रविवार, 12 अक्टूबर 2025

मेरा दुःख फिर भी कम है !

पिछले दिनों मेरे साथ दिल दहलाने वाली लगातार तीन घटनाएँ हुईं।पहले एक बुजुर्ग लेखक को तीस लाख रुपए की रॉयल्टी मिली, दूसरे को ‘नोबेल’ मिल गया और फिर मेरे प्रकाशक ने मेरी पांडुलिपि वापस कर दी।तीनों मामले यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सियासत की तरह साहित्य में भी कितने कूढ़मगज़ और नितांत नासमझ लोग भर गए हैं।मुझ जैसे अनुभवी और योग्य आदमी की कहीं कोई पूछ नहीं बची।


मैं एक अति संवेदनशील लेखक हूँ।इस सबसे मुझे बहुत धक्का लगा।यहाँ तक कि दो घंटे के लिए मैंने लिखना और दिखना सब छोड़ दिया था।वह तो मेरे एक घनिष्ठ मित्र का नाम सर्वश्रेष्ठ-लेखकों की ताज़ा सूची से कट गया तब जाकर मुझे थोड़ी राहत मिली।और ईश्वर पर भी भरोसा मज़बूत हुआ।वरना आजकल भविष्य की कौन कहे,मेरे वर्तमान पर भी ग्रहण लग गया है।तीस-लखिया लेखक का चेक जब से इंटरनेट मीडिया में तैरते देखा है, मेरा आत्म-विश्वास डूब गया है।प्रकाशक थोड़ी समझदारी दिखाता तो ‘डिजिटल-पेमेंट’ का विकल्प भी अपना सकता था।इससे कई लोग बीमार होने से बच जाते।मैं अपने लिए कम औरों की सेहत के लिए ज़्यादा चिंतित रहता हूँ।इस मसले पर कुछ लेखकों से बात हुई, वे प्रकाशक की उदारता की बजाय लेखक की दीनता को कोस रहे थे।उनका मत था कि ऐसे लेखक ही साहित्य को बाज़ार में ले आए हैं।उम्र के अंतिम पड़ाव में क्या ज़रूरत थी नया दरवाज़ा खोलने के लिए ! दीवार में पहले से ही एक खिड़की थी, उसी से बाहर झाँक लेते।मगर नहीं, उन्हें तो हमें ज़लील करना था,सो कर दिया।हमारा प्रकाशक भी क्या करे, वह हम जैसे हज़ारों को छापकर भी बरसों से दीन-हीन बना हुआ है।सही पूछिए, बेचारे की इस हालत के जिम्मेदार हम लोग ही हैं।हमारी किताबें गोदाम में सड़ रही हैं इसके बावजूद हमारा प्रकाशक प्रसन्न दिखता है।यह उसकी लेखकों के प्रति ज़बरदस्त सहयोग की भावना है।तीस-लाख की अद्भुत घटना के बाद से लेखकों के साथ कई प्रकाशक भी सदमे में हैं।बावजूद इसके कई लेखकों ने प्रकटतः ख़ुशी ज़ाहिर की है।क्या पता,उस उदार प्रकाशक की दृष्टि उन पर भी पड़ जाए !

इस बीच पाठकों की पूरी पीढ़ी बदल चुकी है।उसे स्वाद पसंद है; खाने में भी पढ़ने में भी।एक हम हैं कि क्लॉसिक और शाश्वत रचने के लिए बेचैन हैं।इस भ्रम में कि शायद कभी ‘नोबेल’ की लॉटरी लग जाए पर अब तो वह भी उम्मीद जाती रही।नोबेल के ‘हंग्री’ लेखकों को आख़िरकार निराशा हाथ लगी और हंगरी के एक अनाम-से लेखक को इनाम मिल गया।यह बुरा हुआ पर उतना नहीं जितना अपने देश में मुझे छोड़कर किसी और लेखक को मिलता।सुखद बात यह है कि हमारा भारतीय समाज थोड़े में ही संतोष कर लेता है।दूसरे को मिले दुःख में वह अपना भूल जाता है।यह कम सहनशीलता नहीं है।

देशी दुर्घटना से ठीक से निपटे नहीं थे कि अंतरराष्ट्रीय छीछालेदर के भी साक्षी हो गए।हालाँकि मेरे कई साथियों की गिद्ध-दृष्टि ‘नोबेल’ पर थी पर इन सबमें लायक मैं ही था।सौभाग्य से यह दुःख दुनिया के दारोग़ा ट्रंप चचा ने कम कर दिया।उनके दुःख के आगे मेरे दुःख की क्या बिसात ! ‘शांति’ का सम्मान पाने के लिए वह महीनों से दुनिया भर में अशांति फैलाए हुए थे, पर ‘सम्मान-समिति’ हमारे देश की समितियों की तरह संवेदनशील नहीं निकली।उसने तमाम भावनाओं और इच्छाओं का गला घोंटते हुए ‘ मेरिट’ जैसी तुच्छ चीज़ को वरीयता दी।बहरहाल, पहली बार मेरे दुःख का साझीदार अमेरिका बना।बाक़ी बचा दुःख पाकिस्तान ने हथिया लिया।पहली बार उसने ‘शांति’ की सिफारिश की थी, पर पूरी न हुई।इससे भी मुझे थोड़ा चैन मिला।

तीसरी घटना ज़्यादा दर्दनाक और वास्तविक रही।बाक़ी दोनों दुःखों के उचित साझीदार भी खोज लिए थे पर यह दुःख मुझे अकेले ही काटना था।मैं इंटरनेट मीडिया पर किताब के प्रकाशन की अग्रिम बधाई ले चुका था।देने वालों को आभार भी तुरंत रसीद कर दिया था,पर अब ? किताब के लटक जाने से रही-सही इज़्ज़त भी जाती रही।सौभाग्य से इस बात का पता प्रकाशक के सिवा किसी को नहीं पता।पूरा गरल अकेले पी रहा हूँ।लेखक होने का फ़ायदा बस इतना है कि निरंतर विष पीने का आदी हो चुका हूँ।ऐसे समय में नीलकंठ महादेव की याद आती है,फिर कुछ दुःख कम कर लेता हूँ।


ड्रॉइंग-रूम में बैठे हुए यह सोच ही रहा था कि ख़बर आई कि एक राज्य में खाँसी के सिरप पीने से कई मासूम चल बसे मगर मेरा क्या ? सारा दुःख उस सरकार ने दूसरी सरकार के ऊपर डाल दिया।अब किसी को कोई दुःख नहीं है।

- संतोष त्रिवेदी

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