सम्मान-समिति की पहले से ‘फ़िक्स’ बैठक शहर के एक अज्ञात स्थान पर रखी गई।उद्देश्य यह था कि साहित्य में हो रही लगातार गिरावट को इसके ज़रिए उठाया जाय।इसके लिए ज़रूरी था कि इस बात की ठीक ढंग से तलाश की जाय कि किसको उठाने से कितने लोग गिरेंगे।शहर की नामी इनामी संस्था ने लेखकों से खुला आवेदन माँगा था।इसमें ‘उठे’ और ‘गिरे’ दोनों टाइप के लेखक अपनी संभावनाएँ टटोलने लगे।जो साहित्य में नए-नए घुसे थे,उनको लगा कि सब जगह भले अंधेर हो,साहित्य में अभी भी बहुत कुछ बचा है।इसलिए कुछ लोग साहित्य को और कुछ लोग स्वयं को बचाने के लिए मैदान में कूद पड़े।पिछले साल से भी ज़्यादा आवेदन आए।समिति के ठीक सामने एक बड़ी सी मेज रखी थी,जिसमें समकालीन साहित्य की सभी संभावनाएँ पसरी हुई पड़ी थीं।
अब आइए,पहले समिति के अनुभवी सदस्यों से मिलते हैं।अनुभवी इसलिए कि चारों सज्जन ‘सम्मानयाफ़्ता’ हैं।बड़ी विषम परिस्थितियों में भी ये अपने लिए ‘सम्मान’ निकाल लाए,जब लग रहा था कि ग़लती से असल लेखक न झपट ले जाए।इन सभी ने साहित्य की और अपने ‘सम्मान’ की भरपूर रक्षा की।जो महामना ऊँची कुर्सी पर विराजमान हैं,निर्णायक मंडल के अध्यक्ष वही हैं।वे हमेशा हवाई मार्ग से सफ़र करते हैं। ज़मीन पर तभी उतरते हैं जब कोई सम्मान लेना हो या देना हो।सरकारें भले बदल जाएँ पर उनका रूतबा नहीं बदलता।जो उनके दाएँ बैठे हुए हैं,उन्हें साहित्यिक-यात्राओं का लंबा अनुभव है।शहर के साहित्यिक ठेकों पर उनके नाम का सिक्का चलता है।गोष्ठियाँ उनके ताप से दहकती हैं।लोग सम्मान के पीछे भागते हैं,सम्मान उनके आगे।साहित्य का कोई ऐसा सम्मान नहीं बचा जो उनकी निग़ाह से न गुज़रा हो।लोग जिस तरह अपनी ज़िंदगी में बसंत देखते हैं,साहित्य में उसी तरह वे ‘सम्मान’ देखते हैं।यहाँ तक कि लोग उनसे सम्मान पाने के सूत्र पूछते हैं।
महामना के ठीक बाएँ जो सज्जन दिख रहे हैं,वे पर्याप्त मात्रा में वज़नी रचनाकार हैं।स्कूली बच्चों को जहाँ सालाना इम्तिहान में एक निबंध लिखने के लाले पड़ते हैं,ये हफ़्ते में दस निकाल लेते हैं।इनके वज़नी होने का केवल यही राज नहीं है।महामना के क़रीब रहने से भी इनका वज़न बढ़ा है।इस बात का इन्हें लेशमात्र भी घमंड नहीं है।ये उनके प्रति समर्पित हैं और साहित्य इनके प्रति।
समिति के अभी तक के परिचय से आप क़तई आक्रांत न हों। इसमें संतुलन बरक़रार रहे इसके लिए भी समुचित उपाय किए गए हैं।मेज़ के कोने में बैठे सज्जन इसी उपाय का प्रतिफल हैं।कोना हर लिहाज़ से उनके लिए मुफ़ीद है।वे बैठक से कभी भी बहिर्गमन कर सकते हैं।ना,ना,ना।आप यह अंदाज़ा बिलकुल मत लगाएँ कि पारदर्शिता और ईमानदारी की रक्षा के लिए उनके पास यह अधिकार उपलब्ध है।यह कोना उन्हें इसलिए मुहैया कराया गया है क्योंकि बाहर जाने का रास्ता बिलकुल उसके पास है।जो भी वहाँ बैठे,इस गाँठ को बाँधकर बैठे।उनका काम बस इतना है कि समिति को वे ईमानदारी से संभावित-सम्मानित की ख़बर दें,ताकि समिति बहुमत से उस नाम को ख़ारिज कर सके।
मेज़ में पड़े काग़ज़ के टुकड़ों को उठाने से पहले अध्यक्ष जी ने सभी को सावधान करते हुए कहा,“बैठक की एक गरिमा होती है।कृपया उसे ज़रूर बनाए रखें।साहित्य में टाँग खींचना हमेशा निषिद्ध नहीं माना गया है।आओ हम सब मुर्ग़े की टाँग खींचकर इस परंपरा का पालन करें।जो भी खाना-पीना है,निर्णय देने से पहले ही कर लें।इससे किसी भी तरह के अपराध-बोध से अपना स्वाद ख़राब करने का मौक़ा नहीं मिलेगा।”
महामना के इस विनम्र आह्वान के बाद सभी सदस्य खाने की मेज पर टूट पड़े।थोड़ी देर बाद जब डकारें कमरे के बाहर जाने लगीं तो उन्होंने बैठक शुरू होने की विधिवत घोषणा कर दी।महामना ने मेज पर पड़े लिफ़ाफ़ों पर एक नज़र डाली और कोने वाले सज्जन से कहा कि सबसे पहले वे अपनी संस्तुति पेश करें।
उन्होंने पानी की रंगीनियत को नज़रंदाज़ करते हुए कहना शुरू किया,’जी, यह बड़े हिम्मती लेखक हैं।पिछले तीन सालों से सम्मान की हर दौड़ में हिस्सा लेते हैं पर आख़िरी समय में पता नहीं इनका पत्ता कैसे कट जाता है ! पिछले साल तो ये रनर-अप भी रहे।सम्मान इनसे इतनी बार रूठा है कि ये चाहकर भी सम्मान-वापसी गिरोह में शामिल नहीं हो पा रहे हैं।अगर यह सम्मान इन्हें मिलता है तो मेरी ज़िम्मेदारी है कि ये इसे सरकार का विरोध करते हुए वापस कर देंगे।इससे संस्था और लेखक दोनों का नाम होगा।’ यह कहकर गिलास में बचे हुए रंगीन पानी को उन्होंने हलक से नीचे उतार दिया।
तभी महामना के दाएँ बैठे सज्जन के जिस्म में ज़ोरदार हरकत हुई।कोने की ओर घूरते हुए बोले,‘देखिए,लेखक को फ़क़ीर प्रवृत्ति का होना चाहिए।हमारा वाला पैसे का नहीं सम्मान का भूखा है।इस बार तो इसने हमारे पिताजी के भी सम्मान का ख़याल रखा।उन पर ‘स्मारिका’ निकाली है।मेरी योजना है कि सम्मान का जो भी सामान जैसे नारियल,सुपारी,शॉल है,लेखक चाहे तो ससम्मान अपने घर ले जा सकता है।रही बात धनराशि की,उसे सम्मान-समारोह संपन्न होने के बाद पिछले दरवाज़े पर ही उससे धरवा लेंगे।इसकी गरंटी मैं लेता हूँ।’ यह कहकर उन्होंने सामने पड़ी हड्डी को बड़ी हसरत से देखा।
बाएँ वाले सज्जन ने बेहद गंभीर मुद्रा बना ली।शून्य की ओर चिंतन करते हुए बोले-‘मेरे लिए तो यह ‘सम्मान’ जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है।बेटे ने कल शाम ही दफ़्तर से आकर सूचना दी कि उसके बॉस ख्याति-लब्ध साहित्यकार हैं।बस,थोड़ा-सा सम्मान पा जाएँ तो ‘सम्मान-लब्ध’ भी हो लें।दिक़्क़त ये है कि बेटे का प्रमोशन भी उसी कमबख़्त के हाथ में है।यहाँ तक कि बेटे की मम्मी ने कह दिया है कि दिन भर ‘साहित्य-साहित्य’ खेलते रहते हो,इत्ता-सा ‘खेल’ भी नहीं कर पाए तो हम घर में घुसने नहीं देंगे।’
इतना सुनना था कि महामना से न रहा गया।धीरे से बोलने लगे,‘क्या समय आ गया है !मेरी तो साँस ही अटकी हुई है।बात यह हुई कि एक मोहतरमा से इन्बॉक्स में दो-तीन बार ‘मन की बात’ क्या कर ली,वो इसे अब ‘गंदी बात’ बताने पर आमादा है।सीधे-सीधे धमकी दी है कि अगर इस बार उसे सम्मानित नहीं किया गया तो वह अपना पूरा घाटा मेरे सम्मान से पूरा करेगी।यह बात निश्चित जान लो कि अगर हमारी जान नहीं बची,तो पूरी समिति भंग होगी।इसलिए इस बार देवी जी को ही सम्मानित कर देते हैं।’
इतना सुनते ही सबको साँप सूँघ गया।दाएँ और बाएँ ने हथियार डाल दिए।कोने वाले सज्जन ने खाली गिलास सहित अपना प्रस्ताव वापस ले लिया।इसके बाद समिति ने बहुमत से एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित किया;
‘महिला-सशक्तिकरण को बढ़ावा देने एवं महिला-लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए सम्मान-समिति इस वर्ष का ‘साहित्य-श्री’ सम्मान श्रीमती फुलकारी देवी को देने की अनुशंसा करती है।’
साथ ही उन्होंने कोने वाले सज्जन को अगले साल की निर्णायक समिति का सदस्य फिर घोषित कर दिया।
संतोष त्रिवेदी
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