पिछले दिनों साहित्य में रजनीगंधा की खूब चर्चा रही।सभी इसकी मौसमी-महक से आसक्त थे।कुछ दूर से तो कुछ साहित्यिक-ज़र्दे के साथ गिलौरी बना रहे थे।जो क्रांतिकारी थे,उन ने बक़ायदा मुँह में भरकर ‘पिच्च’ मारी कि यह देखो,हम इससे कितनी दूर हैं !
इस आयोजन ने वाक़ई साहित्य में पर्याप्त गंध मचा दी।शुरुआत में पंजीकरण अपन ने भी किया हुआ था पर इस ‘साहित्य-मंथन’ से मुझे किसी रत्न के निकलने की उम्मीद नहीं थी।मन में न ज़्यादा उछाह था और न ही समय।सो गया भी नहीं पर इसलिए नहीं कि हम इसकी डुग्गी पीटते कि भई देखो,हम अभी भी कितने संस्कारी हैं ! इससे बहिष्कार करने की सनसनीखेज़ घोषणा से ज़रूर वंचित हुआ।लेकिन सनसनी भी तभी होती जब मैं कोई लेखक या कवि होता ! सो यहाँ हमारा जाना न जाना या जाने वालों की टाँग खींचना हमारा कर्म नहीं था।जो गए,उन्हें वामी-ख़ेमे से बेदख़ल होने से बचाने का भी कोई इरादा नहीं था।सबकी अपनी सोच है,सियासत है।दरअसल,साहित्य और सियासत के बीच की यह ऐसी परिघटना रही,जिसमें हम जैसे आमजन केवल श्रोता या दर्शक भर बने रह सकते थे।
हालाँकि यह खेल दोनों तरफ़ से खेला गया।जो बाय-डिफ़ॉल्ट जाने वाले थे,उनको किसी बहाने की ज़रूरत नहीं थी पर कुछ ‘संवेदनशील’ और छुई-मुई टाइप के लोगों को लगा कि उनके न जाने से साहित्य का भले ही कुछ भला न हो पर उनका बुरा ज़रूर हो जाएगा।यही मौक़ा है,मंच पर आसन जमाने का।खर्चा-पानी और रेटिंग के बिना गुजारा भी नहीं होता।सो उन्होंने बॉयकाट की भी काट निकाल ली।इनमें कुछ बड़े और ‘एलीट’ लोग थे,सो पाप भी नहीं लगा उनको।पापी होने के लिए गुटहीन और साखरहित होना ज़रूरी शर्त है।कुछ लोगों ने फिर भी शर्म दिखाई।अभिव्यक्ति की आज़ादी की छतरी लगाकर एक अभियान चलाया।इससे फ़ायदा यह हुआ कि इसमें शामिल होने वाले उनके अपने दिन-दहाड़े अपना मुँह कैमरों के सामने उसी तरह चमका सके,जैसे एक आत्म-मुग्ध राजा जनता की समस्याओं को ‘छू’ कर परिवारवाद से लोकतंत्र की रक्षा मुस्तैदी से कर लेता है।
बहरहाल,जाने न जाने को लेकर कोई मसला होना भी नहीं चाहिए।जिसका जो मन हो,वह करे।इसके लिए किसी भी तरह का आह्वान इस्लामी फ़तवों की तरह ही है।यह फ़ैसला पूरी तरह से व्यक्तिगत आज़ादी के दायरे में आता है।इसके लिए किसी तरह की सफ़ाई की ज़रूरत भी नहीं थी।सम्मेलन के साथ साहित्य ‘गुजर’ ही गया था कि तभी सोशल मीडिया में एक ज़लज़ला सा आ गया।यह ज़रूरी भी था।इसके आए बिना न साहित्य का खेल संपन्न होता न ही बाज़ार का।मीडिया को तो मुर्ग़ों की लड़ाई में महारत हासिल है।इन दिनों साहित्य और सियासत को इसी से खाद-पानी मिलती है ।ड्राइंग-रूम से निकलकर उसे मंच पर बिठाया ही इसलिए गया ताकि उसी टाइप का कीचड़ वहाँ भी फैलाए।कहना न होगा कि कीचड़ में कुशलता से लिथड़ने वाले मुर्ग़े नहीं विशेष जीव होते हैं।मुर्ग़ा तो उनका साहित्यिक नाम है।कीचड़-क्रीड़ा में कमल और वह विशेष पशु पहले से आनंदित होते रहे हैं,मीडिया इसका नया उत्प्रेरक और भागीदार बना है।कीचड़ को साहित्य का कलेवर देने के लिए ही ऐसे सालाना जलसे आयोजित किए जाते हैं।इनमें जाने का लोभ-संवरण वे ही कर पाते हैं,जिनकी पूछ नहीं होती।कह सकते हैं कि जो ‘साहित्य-पशु’ होने से बचे रह गए हैं।
कीचड़-मंथन का एक चित्र मीडिया के सौजन्य से ख़ूब चर्चा में है।कहा और सुना जा रहा है कि एक वामी इतिहास-पुरुष ने दामी-प्रवक्ता को खूब धोया।गोया,वह पहली और आख़िरी बार धोया गया हो ! और जिसने उसे धोया,उसने वहाँ जाने के पाप को भी धोया।ज़ाहिर है,दोनों बातें सुनी-सुनाई हैं।ये पाप ऐसे धुलते तो हर कोई धो लेता।इसके लिए सालाना-मंच का इंतज़ार क्यों करना ! ऐसी कीचड़-चर्चा हमारे यहाँ दैनिक रूप से होती है और उसमे चैनल-बालाएँ बक़ायदा प्रशिक्षित भी हैं।हमारे-आपके ड्राइंग-रूम में मीडिया रोज़ ‘दंगल’ लगाता है।बस,उसे देखने की हिम्मत आप में होनी चाहिए।देखने न देखने का विकल्प हमारे पास तो है,कीचड़-कारों के पास नहीं।उनकी मजबूरी है,आख़िर कमल ‘कीचड़-फ़्रेंडली’ जो है।
इस आयोजन की एक मुख्य बात यह रही कि भीड़ के सामने इतिहास पर चर्चा हुई।नेहरू और सावरकर को एक साथ कीचड़ में लिथाड़ा गया।इसमें रेफ़री कमल-मुखी मीडिया रही जो दिन-रात सत्ता के चरण चूमती है।उसकी भूमिका पर आश्चर्य करने वाले बड़े भोले हैं।उसे ‘मुँहतोड़-जवाब’ देने वाले सबसे बड़े मासूम।इसमें एक भीड़ नेहरू की रही,दूसरी सावरकर की।मौजूदा सियासत का यह पसंदीदा अखाड़ा है।तिस पर किसी को मुग़ालता हो कि वह उसे पटकनी दे सकता है।
इस कीचड़-कुश्ती में एक ने नेहरू का बचाव किया,दूसरे ने सावरकर का।नेहरू इतने असहाय तो कभी न रहे कि उनका इस तरह बचाव हो ! दूसरे की बात नहीं कर सकता क्योंकि वह शाश्वत-बचाव से ही बचा हुआ है।भीड़ दोनों तरफ़ थी।एक नेहरू की,दूसरी दूसरे की।भीड़ अलग से न देखती है न सोचती है।‘भीड़कार’ उसे जो दिखाता,समझाता है,बस उतना ही वह अनुसरण करती है।क्या दोनों पक्षों में कोई एक यह दावा कर सकता है कि उसकी तक़रीर ने भीड़ के एक भी आदमी को इधर से उधर या टस से मस किया हो ! भीड़ ठस्स होती है।वहाँ नारे चलते हैं,विचार नहीं।भीड़ तर्क और संविधान में भरोसा नहीं करती।नेहरू या गाँधी किसी भीड़ की समझ में नहीं आ सकते।जो ‘गाद’ बरसों से भीड़ के दिमाग़ में जमा है,उसे दो-चार मिनट में साफ़ करने वाला ज़रूर जादुई पुरुष होगा।फिर भी दोनों तरफ की भीड़ खुश है।यही बाज़ार की सफलता है।चर्चाकार भी आह्लादित हैं।उन्हें उसी मीडिया में खूब कवरेज मिली,जिसके पतन की वह दैनिक गाथा लिखते हैं।
जो भीड़ नौ सालों से सब कुछ अपने सामने घटित होते हुए बाग-बाग है,उसे सौ-पचास साल पहले की घटनाओं,तथ्यों को समझाने वाला कोई ‘मासूम’ ही होगा।चर्चा अगर होनी भी चाहिए थी तो अतीत की नहीं वर्तमान की होती,जिसमें सत्ता के ख़िलाफ़ बेशुमार आरोप-पत्र हैं।सबूत हैं,वजहें हैं।पर फिर वही बात।यह कमलगट्टा-मीडिया ऐसा क्यों चाहेगा ! उसे यह काम रोज़ करने के लिए किसने रोका है ? जो मंच ऐसी सत्ता की छतरी के नीचे दबा हो,वहाँ बैठकर आप जुगाली भर कर सकते हैं।सो,ऐसे मंचों पर आप सिर्फ़ अपने लिए जायें,ख़ुद को बचाएँ।नेहरू बचे हुए हैं और गाँधी भी।चिंता उनको ज़्यादा है जो ऐसे प्रायोजित मंचों के अतिरिक्त कहीं नहीं बचे हैं।
आख़िरी बात।इससे फ़ायदा किसे हुआ ? क्योंकि बिना फ़ायदे के आजकल कुछ नहीं होता।हो सकता है प्रायोजक कंपनी का टर्न-ओवर बढ़ जाए।हो सकता है इतिहास-पुरुष की नए विषय पर किताब आ जाए।किंतु यह ज़रूर हो सकता है कि दूसरे प्रवक्ता का ‘निम्न-सदन’ में प्रवेश हो जाए और चैनल-चंचला को पत्रकारिता का नया ख़िताब मिल जाए !
जो चर्चा सियासी थी,वह साहित्य की चुनरी ओढ़कर कीचड़ तक आ गई।हम-आप उसमें लोट रहे हैं और मीडिया नया कीचड़ तलाश रहा है।तोते की जान उसी में है।
यह लेख भी उसी कमल-कलम की पैदाइश है।कीचड़ से ज़्यादा कुछ नहीं।
संतोष त्रिवेदी
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