गाँधी जी ऊपर बैठे पछता रहे हैं।पूरी ज़िंदगी लँगोटी पहनने की ज़िद की,सूत काता,फिर भी वो नहीं कमा पाए जो उनके नए अवतार ने केवल झाड़ू और चरख़ा पकड़कर पलक झपकते ही पा लिया।देश को जानने,समझने के लिए उन्होंने बरसों गाँव-गाँव,सड़क-सड़क घूमकर अपनी ऊर्जा नष्ट की फिर भी कोई चमत्कार नहीं पैदा हुआ।इधर नव-गाँधी केवल कलेंडर और डायरी में ही घुसकर पूरे देश में छा गए।इससे साबित होता है कि गाँधी एक असफल नेता थे।इसलिए आज़ादी के समय और उसके बाद किसी भी असफलता के सबसे सहज कारण गाँधी ही माने जाते हैं।आज देश की जो दुर्गति है,इसमें गाँधी और उनकी प्रेरणा का योगदान सबसे अधिक है।हमारे नए गाँधी ग़ुलामी के वक़्त होते तो फिरंगियों के ख़िलाफ़ आमरण अनशन नहीं करते,बल्कि उन्हें भाषण पिला-पिला कर ही मार डालते।
ख़ैर,अब तक जो हुआ सो हुआ,अब नहीं होगा।सत्तर सालों का हिसाब मिलना शुरू हो गया है।गाँधी का आम आदमी क़तार में खड़ा आख़िरी आदमी था पर अब क़तार में खड़े हर आदमी का हाल आख़िरी आदमी जैसा हो गया है।समाज में यह बराबरी गाँधी की मुद्रा बदलने से आई है।इससे साफ़ हुआ कि वो गाँधी अब निरर्थक हो गए हैं।मुद्रा बदलने से अगर बाज़ार मूल्य बढ़ता है तो बदल। लेने में समझदारी है।बाज़ार के बरक्स आदमी और मुद्रा का अवमूल्यन तुच्छ है।हम बाज़ार में रहेंगे,बिकेंगे,तभी बचेंगे।आज हमारे लिए होना नहीं बचना ज़रूरी है।गाँधी भी इसी बाज़ार में खड़े हैं।उनकी हर चीज़ अब नुमाइश की चीज़ है।जो दिखता है,वो बिकता है,इसी सिद्धांत पर उनकी नई पीढ़ी अमल कर रही है।और देखिए,इतने भर से खादी हॉट हो गई है ! बाज़ार का हिट होना ज़रूरी है,इससे गाँधी 'हिट' होते हैं तो हों।
चरख़ा अचानक चमत्कारी हो गया है।पहले सूत कातता था,अब वोट कातने लगा है।गाँधी जी इस परिवर्तन से सबसे ज़्यादा ख़ुश हैं।देश को आज़ादी मिले इतने बरस हो चुके हैं पर अब जाकर उन्हें मुक्ति मिली है।यह सफ़र इतना आसान भी नहीं रहा।ऐसी सम्मानपूर्ण विदाई उन्हें किश्तों में मिली है।पहले उनका शरीर मुक्त हुआ,फिर विचार।प्रचार में वो फिर भी लगातार बने रहे।पुरानी दीवारों के कलेंडर में टंगे रहे।फिर अचानक एक दिन देश बदलने लगा।सफ़ाई-अभियान चला और गाँधी सब जगह से ग़ायब होने लगे।दिल के बाद नोट से भी उतर गए।यह उचित भी हुआ।दुबले-पतले और अधनंगे फ़क़ीर की तस्वीर किसी म्यूज़ियम में तो स्थापित की जा सकती है पर बाज़ार के रैम्प पर कैटवाक करने के लिए डिज़ाइनर और सूटेड-बूटेड फ़क़ीर ही उपयुक्त होता है।हिट होने के लिए मौनव्रत के आंदोलन की नहीं हंगामाखेज इवेंट की ज़रूरत होती है।गाँधी इसीलिए फ़ेल हो गए।
चरखा नए गाँधी के हत्थे चढ़ चुका है।खादी को उसकी खाद मिल गई है।सियासी फ़सल लहलहाने लगी है।चरखे से सूत नहीं सीधे सत्ता निकल रही है।यह देखकर गाँधी जी की बकरी डरने लगी है।मुक्तिकाल की मूकदर्शक रही है वह।आम आदमी को उसने मुक्ति पाने के लिए क़तारबद्ध होते देखा है।वह चिंतित है कि नए गाँधी कहीं उसे भी न झपट लें ! पर वह नादान है।उसे नहीं पता कि भेड़-बकरियों के पास बचने का कोई विकल्प नहीं होता।पूरी तरह दुह कर उन्हें मुक्त कर दिया जाता है।मुक्ति पर उनका स्थायी हक़ है।बदलते हुए देश में अब सब कुछ मुक्त हो रहा है,बिलकुल शर्म-मुक्त शेख़ी के साथ।
1 टिप्पणी:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस : कवि प्रदीप और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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