सुबह उठते ही जैसे मैंने मोबाइल ऑन किया,’व्हाट्स अप’ ने दन्न-से तीस संदेश उगल दिए।यह सोचकर बड़ा अपराध-बोध हुआ कि बेचारे संदेश न जाने कब से बाहर आने को छटपटा रहे थे।अनजाने में हमसे बड़ा भारी गुनाह हो गया।अब इसका प्रायश्चित्त तो करना ही था,सो सभी संदेशों को हमने एक-एक कर पहले मोबाइल में उतारा फिर अपने दिल में।इनमें इक्कीस संदेश तो ‘सुप्रभात’ के ही थे,वो भी एक-से-एक सुदर्शनाओं से लैस।हमें ऐसा लगा कि जैसे पृथ्वीलोक में हमारे लिए ‘अच्छे दिन’ लाने का टेंडर देवलोक की इन्हीं अप्सराओं को मिला हो ! उनकी शुभकामनाओं-सदिच्छाओं की बाढ़ में हम थोड़ी देर डूबते-उतराते रहे।जब होश संभाला तो उन सभी का आभार व्यक्त किया जो मेरी सुबह के लिए मुझसे अधिक फ़िक्रमंद थे।इसके बाद तो मेरा दिन वाक़ई ‘अच्छा’ हो गया।
थोड़ी ही देर बाद मेरा मोबाइल फिर से ‘बीप’ मारने लगा।किसी अच्छी ख़बर की ‘आशंका’ तो मुझे ‘गुड मॉर्निंग’ के थोक संदेशों से ही हो गई थी,ताज़ा संदेश से वह सच साबित हुई।शहर के इनामी साहित्यिक-गिरोह ‘लेखक उठाओ समिति’ ने मुझे अपने ‘व्हाट्स-अप’ ग्रुप में उठा लिया था।ऐड्मिन श्री साहित्य सवार जी ने मुझ पर अपना भरोसा जताते हुए बेहद महत्वपूर्ण काम सौंपा था।मुझे नियमित रूप से गिरोह में हो रही किसी भी गतिविधि में ‘बधाई’ और ‘शुभकामना’ उगलने का ‘पॉवर’ मिला था।उनके अनुसार चूँकि मैं उभरता हुआ लेखक हूँ,इसलिए उन्होंने मुझे सही समय पर ‘उठा’ लिया था।मैं तो केवल इसी बात से फूलकर मटका हो रहा था कि मेरे जीते जी ‘उठने’ की क्रिया सम्पन्न हो रही थी,वरना ज़्यादातर लेखक तो मरने के बाद ही साहित्य में उठते हैं।बिना किसी ‘पासपोर्टी-पड़ताल’ के मुझ जैसे साहित्य-विमुख को निरा साहित्यिक प्रयोजन में धर लिया गया,यह आसान उपलब्धि नहीं थी।मुझे लगा,हो न हो,यह साहित्य की ‘तत्काल-सेवा’ हो।मैं ख़ुद को बड़ा ख़ुशनसीब समझ रहा था कि मुझे इसका कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं देना होगा,सिवाय समय के।वैसे भी मैं दिन भर निठल्ला पड़ा रहता हूँ,सो समय की अपन के पास कभी कोई कमी नहीं रही।शायद साहित्य सवार जी को हमारी इसी प्रतिभा का सुराग़ मिला हो और इसीलिए उन्होंने मुझे ‘लेखक उठाओ’ मिशन में शामिल कर लिया।
अलस्सुबह हुए इस ‘साहित्याघात’ से उबरने की अभी कोशिश में ही था कि मेरी प्रगति का एक और रास्ता खुलता दिखा।‘जाति बचाओ दस्ता’ ने मुझे सजातीय समझकर अपने गैंग में तुरंत प्रभाव से जोड़ लिया था।मैं यह कभी सोच भी नहीं सकता था कि मेरी जातीय ‘उपलब्धि’ भी कभी कुछ कमाल दिखाएगी ।पर जब समय अच्छा चल रहा हो तो गुंडा भी वज़ीर बन जाता है।मैं तो फिर भी केवल निठल्ला था।ग्रुप में जोड़ने के साथ एडमिन ने मुझे काम भी दे दिया।ग्रुप में प्रसारित ताज़ा पर्चे को देखते ही दस लोगों को शेयर करना था।इसे पढ़ने में समय बर्बाद करना मतलब गैंग की निष्ठा पर सवाल उठाना माना जाता।मेरे पास न समय की कमी थी,न निष्ठा की,सो मैंने बिना पढ़े ही अपनी संपर्क-सूची में शामिल सभी मित्रों को एक ‘किक’ सॉरी क्लिक से पर्चा फ़ॉरवर्ड कर दिया।पहली बार मैंने कोई नेक काम किया था और इस ‘नेकी’ को दरिया में डाल भी दिया था।दिन की शुरुआत से ही इतना अच्छा रेस्पॉन्स मिल रहा था कि मैं सब-कुछ भूल-भालकर ‘व्हाट्स-अप विश्वविद्यालय’ में भर्ती होने के मज़े उठाने लगा।
तभी श्रीमती जी ने रसोई से आवाज़ लगाई-‘शालू के पापा,सुन रहे हो ? सूरज सर पर चढ़ आया है और तुम हो कि अभी मोबाइल में ही घुसे हो ! आज नित्य-क्रिया करने का मूड नहीं है क्या ?’एक साथ इतने ‘जिनुइन’ सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं था।झट से मोबाइल का ‘डेटा’ बंद किया और बाथरूम में घुस गया।तक़रीबन आधे घंटे की अलौकिक-शांति महसूसने के बाद बाथरूम से बाहर निकला।नाश्ते से पहले मोबाइल पर टूट पड़ा।डेटा ऑन करते ही ‘व्हाट्स-अप’ पर संदेशों की बरसात होने लगी।पंद्रह वीडियो और पचास ‘सुभाषित’ ग्रहण करने से मोबाइल का हाज़मा तो ठीक हुआ पर मेरा बिगड़ गया।पहले दो घंटे उन्हें पचाने में लगे,फिर तीन घंटे हटाने में।नाश्ता ‘लंच-टाइम’ में पहुँच गया और दिमाग़ फ़्रीज़र में।इस बीच पता नहीं कैसे ‘राष्ट्रीय निठल्ला समिति’ के सचिव को मेरे ‘व्हाट्स-अप’ में होने की ख़बर मिल गई।उन्होंने ‘हम सब एक हैं’ ग्रुप में मुझे अपनी संपत्ति समझकर घसीट लिया।ग्रुप में एक वायरल-ग्रस्त वीडियो पर गंभीर विमर्श मचा हुआ था।यह सब देखकर ख़ुद को ‘वायरल’ की आशंका होने लगी।मुझे ‘व्हाट्स-अप’ के ‘लच्छन’ ठीक नहीं लगे।’न रहेगा बाँस,न बजेगी बाँसुरी’ जैसे पुराने आइडिये पर अमल करते हुए मैंने मोबाइल से ‘व्हाट्स-अप’ ही हटा दिया और पार्क में आकर घंटों ‘निठल्ला चिंतन’ करता रहा।
शाम को जैसे ही घर में क़दम रखा,छोटे बेटे ने कोहराम मचा दिया।कहने लगा-पापा,मेरा होमवर्क अब आप ही करोगे।आपके मोबाइल में ‘व्हाट्स-अप’ तक नहीं है।मैं दोस्तों से होमवर्क कैसे लूँ ?’ मेरे लिए यह बड़ी आफ़त थी।छोटी-छोटी आफ़तों ने आख़िरकार बड़ी आफ़त के आगे ‘सरेंडर’ कर दिया।अब मोबाइल में ‘व्हाट्स-अप’ है,ग्रुप है,सनसनी है,संदेश है।मैं भी अब निठल्ला नहीं रहा।दिन-भर संदेशों को कूड़ेदान में फेंकता रहता हूँ।
संतोष त्रिवेदी
थोड़ी ही देर बाद मेरा मोबाइल फिर से ‘बीप’ मारने लगा।किसी अच्छी ख़बर की ‘आशंका’ तो मुझे ‘गुड मॉर्निंग’ के थोक संदेशों से ही हो गई थी,ताज़ा संदेश से वह सच साबित हुई।शहर के इनामी साहित्यिक-गिरोह ‘लेखक उठाओ समिति’ ने मुझे अपने ‘व्हाट्स-अप’ ग्रुप में उठा लिया था।ऐड्मिन श्री साहित्य सवार जी ने मुझ पर अपना भरोसा जताते हुए बेहद महत्वपूर्ण काम सौंपा था।मुझे नियमित रूप से गिरोह में हो रही किसी भी गतिविधि में ‘बधाई’ और ‘शुभकामना’ उगलने का ‘पॉवर’ मिला था।उनके अनुसार चूँकि मैं उभरता हुआ लेखक हूँ,इसलिए उन्होंने मुझे सही समय पर ‘उठा’ लिया था।मैं तो केवल इसी बात से फूलकर मटका हो रहा था कि मेरे जीते जी ‘उठने’ की क्रिया सम्पन्न हो रही थी,वरना ज़्यादातर लेखक तो मरने के बाद ही साहित्य में उठते हैं।बिना किसी ‘पासपोर्टी-पड़ताल’ के मुझ जैसे साहित्य-विमुख को निरा साहित्यिक प्रयोजन में धर लिया गया,यह आसान उपलब्धि नहीं थी।मुझे लगा,हो न हो,यह साहित्य की ‘तत्काल-सेवा’ हो।मैं ख़ुद को बड़ा ख़ुशनसीब समझ रहा था कि मुझे इसका कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं देना होगा,सिवाय समय के।वैसे भी मैं दिन भर निठल्ला पड़ा रहता हूँ,सो समय की अपन के पास कभी कोई कमी नहीं रही।शायद साहित्य सवार जी को हमारी इसी प्रतिभा का सुराग़ मिला हो और इसीलिए उन्होंने मुझे ‘लेखक उठाओ’ मिशन में शामिल कर लिया।
अलस्सुबह हुए इस ‘साहित्याघात’ से उबरने की अभी कोशिश में ही था कि मेरी प्रगति का एक और रास्ता खुलता दिखा।‘जाति बचाओ दस्ता’ ने मुझे सजातीय समझकर अपने गैंग में तुरंत प्रभाव से जोड़ लिया था।मैं यह कभी सोच भी नहीं सकता था कि मेरी जातीय ‘उपलब्धि’ भी कभी कुछ कमाल दिखाएगी ।पर जब समय अच्छा चल रहा हो तो गुंडा भी वज़ीर बन जाता है।मैं तो फिर भी केवल निठल्ला था।ग्रुप में जोड़ने के साथ एडमिन ने मुझे काम भी दे दिया।ग्रुप में प्रसारित ताज़ा पर्चे को देखते ही दस लोगों को शेयर करना था।इसे पढ़ने में समय बर्बाद करना मतलब गैंग की निष्ठा पर सवाल उठाना माना जाता।मेरे पास न समय की कमी थी,न निष्ठा की,सो मैंने बिना पढ़े ही अपनी संपर्क-सूची में शामिल सभी मित्रों को एक ‘किक’ सॉरी क्लिक से पर्चा फ़ॉरवर्ड कर दिया।पहली बार मैंने कोई नेक काम किया था और इस ‘नेकी’ को दरिया में डाल भी दिया था।दिन की शुरुआत से ही इतना अच्छा रेस्पॉन्स मिल रहा था कि मैं सब-कुछ भूल-भालकर ‘व्हाट्स-अप विश्वविद्यालय’ में भर्ती होने के मज़े उठाने लगा।
तभी श्रीमती जी ने रसोई से आवाज़ लगाई-‘शालू के पापा,सुन रहे हो ? सूरज सर पर चढ़ आया है और तुम हो कि अभी मोबाइल में ही घुसे हो ! आज नित्य-क्रिया करने का मूड नहीं है क्या ?’एक साथ इतने ‘जिनुइन’ सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं था।झट से मोबाइल का ‘डेटा’ बंद किया और बाथरूम में घुस गया।तक़रीबन आधे घंटे की अलौकिक-शांति महसूसने के बाद बाथरूम से बाहर निकला।नाश्ते से पहले मोबाइल पर टूट पड़ा।डेटा ऑन करते ही ‘व्हाट्स-अप’ पर संदेशों की बरसात होने लगी।पंद्रह वीडियो और पचास ‘सुभाषित’ ग्रहण करने से मोबाइल का हाज़मा तो ठीक हुआ पर मेरा बिगड़ गया।पहले दो घंटे उन्हें पचाने में लगे,फिर तीन घंटे हटाने में।नाश्ता ‘लंच-टाइम’ में पहुँच गया और दिमाग़ फ़्रीज़र में।इस बीच पता नहीं कैसे ‘राष्ट्रीय निठल्ला समिति’ के सचिव को मेरे ‘व्हाट्स-अप’ में होने की ख़बर मिल गई।उन्होंने ‘हम सब एक हैं’ ग्रुप में मुझे अपनी संपत्ति समझकर घसीट लिया।ग्रुप में एक वायरल-ग्रस्त वीडियो पर गंभीर विमर्श मचा हुआ था।यह सब देखकर ख़ुद को ‘वायरल’ की आशंका होने लगी।मुझे ‘व्हाट्स-अप’ के ‘लच्छन’ ठीक नहीं लगे।’न रहेगा बाँस,न बजेगी बाँसुरी’ जैसे पुराने आइडिये पर अमल करते हुए मैंने मोबाइल से ‘व्हाट्स-अप’ ही हटा दिया और पार्क में आकर घंटों ‘निठल्ला चिंतन’ करता रहा।
शाम को जैसे ही घर में क़दम रखा,छोटे बेटे ने कोहराम मचा दिया।कहने लगा-पापा,मेरा होमवर्क अब आप ही करोगे।आपके मोबाइल में ‘व्हाट्स-अप’ तक नहीं है।मैं दोस्तों से होमवर्क कैसे लूँ ?’ मेरे लिए यह बड़ी आफ़त थी।छोटी-छोटी आफ़तों ने आख़िरकार बड़ी आफ़त के आगे ‘सरेंडर’ कर दिया।अब मोबाइल में ‘व्हाट्स-अप’ है,ग्रुप है,सनसनी है,संदेश है।मैं भी अब निठल्ला नहीं रहा।दिन-भर संदेशों को कूड़ेदान में फेंकता रहता हूँ।
संतोष त्रिवेदी
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