शनिवार, 1 मार्च 2014

तबेला बदलने के दिन !


मनुष्य का पशुओं से सदा से एक नैसर्गिक सम्बन्ध रहा है।इस वज़ह से कई बार देखने में आया है कि पशुओं ने मनुष्य की स्वभावगत विशेषताओं को आत्मसात किया है।मनुष्य भी कहाँ पीछे रहने वाला प्राणी है।वह अपने काम के लायक बात सीख ही लेता है।पशुओं में भैंस और मनुष्यों में नेता सबसे समझदार प्राणी माने जाते हैं।थोड़े दिन पहले सात भैंसों ने पशुहित में अपने तबेले का त्याग कर दिया था पर वे दूसरे दिन ही अपने खूँटे में वापस बंध गईं थीं।यह बात पशुओं के लिए तो प्रेरक रही ही,मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली प्रजाति ने इसका सबक जल्द लपक लिया।कुछ  माननीयों ने अपने खूँटे से विद्रोह किया पर कुछ ही देर बाद उनमें से कुछ ससम्मान वापस लौट आये,बाकी फिर भी जनहित में दूसरे तबेले में घुस गए।

जिस तबेले में यह क्रांति हुई,उसके अगुआ स्वयं बड़े क्रान्तिकारी रहे हैं।कुछ समय पहले ही वे कारागार को पवित्र कर वापस लौटे हैं।वे चाय के तूफ़ान को कुल्हड़ में रोकने की कोशिशों में जी-जान से जुटे थे कि नामुराद तीर ने उनकी लालटेन का शीशा चटका दिया।अब उनके सामने कई प्रश्न खड़े हो गए हैं।एक तो,अँधेरे में उनको राह कौन दिखायेगा दूसरे, बड़ी क्रांति की अगुवाई बिना लालटेन के कैसे होगी ? लगता है,अब उससे भी हाथ धोना पड़ेगा।नेता जी को संतोष इस बात का है कि अभी कुछ बचा हुआ है।लालटेन का तेल भले ही खत्म हो गया हो पर उसकी बाती में ऐंठन अभी बाकी है।तबेले में बची हुई भैंसों के लिए पर्याप्त चारा का इंतजाम करना अब उनकी पहली प्राथमिकता है।चारा रहेगा तो भैंसें अँधेरे में भी मुँह मार लेती हैं।लालटेन की ज़रूरत सिर्फ नेता जी को है।वे उसके बिना आगे नहीं बढ़ पायेंगे।

तबेला छोड़कर भागने वाले खुश हैं।उन्हें फ़िलहाल एक मज़बूत खूँटा और भरी नांद मिल गई है।जब तक वहां चारा-सानी का इंतजाम दिखेगा,जमकर मुँह मारेंगे।रसद खत्म होने पर खूँटे में बंधे रहना समझदारी नहीं है।भूखे पेट कोई पशु नहीं टिकता तो फिर मनुष्य से ऐसी अपेक्षा क्यों ? उसका पेट तो और बड़ा होता है।जिस तरह घोड़ा घास से यारी नहीं करता,उसे अपना पेट भरने के लिए घास को चबाना ही पड़ता है,ऐसे ही भैंस हो या मनुष्य,चारा तो सबको चाहिए।यह और बात है कि कई बार चारा चबाने वाले खुद किसी और का चारा बन जाते हैं।

फ़िलहाल,एक तबेले से दूसरे तबेले में जाने और पूरा का पूरा दूसरे में समाने के दिन हैं।रोज़ खूँटा और नांदें बदली जा रही हैं।चारे की उपलब्धता के आगे उसकी गुणवत्ता पर विमर्श करना मूर्खता है।रास्ता दिखाने वाली लालटेन भले बुझ जाए पर तबेले तो आबाद रहेंगे।तबेलों का असली संकट रोशनी नहीं चारा है।जिस तबेले में भरपूर चारा होगा,भैंसों की अधिकतर आमद भी वहीँ होगी।


©संतोष त्रिवेदी
जनवाणी में 01/03/2014 को प्रकाशित।

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जहाँ भविष्य अधिक सुरक्षित दिख रहा है, वहीं जाना सबको भा रहा है।

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