मैं चला जा रहा था सरपट
दक्षिण दिल्ली की एक व्यस्त सड़क के फुटपाथ पर
जल्दी थी मुझे लक्ष्य की ओर बढ़ने की
और जल्दी उस गिलहरी को भी थी
जो पार करना चाहती थी सड़क को
ताकि पहुँच सके उस ओर खड़े पेड़ पर
और कर सके चुहल जो वह ज़मीन पर नहीं कर सकती।
पर उससे भी जल्दी थी मनुष्य को
जो भाग रहे थे सरपट
अपनी फ़र्राटा मोटरों पर
उस गिलहरी ने आव देखा न ताव
मौत की सड़क पर बड़ी तेज भागी
ख़तरा जानकर थोड़ा ठिठकी और रुकी भी
पर मनुष्य कहाँ रुक सकता है !
उसके बस में ही कहाँ रहा अब।
प्रगति के पथ पर वह यूँ ही नहीं बढ़ता है
उसे तो पता भी नहीं चलता है
कि कब और कितनों को उसने कुचला है यूँ ही
शायद गिलहरी पढ़ी-लिखी नहीं थी
नहीं तो उसे सड़क से बचकर
घर लौटते मनुष्यों की संख्या पता होती
इसीलिए वह आधुनिक पढ़ाई का शिकार हो गई।
पहले एक ने आंशिक रूप से उसे कुचला
अगले ही पल दूसरे ने उसे मुक्ति दे दी।
मेरा मन खिन्न हो गया पल भर के लिए
पर मैं भी कहाँ रुक पाता भला !
आगे बढ़ गया अपने गंतव्य की ओर
पीछे रह गई गिलहरी की पिचकी हुई देह
और इंसानी सभ्यता की बढ़ती हुई गति !
मनुष्य फिर भी घाटे में नहीं रहा
उसने पाया एक कवि
और गिलहरी ने सद्गति।
- संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
श्रधांजलि गिलहरी को |
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