चुनाव आते,उसके पहले होली आ गई।मतलब नेताओं को ही नहीं जनता को भी मज़ाक़ करने की छूट मिल गई है।चुनाव में भले आचार-संहिता लागू हो गई हो,होली में कोई संहिता नहीं चलती।कोई किसी पर कितना भी कीचड़ पोते,वह बुरा नहीं मानता।होली ही ऐसा मौक़ा है जब दाग़ भी अच्छे लगते हैं।चुनाव में रंग बदलना भले ‘देशहित’ में ज़रूरी हो,होली में रंगहीन रहना असामाजिक अपराध माना जाता है।होली है तो रंग बदलने के लिए गिरगिट बनना ज़रूरी नहीं है।इससे गिरगिट को भी इस बार तसल्ली मिलेगी।राजनीति में ‘अंतरात्माएँ’ ठीक समय पर जग जाती हैं।खूँटे से बँधे लोग बंधन तोड़कर दूसरे तंबू में घुस लेते हैं।पलक झपकते ही अपना हाथ विरोधी की कटार बन जाता है।यह आत्माओं का पुनर्जागरण काल है।चुनावी-वक़्त में ‘आचार-संहिता’ की तलवार भले सिर पर लटकती हो पर ‘नैतिकता’ और ‘सिद्धांत’ की मज़बूत ढाल बंदे का बाल भी बाँका नहीं होने देती।
होलियाने मौसम में कोई किसी बात का बुरा नहीं मानता।गाल में गुलाल हो या चेहरे पर क़ालिख पुती हो,होली सबको यकसा बना देती है।सारी सूरतें एक जैसी लगती हैं।चूँकि इस बार चुनाव का पर्व होली से ही शुरू हो रहा है,इसलिए सबको कीचड़ करने का पर्याप्त मौक़ा मिल रहा है।जहाँ सत्तापक्ष चाहता है कि जितना ज़्यादा कीचड़ होगा,वह उतना ही ‘खिलेगा’,वहीं विपक्ष का मानना है कि कीचड़ में खिलने का अधिकार किसी एक को नहीं है।उसके पास क्वॉलिटी-कीचड़ है।प्रमाण-स्वरूप दोनों तरफ़ से ज़हरीली-ज़ुबानें सक्रिय हो उठी हैं।होली में गुझिया के साथ-साथ एक-दूसरे को गालियों से भरा डिब्बा भी डिस्पैच किया जा रहा है।विरोधी पर बयानों की जितनी तगड़ी ‘स्ट्राइक’ होगी,कुर्सी की संभावना उतनी ही प्रबल होगी।
होली की इसी हुड़दंग के बीच जनसेवक जी राफ़ेल लेकर खुलेआम सड़क पर आ गए।उनको देखकर लोग तितर-बितर होने लगे।जनसेवक जी ने सबको आश्वस्त किया कि यह उसकी गायब हुई फ़ाइल है,मिसाइल नहीं।लोग फिर भी आशंकित होकर दूर खड़े देखते रहे।अब जनसेवक जी से रहा नहीं गया।वे ज़ोर-ज़ोर से ‘अपना टाइम आएगा’ गाना गुनगुनाने लगे।कुछ लोग उनकी ओर सरके भी।तभी एक अनहोनी हो गई।जनसेवक जी अभी नए गाने पर ठीक से सुर भी नहीं लगा पाए थे कि तभी पीछे से किसी ने ‘भारत माता की जय’ कर दी।जनसेवक जी का मुँह ताज़े कीचड़ से सन गया।वे एकदम से सन्न रह गए।राफ़ेल हाथ से छूट गया।हालात बिगड़ते देखकर हाथी साइकिल पर चढ़कर भागा।यह देखकर जनसेवक जी का गला सूख गया।मौक़े की नज़ाकत देखते हुए पास खड़े शुभचिंतक ने शर्बत से भरे लोटे को उनके आगे कर दिया।जनता का इत्ता प्यार देखकर उनका गला भर आया।एक ही झटके में जनसेवक जी ने पूरा लोटा गटागट गले के पार कर दिया।बग़ल में खड़े असल शुभचिंतक ने रहस्य खोला कि यह तो बनारसी भांग वाला महामिलावटी-शर्बत है।बिना असर किए उतरेगा ही नहीं।
यह सुनते ही नशा चढ़ने लगा।पहले शर्बत को चढ़ा फिर जनसेवक जी को।सड़क पर कौतूहल बढ़ते देखकर मजमा लग गया।सही समय पर हम भी वहीं पहुँच गए।जनसेवक जी ने जैसे ही हमें देखा, प्रेस-कांफ़्रेंस का ऐलान कर दिया।वे दरी बिछाकर वहीं बैठ गए।हम कोई सवाल-जवाब शुरू करते तभी बड़ा शोर सुनाई देने लगा।जनसेवक जी को लगा कि उनके चाहने वाले उनके साथ होली खेलने आए हैं।उनकी यह आशंका उसी वक़्त निर्मूल साबित हो गई जब उनके क़रीबी ने बताया कि वे लोग होली नहीं चुनाव खेलने आ रहे हैं।यह सुनकर जनसेवक जी उसी ओर ताकने लगे।जब वे लोग पास आए तो सलाहकार ने जनसेवक जी को बताया कि ये तीन लोग उनसे महामिलावट करने आए हैं।तीनों अपने-अपने क्षेत्र के पहुँचे हुए लोग हैं।जनसेवक जी ने कहा कि आज के प्रेस-कांफ़्रेंस का यही हासिल है।कृपया इन तीनों का परिचय सरेआम हो।
सलाहकार ने लाइन से तीनों उपलब्धियों को बैठाया।फिर जनसेवक जी की ओर मुख़ातिब होकर बोलना शुरू किया-‘ये जो पहले नंबर पर बैठे हैं,मीडिया को मसाला यही देते हैं।सोशल मीडिया में ये जो भी लिखते हैं,ट्रेंड करने लगता है।बाक़ी मीडिया उसी पर ‘डिबेट’ शुरू कर देती है।यहाँ तक कि ‘विकास’ इनके कहने भर से पटरी से उतर जाता है।चुनाव में हमें इनकी बड़ी मदद मिलने वाली है।ये जो दूसरे नंबर पर सज्जन बैठे हैं,क्या कमाल की नज़र रखते हैं ! ये इतने दूरदर्शी हैं कि दूर देश में किसी घर की छत पर यदि कोई बनियान टँगी हो तो भी इनकी निग़ाह से बच नहीं पाती।अपने ड्रॉइंग रूम में बैठे-बैठे उसका ब्रांड बता देते हैं।ये होने वाले चुनाव के परिणाम को भी देख चुके हैं।अबकी बार ग़ज़ब की मिलावट होने वाली है।और ये जो तीसरे नंबर पर विनम्रता की मूर्ति बने बैठे हैं,इनके बारे में जितना कहा जाय कम है।ये सटीक निशानेबाज़ हैं।विरोधी पर टूटते हैं तो उसे टूटने का मौक़ा भी नहीं देते।ये हमारे दल में ‘जूतामार’ विंग के प्रमुख होंगे।जूता-उद्योग को इनसे बड़ी उम्मीद है।’
इतना सुनते ही जनसेवक जी के अंदर का बनारसी शर्बत उबल पड़ा।ज़ोर से बोल पड़े-‘अब हम उम्मीद से हैं।होली है तो मुमकिन है !’
संतोष त्रिवेदी
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