शुक्रवार, 9 मार्च 2018

मूर्तियों का मुक्तिकाल और सभ्यता-परिवर्तन !

मूर्तियाँ ख़ुश हैं।वे यकायक सजीव हो उठी हैं।बरसों से घाम और बारिश में जो एक ही मुद्रा में खड़ी थीं, ‘सभ्य-समाज’ के प्रयासों से वे हरकत में आ गई हैं।जीवितों की तरह ही वे टूट रही हैं,गिर रही हैं और एक-दूसरे से ईर्ष्या भी कर रही हैं।आदमी भौंचक है।उसे इतनी जल्दी ‘मानव-विकास क्रम’ के पाषाण-युग में जाने का भरोसा नहीं था।पत्थरबाज़ी से चलकर वह मूर्तिबाजी तक आ गया।मूर्तियाँ आपस में खुसर-पुसर कर रही हैं।वे एकदम से संवेदनशील हो उठी हैं।एक ने दूसरी से पूछा-तू गिरी क्यों ? अच्छी-ख़ासी तो टिकी हुई थी।रोज़ फूल भी चढ़ रहे थे।इतनी भी क्या नाज़ुक हो गई कि फूलों का भार भी नहीं झेल सकी ?

उसने जवाब दिया-मैं तेरी तरह बोझ से नहीं गिरी।बक़ायदा शहीद हुई हूँ।अब मेरा स्मारक बनेगा।फिर से प्राण-प्रतिष्ठा होगी।आदमी अपने जीने के लिए मुझे कभी मरने नहीं देगा।तू अपनी बता,तू कैसे ज़मींदोज़ हुई ? तुझे तो सरकार ने आदमियों से सुरक्षा भी दे रखी थी।दूध से नहाती थी।रोज़ाना अभिषेक होता था।फिर मिट्टी में कैसे मिल गई ?

पहली वाली ने टूटे हुए मुँह से उत्तर दिया-मैं तो सभ्यता के प्रति सदा समर्पित रही हूँ।जब तक टँगी रही,सभ्यता को टाँगे रही।आदमी अब स्वयं सभ्य हो गया है।उसने ख़ुद को टाँग लिया है।वह आत्म-निर्भर होकर स्वयं पत्थर बन गया है।यह मेरी गिरावट नहीं बल्कि मुक्ति का प्रतीक है।कबूतर और कौओं के लिए ज़रूर अफ़सोस है।बीट करने के लिए उन्हें आदमी पर निर्भर होना पड़ेगा।यह नई स्थापनाओं का समय है।मूर्तियाँ खंडित हो रही हैं,मूर्खताएँ स्थापित हो रही हैं।बुत अब बोलने लगे हैं।वैसे भी टूटे हुए मुँह से स्वस्थ विचार कहाँ निकल सकते है ! आदमी के पास अब विचार हैं।वह अब सोचता भी है,भविष्य के प्रति चिंतित भी है।हम भले गिर रहे हैं पर वह उठ रहा है।हम इसी में ख़ुश हैं।

अचानक दोनों मूर्तियाँ ख़ामोश हो गईं।उन्हें आदमियों की पदचाप सुनाई दी।वे नई मूर्तियाँ ला रहे थे।दोनों मूर्तियाँ अब आश्वस्त थीं कि सरकार सक्रिय हो चुकी है।

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