मंगलवार, 7 जुलाई 2015

संवेदनाएँ भी आॅनलाइन हैं !

सरकारें संवेदना या नैतिकता से नहीं बल्कि बहुमत से चलती हैं।यह बात इतनी सीधी है फ़िर भी बहुतों को समझ में नहीं आती।एक तरफ़ ‘व्यापमं’ की व्यापकता बढ़ रही है,दूसरी ओर सरकार गिनती की सही जाँच करने में जुटी है।कोई कह रहा है अब तक महज ३३ मुर्दे ही मिले हैं तो कोई इनकी संख्या ४६ बता रहा है।हिसाब भी कोई कितना रखे ? सरकार जब तक नई गिनती बताती है,इधर गिनती और बढ़ जाती है।अब इसमें सरकार का क्या दोष ? कोई पूर्व सूचना देकर थोड़ी मरने जाता है !

सरकार अपनी ओर से भरसक प्रयास कर रही है पर मौत के आगे किसी का जोर नहीं,खासकर तब जब मौत प्राकृतिक हो।ऐसी सरकार की मुश्किलें कोई नहीं समझ सकता जो स्वयं मुर्दा हो चुकी हो।यह क्या कम है कि वह फ़िर भी अपनी जिम्मेदारी निभा रही है।मौत तो सबको एक दिन आनी है और जो चीज़ आनी निश्चित है,उसका क्या दुःख ! रेल हो या जेल,मृत्यु अपना शिकार ढूँढ लेती है इसलिए समझदार लोग रेल या जेल में नहीं मिलते।वे स्वयं अपनी प्राकृतिक-चिकित्सा का खयाल रखते हैं इसलिए ‘प्राकृतिक-मृत्यु’ की चपेट में नहीं आते। बुलेट-प्रूफ शीशों और बीएमडब्लू गाड़ियों की ईजाद यूँ ही नहीं की गई है।दुर्घटनाएं भी स्टेटस देखकर आती हैं।

आम आदमी की मौत एक सामान्य प्रक्रिया है।नेता,खासकर जब वह मंत्री हो,किसी पत्रकार या आम नागरिक से बड़ा होता है।सत्ताधारी का ‘बड़ापन’ समाज के लिए जितना ज़रुरी है,उतना ही उनका समाज में जीवित रहना।मुर्दा होते समाज में चालीस-पचास मुर्दे और बढ़ गए तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा ? जाँच तो चल ही रही है।हो सकता है कल को यह पता चले कि मरने वाले ‘मानवीय आधार ‘ पर अपने आप उठकर चले गए।इससे फायदा यह होगा कि सरकार का समय किसी जाँच-फांच में बेकार नष्ट नहीं होगा।यह समय वह ‘अच्छे दिनों’ को घसीटकर लाने में लगा सकती है।वैसे भी गिनती ‘अब तक छप्पन’ के पार नहीं पहुंची है।तब तक तो इंतज़ार बनता है।

संवेदना अब हृदय में उपजने की चीज़ नहीं रह गई है।’डिजिटल इंडिया’ के जमाने में वह भी ‘हिसाबी’ हो गई है।मौत के बाद राहत-राशि के रूप में सम्वेदना प्रकट हो सकती है।वैसे भी संवेदनाएं ऑनलाइन आ चुकी हैं।उन्हें ट्विटर पर देखा जा सकता है।सेल्फी डालकर पीड़ित को तसल्ली दी जा सकती है।रही बात हो रही ‘मौतों’ की तो यह एक सनातन प्रक्रिया है।हाँ,गिनती बराबर अपडेट की जा रही है।

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