आखिरकार जिस बात की आशंका थी,वही हुआ।चुनाव का नगाड़ा
आधिकारिक रूप से बज ही गया।चुनाव तो होने ही थे,पर कुछ देर और ठहर जाते तो देश और
संवर जाता।कई काम होने के मूड में थे,उनमें ब्रेक लग गया है।पिछले दस सालों के
किये-कराए पर इससे पानी फिर गया है।अब सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती।आचार-संहिता
ने बहुत सारे काम रोक दिए हैं।यह नियम बड़ा अनुचित है,जिसमें चुनाव की तारीखों की
घोषणा होते ही आचार-संहिता लागू हो जाती है।कायदे से तो जब चुनाव की अधिसूचना जारी
हो,तब से यह प्रभावी होनी चाहिए।इससे माल बटोरने और बाँटने का थोड़ा मौका और मिल
जाता।फ़िलहाल ,सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि
काम करती हुई एक सरकार को उसके मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया गया है।अब गरीबों का
भला कैसे होगा ?
हमारे यहाँ चुनाव लोकतंत्र का पर्व माने जाते हैं।जिस
प्रकार बचपन में हमें पूरे साल जेबखर्च के नाम पर चाहे अधन्नी के लिए तरसना पड़ता
रहा हो,पर कार्तिक पूर्णिमा के मेले के लिए घरवाले अपना पूरा गुल्लक खोल देते थे।जिस
तरह साल भर का सूखा,हम एक दिन के पर्व में मिटा लेते थे ,सारे मलाल खत्म हो जाते
थे,ठीक वैसा ही अनुभव अब सरकार चुनावों से पहले कराती है।जो सरकार पिछले पाँच साल
से अंतर्धान रहती है,वह चुनावी-घोषणा होते ही कल्पवृक्ष बन जाती है।इससे जो भी
मांगो,तुरंत मिलता है।बल्कि कई बार तो बिना मांगे ही वरदानी-फल टपकने लगते हैं।देश
में अमीर-गरीब बराबर दिखने लगते हैं।हर तरफ एकदम से समाजवाद आ जाता है।
अफ़सोस है कि गरीबों पर होने वाली इस कृपा पर अचानक चुनाव
आयोग की मार पड़ गई ।अभी तो तिजोरियाँ और पिटारे खुले ही थे कि आचार-संहिता का
सायरन बजने लगा।अब भरे हुए बोरे अपने मूल स्थान को वापस लौट जायेंगे जबकि कई खाली
हाथ हवा में लहराते ही रह गए।अब उनकी खाली झोली कौन भरेगा ? हालाँकि आयोग ने इस
बार सांसदों की अमीरी और मतदाताओं की गरीबी को देखते हुए खर्च की सीमा को चालीस लाख
से सत्तर लाख कर दिया है पर इत्ती धनराशि तो केवल जनसंपर्क में ही उड़ जाएगी।सरकार
की बड़ी बड़ी योजनाएँ और करोड़ों के प्रोजेक्ट अब अधर में लटक गए हैं।आचार संहिता के
अचानक लागू होने से कई फीते कैंची के इंतजार में ही बंधे रह गए और कई पत्थर परदों
के पीछे ढंके रह गए हैं।
चुनाव आयोग की जल्दबाजी से ‘जन-जन को छुआ’ और ‘भारत-निर्माण
पूरा हुआ’ अभियान में सेंध लग गई है।अगर आचार-संहिता अभी लागू नहीं होती तो सरकार
से जो क्षेत्र अछूते रह गए हैं,उन्हें भी छूकर वह ‘छू’ कर देती,मगर ऐसा होने नहीं
दिया गया ।अब बिना सरकार के ‘करम’ के गरीब जनता कैसे जी पायेगी ? ज़रूरी नहीं है कि
चुनाव बाद नई सरकार इसी गति से काम करे, इसलिए जब वर्तमान सरकार काम करने पर आमादा
थी,तो उसे आचार संहिता के नाम पर काम करने से रोक देना कहाँ का न्याय है ?
नईदुनिया में 07/03/2014 को प्रकाशित |
1 टिप्पणी:
कई कार्य बन्द हो जाते हैं।
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