो वह चुनाव बाद भी हो सकती है,बशर्ते देशहित में हो !


लोकतंत्र को बचाने में नया मोड़ तब आया जब अट्ठाइस वालों ने अपने तंबू का ही नामकरणइंडियारख लिया।उन्हें नाम से ही चमत्कार की उम्मीद दिख रही है।शेक्सपियर भले ही कह गए हों कि नाम में क्या रखा है पर उनके सामने लोकतंत्र बचाने का संकट नहीं था।अब तो आए दिन लोकतंत्र ख़तरे में रहता है।यहाँ तक कि कई बार उसकीहत्यातक हो जाती है,पर लगता है ,वह भी

अमरौती खा कर आया है।चुनाव आने से पहले उसमें फिर साँस चलने लगती है।परिणाम आते ही लोकतंत्र की जीत होती है।यह ऐलान चुनाव जीतने वाला करता है।हारने वाले के पास फिर से उसे बचाने की ज़िम्मेदारी जाती है।हमारे यहाँ लोकतंत्र ऐसे ही फलता-फूलता है।भ्रष्टाचार,मँहगाई,बेरोज़गारी आदि से जनता अपनी रक्षा कर ही रही है।एक लोकतंत्र ही बचा है,जिसकी रक्षा करने के लिए हमें छँटे हुए जनसेवकों की ज़रूरत पड़ती है।इसलिए आधुनिक सेवकों ने यह बीड़ा उठाया है।


जैसे ही लोकतंत्र की रक्षा के लिए अट्ठाइस काइंडियासामने आया,अड़तीस वाले भड़क गए।उनका मानना है कि इस नाम में ही दोष है।इसमें दो-दो बारमैंघुसा हुआ है,जबकि उनके नाम मेंमैंहै ही नहीं।इसलिए लोकतंत्र की रक्षा करने का अधिकार उन्हीं का है।वे कर ही रहे हैं।इसके पीछे उनका अपना तर्क है कि अट्ठाइस से अड़तीस बहुत आगे है।कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संदेश है कि उनको जितनाइंडिया-इंडियाखेलना है,खेलने दो।हम उनसे हमेशा तीन आगे रहेंगे।हमारे पास जाँच दल हैं।जब भी बहुमत का संकट आए,इन्हें उनके पीछे दौड़ा दो।इससे भ्रष्टाचार पर तो लगाम लगेगी ही,सत्ता की लगाम भी हमारे हाथों में रहेगी।यह ऐसा नायब आइडिया है,जिसेइंडियाकभी नहीं भेद सकता।इसलिए इन्हें अपनी बैठकी जी भर कर लेने दो।यह और अच्छा है कि मीडिया भी हाथ धोकर देशहित करने में जुटा है।वह हमारे साथ है।यह जानकर कार्यकर्ता बम-बम हैं।


उधर अट्ठाइस वालों का कहना है कि अड़तीस में अठारह उन्हीं के हैं।इस पर अड़तीस ने पलटवार करते हुए कहा है कि उनके सत्ताइस उसी के हैं।हम जब चाहें,उन्हें अपना लेंगे।


दोनों की बातें सुनकर लग रहा है कि लोकतंत्र का कुछ नहीं हो सकता।इस बारे में आम सहमति है।यह बचकर रहेगा !


संतोष त्रिवेदी 

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