14/02/2013 को जनवाणी में ! |
13/02/2013 को जनसन्देश में...! |
लो जी,बसंत आ गया और हम इसका स्वागत भी कर सकने की हालत में नहीं हैं। अपन औपचारिक रूप से बसंतोत्सव मनाने की अवस्था को पार कर चुके हैं,इसलिए हम दूसरे पाले में हैं। हमारे विरोध को जानने के लिए इसके गुण-धर्म को भी जानना ज़रूरी है। इस मौसम के आते ही मानव जाति तो छोडिये,प्रकृति तक लाज-शरम छोड़ देती है। अरसे से अपनी उम्मीदों और अरमानों को दिल में दबाए युवा जोड़े सार्वजनिक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर देते हैं। पूरे वर्ष भर कुछ कह न पाने का दर्द बसंत के दिनों में हवा हो जाता है। युवा-युवतियाँ चिड़ा-चिड़ों की तरह आज़ादी से विचरण करने लगते हैं।
इस बसंत के मौसम का सबसे पवित्र दिन चौदह फरवरी को आता है। कहते हैं एक संत ने इस दिन को प्रेम-दिवस के लिए आरक्षित कर दिया था इसलिए उस संत के बहाने कई दीन-दुखियारों का बसंत मन जाता है। जहाँ एक तरफ़ नए जोड़े इस दिन अपनी-अपनी किस्मत आजमाते हैं,वहीँ हम जैसे महंत लोग जल-भुनकर राख होते हैं। हमें अपना बीता हुआ पिछला ज़माना याद आता है जिसमें किसी ने प्रेम के इस विशेष पर्व की जानकारी ही नहीं दी थी। इसलिए जैसे ही हम किसी को गुलाब देते हुए देखते हैं,उसका कांटा सीधे हमारी छाती पर गड़ता महसूस होता है।
जहाँ एक तरफ नई पीढ़ी इस मौसम में बौराई हुई घूमती है,वहीँ आमों में लगे बौर भी प्रेम की महक से सराबोर हो उठते हैं। खेतों में नज़र डालते ही पीली सरसों बसंत की मादकता को बढ़ा देती है। प्रेम-दिवस आते-आते सरसों इतनी सयानी हो जाती है कि उसके सामने गेहूँ अपना प्रणय-निवेदन प्रस्तुत कर देता है। ऐसे में ठिगने चने को देखकर हमें अपनी दशा का गुमान होता है। वह बेचारा चाहकर भी सरसों तक अपनी बात नहीं पहुँचा पाता। दूसरी तरफ़ गेहूँ बासंती-हवा के झोंके से लहराती हुई सरसों को अपने आलिंगन में भर लेने को आतुर दिखता है। प्रकृति के ऐसे दृश्यों को देखकर हमारा झुर्रीदार शरीर और सूख जाता है।
बसंत आता है तो पूरी तैयारी के साथ आता है। खास बात है कि इसकी तैयारी घर के बजाय बाज़ार में ज़्यादा होती है। नए प्रेमियों को लुभाने के लिए कार्ड और फूल देना अब पुराना चलन हो गया है। बाज़ार वैलेंटाइन-डे के आने से पहले ही इतनी हवा भर देता है कि छोटे-मोटे गुब्बारे तो पहले ही पिचक जाते हैं। महंगे-से-महंगे उपहार प्रेम की गहराई तय करते हैं,ऐसे में छुटभैये प्रेमी इससे निपटने के लिए खास रणनीति बनाते हैं। वे साल भर पहले से ही अपने जेबखर्च से इस दिन का खर्च निकालना शुरू कर देते हैं। कई तो बेचारे यह काम एहतियातन शुरू कर देते हैं ताकि उनका साथी मिले तो किसी प्रकार के वित्तीय-संकट की आशंका से वह हाथ से ही न निकल जाए।
अब इस तरह के खतरे उठाने की न अपनी उमर रही और न हड्डियों में जान ही बची है कि रामसेना और शिवसेना का मुकाबला कर सकें। इसलिए हर तरफ से बसंत और खासकर यह प्रेम-दिवस हमें दुश्मन दिखता है। इस बात को हम अपनी संस्कृति से जोड़कर अपना मान-मर्दन नहीं होने देते। हर बार ‘संस्कृति बचाओ संघ’ वाले हमारी विचारधारा को सम्मान देते हुए प्रेम-दिवस के विरोध में आख्यान देने के लिए बुला लेते हैं। इसलिए हम हर तरह से इस मदनोत्सव और प्रेम-दिवस के विरोध में है। आप चाहें तो हमें संत के बजाय महंत कह सकते हैं।
5 टिप्पणियां:
बढियां लिखे हो चेले -एकदम मस्त!
हमारी स्थिति तो अब सचमुच खांखड़ भयो पलाश की ही है!
झक्कास.......
चढ़ी ज़वानी बुड्ढे को
बुड्ढे को पास बुलाओ
ek dam mast....
ek dam mast....
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