जब से हमने होश सँभाला,हमें यही समझाया गया कि कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए।हमेशा आगे की ओर देखोगे,तभी आगे बढ़ सकते हो।बड़ों की यह सीख हमने कसकर गाँठ बाँध ली।मजाल कि हमने फिर कभी पीछे मुड़कर देखा हो ! यहाँ तक कि पढ़ाई के समय भी किसी चैप्टर की ओर दुबारा झाँका तक नहीं।एक बार जो पढ़ लिया,पढ़ लिया।बारहवीं की परीक्षा में मेरे आगे जो छात्र बैठा था,लिखे ही जा रहा था।मेरी विलक्षण प्रतिभा ने तभी पहचान लिया था कि इसी का अनुयायी बनने में कल्याण है।मैं तन्मयता से उसे कॉपी करने लगा।अचानक उदार निरीक्षक ने पीछे से आकर मुझे अपनी बाहों में दबोच लिया।मेरी कॉपी बदल दी गई और मुझे सबसे आगे बैठा दिया।मेरी इस तपस्या का फल भी मुझे मिला।परीक्षाफल ने मेरे सहपाठियों को शर्मसार नहीं होने दिया।उन सबमें आख़िरी पायदान पर मैं ही रहा।इससे दो फ़ौरी फ़ायदे हुए।घरवालों ने मुझसे अपेक्षा रखनी बंद कर दी और मेरी ‘ग्रोथ’ के सारे गति-अवरोधक समाप्त हो गए।मैं पूरी स्वच्छंदता से आगे बढ़ने लगा।
फिर एक दिन मैं युवा हो गया।कुछ लोगों को इसमें भी आशंका थी।उनका विचार था कि मुझ जैसे लोग सीधे बड़े होते हैं,युवा नहीं।पर मुझे उनका यह भ्रम तोड़ना था।युवा होते ही सबसे पहले मैंने प्रेम करना शुरू किया।यह मेरा कर्तव्य था और अधिकार भी।प्रेमासक्त होकर कभी मुड़कर देखने का मन भी किया तो ‘मुड़-मुड़ के ना देख,मुड़-मुड़ के’ रोमांटिक गीत ने मुझे रोक दिया।इसका सुखद परिणाम रहा।मेरा प्रेम-विवाह होते-होते बचा।मेरी प्रेमिका समय रहते किसी और की हो गई।आज वह सुखी जीवन व्यतीत कर रही है और मेरी कायरता के लिए मुझे दुआएँ देती है।यह ‘पुण्य-कर्म’ हमारे कठिन संकल्प से ही संभव हुआ।बाद में मैंने जाना कि मेरा यह त्याग बड़े-बड़े तपस्वियों की कोटि में आता है।जो भी महापुरुष हुए,उन्होंने मोह-माया त्यागकर कभी पीछे नहीं देखा।पढ़ाई और प्रेम मैं त्याग चुका था पर युवावस्था अभी थोड़ी बची थी।इसका फ़ायदा उठाकर घरवालों ने विवाह कर दिया।
मेरे सुखी जीवन में पहली बार बाधा आने लगी।मुझे सांसारिक बंधनों में जकड़ने की घरवालों की यह चाल थी।पर मेरी चाल उनसे भी तेज रही।एक दिन मौक़ा पाकर मैं शहर आ गया।यहाँ आकर पता चला,लोग मुझसे भी तेज हैं।सब भाग रहे हैं।अचानक मुझे एक वरिष्ठ मिल गए।वह बड़े लेखक थे और असली आलोचक खोज रहे थे।कहने लगे, ‘मैं पिछले तीस सालों से साहित्य घोट रहा हूँ पर मेरा उचित मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ।’ मैंने इसका कारण पूछा।उन्होंने उत्तर दिया, ‘मुझे ग्यारह हज़ार का सम्मान मिल चुका है।अब एक संस्था मुझे शॉल,नारियल देकर ‘सादर’ निपटाना चाहती है।समझ नहीं पा रहा हूँ,यह वाला सम्मान उठाऊँ या नहीं ? ’ मैंने तुरंत समाधान दिया, ‘बिलकुल उठा लें।आप पीछे मुड़कर न देखें।इससे आत्म-ग्लानि से बचेंगे।और हाँ,जब भी सुविधा और दुविधा में विकल्प चुनना हो तो दुविधा छोड़ दें।’‘पर इससे तो मेरी ‘मार्केट-वैल्यू’ गिर जाएगी ?’ उन्होंने चिंतित स्वर में कहा।मैंने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘पिछले तीस सालों से आप गिर ही रहे हैं।यक़ीन मानिए,इससे नीचे नहीं गिर पाएँगे। ‘सम्मान’ में इतना तो न्यूनतम मिलता ही है।रही बात ‘मार्केट-वैल्यू’ की,उसको मुझ पर छोड़ दीजिए।जब आपने मुझ नामुराद को आलोचक बना ही दिया है तो मैं भी आपको ‘लेखक’ बनाकर छोड़ूँगा।आप केवल अपने लेखन की एक ख़ासियत मुझ पर ज़ाहिर कर दें।’
‘यह तो बड़ा आसान है।देखिए,अपना लिखा हमने कभी दुबारा नहीं पढ़ा।जो एक बार लिखा,लिख दिया।पाठकों ने भी मेरा पूरा मान रखा।मेरे लेखन को कभी पलटकर नहीं देखा।इसका सीधा प्रभाव मेरे लेखन पर पड़ा।मेरी कलम रुकने का नाम नहीं ले रही।’ ऐसा कहते हुए उनकी आँखें भर आईं।मुझे यह देखकर अचरज हुआ कि उनकी आँखों में अब भी ‘पानी’ बचा था।मैंने उनके चरण पकड़ लिए।‘आप मेरे सच्चे गुरु हैं।मेरा शहर आना सार्थक हुआ।आपसे मिलने से पहले ही मैं आपके पदचिन्हों पर चल रहा हूँ।अब हम दोनों मिलकर साहित्य में चिह्न बनाएँगे।’ कहते हुए मैंने उन्हें सांत्वना दी।उन्होंने तुरंत अपनी नव-प्रकाशित चालीसवीं पुस्तक मुझे ‘समीक्षार्थ-सप्रेम’ भेंट कर दी।
नया शहर था।नयी सुपारी थी।मैंने ले ली।फिर पलटकर कभी नहीं देखा।कालांतर में मैं प्रसिद्ध आलोचक सिद्ध हुआ।जिन-जिन लेखकों की मैंने आलोचना की,उन्हें उनके लेखन से और पाठकों से मुक्ति मिली और अंततः मुझे भी।साहित्य मेरा ऋणी हुआ और मैं उसे कृतार्थ कर आगे बढ़ गया।साहित्य-सेवा के बाद मुझे समाज-सेवा का चस्का लगा।इसके लिए मैं राजनीति में आ गया।मैं पूरी तरह जनसेवा के लिए समर्पित हो गया।जल्द ही ‘निम्न सदन’ के लिए मैं चुन लिया गया।मेरी गति और कर्मठता देखकर कई वरिष्ठ मेरे रास्ते से हट गए।वे अपने आप मार्गदर्शक मंडल में शामिल हो गए।यह सब पीछे मुड़कर न देखने के कारण ही संभव हो सका,वरना मैं देश-सेवा से वंचित हो जाता।आज भी चुनाव बाद अपने क्षेत्र में पीछे मुड़कर नहीं देखता।इससे हमारी ‘जनसेवा’ निर्बाध रूप से चल रही है।
अगर आपको भी आगे बढ़ना है तो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना !
संतोष त्रिवेदी
1 टिप्पणी:
जी आघे भी अपना अपना देखना है पीछे नहीं देखेंगे :)
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