जैसे शादी के सारे गीत सच्चे नहीं होते,वैसे ही चुनाव-पूर्व लिए गए सारे संकल्प झूठे नहीं होते।चुनाव बाद एकाध संकल्प यदि सच्चा निकल जाए तो समझिए जनता की लॉटरी लग गई।चुनाव से पहले जिस मज़बूत निष्ठा से विरोधी को निपटाना होता है,परिणाम उलट होने पर श्रद्धापूर्वक वही सहयोगी निपट भी जाता है।निष्ठा और सिद्धांत राजनीतिक आत्मा की सगी संतानें हैं।चाहे कुछ भी हो जाए,ये दोनों सही समय पर आत्मा की पुकार सुन लेती हैं।यही कारण है कि निष्ठा और सिद्धांत अपनी जान देकर भी आत्मा की रक्षा करती हैं।शायद इसीलिए सनातन काल से आत्मा अजर-अमर है।लोकतंत्र में उसे तनिक भी खरोंच नहीं आती।विशेषज्ञों की सलाह पर उस पर महागठबंधन का लेप लगाया जाता है ताकि वह ‘अमर’ रहे।
इस बार भी यही हुआ।कुछ लोग बुरी तरह जीते।कुछ लोग अच्छी तरह से हारे।जो लोग ‘प्री-पोल’ में लड्डू बाँट रहे थे,’पोस्ट-पोल’ में ख़ुद बँट गए।मशीनों से अनायास फूल झरने लगे।जिनके ‘हाथ’ कट गए,उन्होंने यह सोचकर संतोष कर लिया कि ‘जो हुआ,सो हुआ’।लोकतंत्र के रण में निष्ठा और सिद्धांत खेत रहे।इतनी ज़ोर की हवा आई कि गठबंधन की गाँठ खुल गई।जन्म-जन्मांतर की क़समें पल भर में झूठी हो गईं।कल की ही बात है।शाम के धुँधलके में टहल रहा था कि अँधेरे में अचानक दो आकृतियाँ नज़र आईं।दूरदृष्टि का ‘चश्मा’ लगाने का यही फ़ायदा होता है।नज़दीक का भले न पढ़ सकें,दूर का साफ़ दिखता है।हमें देखकर बड़ी आकृति कसमसाने लगी।परिचय पूछा तो बुदबुदाहट सुनाई दी ‘हम गठबंधन की गाँठ हैं।अभी-अभी मिलावट से मुक्त हुए हैं।यह ख़बर हमारे लोगों को जल्द से जल्द दे दो।हमारा मिशन पूरा हुआ।’
‘लेकिन आपने तो इस बंधन के लिए ख़ूब क़समें खाई थीं।इतनी जल्दी सब भूल गईं?’ हमने ख़बर निकालने की कोशिश की।‘आपका बुनियादी सवाल ही ग़लत है।पहली बात तो यह कि हम क़सम नहीं वादे खाते हैं।दूसरी बात,हमारी क़समें जनता भूलती है,हम उससे किए वादे।और हाँ,राजनीति में जल्दी कुछ नहीं होता।सब मौक़े से होता है।जब मौक़ा हो,बरसों पुरानी रंजिश भूल जाओ।जब मौक़ा हो,ताज़ी दोस्ती में आग लगा दो।राजनीति हर पल बलिदान चाहती है।हम वही कर रहे हैं।’आकृति पहले से अधिक आश्वस्त होती हुई बोली।
‘आपने तो मिलन का संकल्प लिया था फिर गठबंधन की नश्वरता पर कब यक़ीन हुआ ? इसे तोड़ने का ख़याल कैसे आया ?’हम अभी भी ख़बर खोदने की कोशिश में लगे थे।
गाँठ हमारे सामने खुल चुकी थी इसलिए खुलकर बोलने लगी,‘राजनीति में जब हम कोई संकल्प लेते है तो दरअसल वह हमारे लिए विकल्प होता है।जनता को भी हर समय विकल्प की तलब लगी रहती है।हम तो उसके सेवादार हैं।इसीलिए विकल्प को अपना सार्वकालिक सखा बना रखा है।रही बात नश्वरता की,हमारे अलावा सब नश्वर है,यह हमें शुरू से मालूम था।सहयोगियों को इतनी सीधी बात समझ में नहीं आई।इसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं।रही बात इसे तोड़ने की,यह सरासर ग़लत आरोप है।हमने इसे केवल ‘ब्रेक’ दिया है।आगे फिर से हम समझेंगे ,गाँठ जोड़ लेंगे।तब तक हम इसे ‘होल्ड’ पर रखेंगे।’
हमें बीज-वक्तव्य की तलाश थी,सो पूछ लिया,’लेकिन इतनी मज़बूत मिलावट को आपने बड़ी ख़ूबसूरती से ज़मीन पर ला दिया।इससे आपकी मूर्ति खंडित नहीं हुई ?’
‘देखिए,हम जो भी काम करते हैं,बिलकुल ज़मीनी-स्तर पर करते हैं।इस मिलावट को मिट्टी में मिलाने का काम दूसरों ने किया है।हम तो वह करते हैं जो कहते नहीं।उनके लोगों ने तो कहकर भी नहीं किया।चुनाव में हमारे साथ धोखा हुआ है।हमें ‘गणित’ समझाई गई थी कि देश की ज़िम्मेदारी हमें मिलेगी पर ‘वो’ अपना परिवार भी नहीं बचा पाए।ऐसे लोग हमें क्या बचाएँगे ?’ आकृति अब साफ़ होने लगी थी।
इसी बीच बग़ल वाली आकृति में हरकत हुई।उसके हाव-भाव से लगा कि वह भी कुछ कहना चाह रही है।हम उसके क़रीब गए।अरे,यह तो ‘बंधन’ था,जो ताज़ा-ताज़ा ‘गाँठ’ से अलग हुआ था।हमने अपने कान उसकी ओर मोड़ दिए।‘बंधन’ निराश था पर हताश नहीं।कहने लगा-‘हम विज्ञान के पालक हैं।एक प्रयोग किया,जो विफल रहा।हम लगातार प्रयोग कर रहे हैं।आगे भी करते रहेंगे।वास्तव में इस हार में हमारी जीत हुई है।’इतना सुनते ही हमारे मुड़े हुए कान खड़े हो गए।हम सहसा पूछ बैठे-‘वह कैसे ?’
‘हमारा काम राजनीति में भले हो पर हम रिश्तों को प्राथमिकता देते हैं।गठबंधन में भी हमने रिश्ता निभाया पर दूसरों ने राजनीति की।सत्ता हमारे हाथ नहीं आई,कोई बात नहीं।हार के बहाने हमारा परिवार एक होने जा रहा है,यह बड़ी उपलब्धि है।आख़िर,हम जो करते हैं,परिवार के लिए ही तो.....!’ऐसा कहकर ‘बंधन’ ने लंबी साँस ली।’मगर आपने कई मौक़ों पर कहा है कि आप समाज के लिए राजनीति में हैं ?’ हमने अपना सवाल उछाल दिया।
‘हाँ,हमने कई मौक़ों पर कहा है,आगे भी कहेंगे।यहाँ तक कि हमारी पार्टी ही ‘समाज’ को समर्पित है।पर अभी मौक़ा दूसरा है।वैसे हमें इस चुनाव ने कई सबक़ दिए हैं।एक तो यह कि हमेशा दो प्लान तैयार रखो।प्लान ‘ए’ फ़ेल हो जाए तो झट से प्लान ‘बी’ आगे बढ़ा दो।लड्डू की तरह दोनों हाथों में विकल्प रखो।वास्तव में हम मतों से नहीं प्लान ‘बी’ से मात खा गए।’ऐसा कहकर बंधन ने गाँठ की ओर देखा,लेकिन वहाँ कोई नहीं दिखा।
अँधेरा गहराने लगा था।हम भी घर की ओर भागे।
संतोष त्रिवेदी
इस बार भी यही हुआ।कुछ लोग बुरी तरह जीते।कुछ लोग अच्छी तरह से हारे।जो लोग ‘प्री-पोल’ में लड्डू बाँट रहे थे,’पोस्ट-पोल’ में ख़ुद बँट गए।मशीनों से अनायास फूल झरने लगे।जिनके ‘हाथ’ कट गए,उन्होंने यह सोचकर संतोष कर लिया कि ‘जो हुआ,सो हुआ’।लोकतंत्र के रण में निष्ठा और सिद्धांत खेत रहे।इतनी ज़ोर की हवा आई कि गठबंधन की गाँठ खुल गई।जन्म-जन्मांतर की क़समें पल भर में झूठी हो गईं।कल की ही बात है।शाम के धुँधलके में टहल रहा था कि अँधेरे में अचानक दो आकृतियाँ नज़र आईं।दूरदृष्टि का ‘चश्मा’ लगाने का यही फ़ायदा होता है।नज़दीक का भले न पढ़ सकें,दूर का साफ़ दिखता है।हमें देखकर बड़ी आकृति कसमसाने लगी।परिचय पूछा तो बुदबुदाहट सुनाई दी ‘हम गठबंधन की गाँठ हैं।अभी-अभी मिलावट से मुक्त हुए हैं।यह ख़बर हमारे लोगों को जल्द से जल्द दे दो।हमारा मिशन पूरा हुआ।’
‘लेकिन आपने तो इस बंधन के लिए ख़ूब क़समें खाई थीं।इतनी जल्दी सब भूल गईं?’ हमने ख़बर निकालने की कोशिश की।‘आपका बुनियादी सवाल ही ग़लत है।पहली बात तो यह कि हम क़सम नहीं वादे खाते हैं।दूसरी बात,हमारी क़समें जनता भूलती है,हम उससे किए वादे।और हाँ,राजनीति में जल्दी कुछ नहीं होता।सब मौक़े से होता है।जब मौक़ा हो,बरसों पुरानी रंजिश भूल जाओ।जब मौक़ा हो,ताज़ी दोस्ती में आग लगा दो।राजनीति हर पल बलिदान चाहती है।हम वही कर रहे हैं।’आकृति पहले से अधिक आश्वस्त होती हुई बोली।
‘आपने तो मिलन का संकल्प लिया था फिर गठबंधन की नश्वरता पर कब यक़ीन हुआ ? इसे तोड़ने का ख़याल कैसे आया ?’हम अभी भी ख़बर खोदने की कोशिश में लगे थे।
गाँठ हमारे सामने खुल चुकी थी इसलिए खुलकर बोलने लगी,‘राजनीति में जब हम कोई संकल्प लेते है तो दरअसल वह हमारे लिए विकल्प होता है।जनता को भी हर समय विकल्प की तलब लगी रहती है।हम तो उसके सेवादार हैं।इसीलिए विकल्प को अपना सार्वकालिक सखा बना रखा है।रही बात नश्वरता की,हमारे अलावा सब नश्वर है,यह हमें शुरू से मालूम था।सहयोगियों को इतनी सीधी बात समझ में नहीं आई।इसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं।रही बात इसे तोड़ने की,यह सरासर ग़लत आरोप है।हमने इसे केवल ‘ब्रेक’ दिया है।आगे फिर से हम समझेंगे ,गाँठ जोड़ लेंगे।तब तक हम इसे ‘होल्ड’ पर रखेंगे।’
हमें बीज-वक्तव्य की तलाश थी,सो पूछ लिया,’लेकिन इतनी मज़बूत मिलावट को आपने बड़ी ख़ूबसूरती से ज़मीन पर ला दिया।इससे आपकी मूर्ति खंडित नहीं हुई ?’
‘देखिए,हम जो भी काम करते हैं,बिलकुल ज़मीनी-स्तर पर करते हैं।इस मिलावट को मिट्टी में मिलाने का काम दूसरों ने किया है।हम तो वह करते हैं जो कहते नहीं।उनके लोगों ने तो कहकर भी नहीं किया।चुनाव में हमारे साथ धोखा हुआ है।हमें ‘गणित’ समझाई गई थी कि देश की ज़िम्मेदारी हमें मिलेगी पर ‘वो’ अपना परिवार भी नहीं बचा पाए।ऐसे लोग हमें क्या बचाएँगे ?’ आकृति अब साफ़ होने लगी थी।
इसी बीच बग़ल वाली आकृति में हरकत हुई।उसके हाव-भाव से लगा कि वह भी कुछ कहना चाह रही है।हम उसके क़रीब गए।अरे,यह तो ‘बंधन’ था,जो ताज़ा-ताज़ा ‘गाँठ’ से अलग हुआ था।हमने अपने कान उसकी ओर मोड़ दिए।‘बंधन’ निराश था पर हताश नहीं।कहने लगा-‘हम विज्ञान के पालक हैं।एक प्रयोग किया,जो विफल रहा।हम लगातार प्रयोग कर रहे हैं।आगे भी करते रहेंगे।वास्तव में इस हार में हमारी जीत हुई है।’इतना सुनते ही हमारे मुड़े हुए कान खड़े हो गए।हम सहसा पूछ बैठे-‘वह कैसे ?’
‘हमारा काम राजनीति में भले हो पर हम रिश्तों को प्राथमिकता देते हैं।गठबंधन में भी हमने रिश्ता निभाया पर दूसरों ने राजनीति की।सत्ता हमारे हाथ नहीं आई,कोई बात नहीं।हार के बहाने हमारा परिवार एक होने जा रहा है,यह बड़ी उपलब्धि है।आख़िर,हम जो करते हैं,परिवार के लिए ही तो.....!’ऐसा कहकर ‘बंधन’ ने लंबी साँस ली।’मगर आपने कई मौक़ों पर कहा है कि आप समाज के लिए राजनीति में हैं ?’ हमने अपना सवाल उछाल दिया।
‘हाँ,हमने कई मौक़ों पर कहा है,आगे भी कहेंगे।यहाँ तक कि हमारी पार्टी ही ‘समाज’ को समर्पित है।पर अभी मौक़ा दूसरा है।वैसे हमें इस चुनाव ने कई सबक़ दिए हैं।एक तो यह कि हमेशा दो प्लान तैयार रखो।प्लान ‘ए’ फ़ेल हो जाए तो झट से प्लान ‘बी’ आगे बढ़ा दो।लड्डू की तरह दोनों हाथों में विकल्प रखो।वास्तव में हम मतों से नहीं प्लान ‘बी’ से मात खा गए।’ऐसा कहकर बंधन ने गाँठ की ओर देखा,लेकिन वहाँ कोई नहीं दिखा।
अँधेरा गहराने लगा था।हम भी घर की ओर भागे।
संतोष त्रिवेदी
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